tag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post517238238620441670..comments2023-07-30T06:48:03.724-07:00Comments on पुनर्विचार: क्या शताब्दियाँ स्मृति से भी अधिक विस्मृति का वितान रचती हैं?आशुतोष कुमारhttp://www.blogger.com/profile/17099881050749902869noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-45926010432691880942010-12-24T03:20:30.317-08:002010-12-24T03:20:30.317-08:00२१ दिसम्बर को आपके अखबार में प्रकाशित आशुतोष कुमार...२१ दिसम्बर को आपके अखबार में प्रकाशित आशुतोष कुमार के लेख शताब्दी समय में कुछ बातें थोड़ी दिक्कत तलब हैं. एक तो भुवनेश्वर के बारे में उनकी जानकारी थोड़ी कम है. उनको जानना चाहिय की शाहजहांपुर से बहार भी उनको याद किया गया.अ इलाहबाद में भुवनेश्वर पर न सिर्फ गोष्ठियां हुई बल्कि तीन दिन का नाट्य समारोह भी आयोजित हुआ. रही बात उनके द्वारा शताब्दी समारोह करने या कैनन आदि पर बहस की तो याद किया जाना चाहिए की अभी कुछ बरस पहले ही भगत सिंह की शताब्दी बीती है और १८५७ के महासंग्राम की १५० वी सालगिरह इनको किसी सत्ता धारियों ने नहींबल्कि उनकी विस्मृति के खिलाफ आम लोगो ने उनको याद करके साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष की परंपरा को याद करने में किया. नागार्जुन या केदार या फैज को याद करने का भी यही मतलब है.कोई और नहीं बल्कि आशुतोष कुमार ही यह लेख लिक्खकर एक लेखक के बरक्श दुसरे को भिड़ा देने की जुगत करते दिखाई पड़ते है.<br /><br />नासिर कबीरAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-33344557480982856622010-12-23T17:36:06.217-08:002010-12-23T17:36:06.217-08:00हाँ अब ठीक दिशा में विक्सित हो रहा है विमर्श ...हाँ अब ठीक दिशा में विक्सित हो रहा है विमर्श . इसे आगे बढ़ाइए.आशुतोष कुमारhttps://www.blogger.com/profile/17099881050749902869noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-14882947839995878322010-12-23T17:35:22.605-08:002010-12-23T17:35:22.605-08:00हाँ अब ठीक दिशा में विक्सित हो रहा है विमर्श ...हाँ अब ठीक दिशा में विक्सित हो रहा है विमर्श . इसे आगे बढ़ाइए.आशुतोष कुमारhttps://www.blogger.com/profile/17099881050749902869noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-8187639253543592752010-12-21T20:41:41.688-08:002010-12-21T20:41:41.688-08:00व्यवस्था बदलने की लड़ाई को कैनन बदलने की लड़ाई कहन...व्यवस्था बदलने की लड़ाई को कैनन बदलने की लड़ाई कहना उसे रिड्यूस करना है. कैननाइज़ेशन पूंजीवादी समाज का वैशिष्ट्य है, बिलकुल राष्ट्र-राज्य या सेना की तरह. इसलिए उसके स्थायीकरण को लेकर चिंता मुझे वाजिब तो लगती है पर ओवरव्हेल्मिंग नहीं. <br />प्रतिरोध के राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के दो अवयव मुझे नज़र आते हैं. पहला सकारात्मक अवयव है 'कमेमरेशन', जिसके माध्यम से पुनर्मूल्यांकन किया जा सकता है. इसमें भावनाओं के हावी होने के खतरा है इस बात से सहमति है.<br />दूसरा नकारात्मक अवयव है - 'डीकैननाइज़ेशन' (तोड़ने ही होंगे...) जिसके माध्यम से व्यक्तिपूजा का निषेध, 'हर चीज़ की निर्मम आलोचना' आदि बातें उपार्जित की जा सकती हैं.भारत भूषण तिवारीhttps://www.blogger.com/profile/12706567132548135848noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-35516319155683707512010-12-20T19:55:30.094-08:002010-12-20T19:55:30.094-08:00आज दिनांक 21 दिसम्बर 2010 के दैनिक जनसत्ता में स...आज दिनांक 21 दिसम्बर 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट शताब्दी समय में शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए <a href="http://www.jansattaraipur.com/" rel="nofollow">जनसत्ता</a> पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें। <br /><br /><a href="javascript:void(0);" rel="nofollow">गिरीश बिल्लौरे और अविनाश वाचस्पति की वीडियो बातचीत </a>अविनाश वाचस्पतिhttps://www.blogger.com/profile/05081322291051590431noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-78573006496128115772010-12-17T09:44:33.854-08:002010-12-17T09:44:33.854-08:00संस्कृति के क्षेत्र में कैनन को ख़त्म नहीं किया ज...संस्कृति के क्षेत्र में कैनन को ख़त्म नहीं किया जा सकता. व्यवस्था बदलने की लड़ाई भी एक तरह से कैनन को बदलने की लड़ाई है. खतरा कैनन के स्थायी करण में है.बकौल बाख्तीन कैननाइज़ेशन यही है. इस खतरे के प्रति सचेत न रहने से व्यक्तिपूजा की प्रवृति को निश्चित बढ़ावा मिलता है. निरंतर आलोचनात्मक बने रहना कठिन हो जाता है. शायद इसी कठिनाई से बचने के लिए लोग किसी न किसी कैनन को स्वीकार कर लेते हैं. हिंदी में हालिया उदाहरण भारतेंदु के पुनर्मूल्यांकन का है. भारतेंदु की उपलब्धियां अपनी जगह, लेकिन आज जब कोई उन के कुछ अंतर्विरोधों की तरफ इशारा करता है, तब भावनाएं इस कदर हावी हो जाते हैं कि बात सुनी जाने के पहले ही खारिज कर दी जाती है.आज जब दलित लेखक हिंदी के स्थापित कैनन को चुनौती देता है,तब गंभीरता से उस का सामना करने की जगह एक बेचैन बौखलाहट परिदृश्य को जकड लेती है. जब प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव , राहुल सांस्कृत्यायन आदि ने तुलसी की महता को चुनौती दी , तब क्या हुआ? मार्क्सवादी आलोचना को तब तक गंभीरता से नहीं लिया गया , जब तक राम विलास जी ने तुलसी की सामंतविरोधी महत्ता न ढूंढ निकाली. ऐसे बहुत से कारण हैं , जिन के चलते कैननाइज़ेशन की प्रक्रिया पर गहराई और बारीकी से सोचने की जरूरत लगती है.आशुतोष कुमारhttps://www.blogger.com/profile/17099881050749902869noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-91206152109703548072010-12-13T20:14:55.502-08:002010-12-13T20:14:55.502-08:00स्मरण के शोर में छुपी हुई विस्मृति की मौन गर्जना स...स्मरण के शोर में छुपी हुई विस्मृति की मौन गर्जना सुनने की कोशिश में निर्व्यक्तिकरण के प्रति अतिरिक्त आग्रह नज़र आता है. और फिर पूछा जा सकता है कि ऐतिहासिक द्वंद्ववाद और वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित विश्व-दृष्टि को 'मार्क्स'वाद कहते जाना भी कहीं कैननाइज़ेशन को बढ़ावा देना तो नहीं?<br />'कैननाइज़ेशन' (बुर्जुआ) व्यवस्था करती है; उसे बदलने की चाह रखने वाले तो फ़क़त 'कमेमरेशन' करते हैं. तरीका ज़रूर एक जैसा लग सकता है, पर दोनों में वही फर्क है जो बरखा दत्त और पी साईनाथ के बीच है, जो 'सामना' और 'समकालीन जनमत' के बीच है. और हाँ, इस कमेमरेशन में 'कहो रे भाई सब संतन की जय' की गर्जना भी सुनाई देती है ना?भारत भूषण तिवारीhttps://www.blogger.com/profile/12706567132548135848noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-58699112991340043082010-12-12T18:11:19.189-08:002010-12-12T18:11:19.189-08:00ज़ील जी ने सही कहा आशूतोष जी। बहुत बारीकी से देखा ज...ज़ील जी ने सही कहा आशूतोष जी। बहुत बारीकी से देखा जाए तो सच में विस्मृति का वितान रचती हैं। फिर मनाना ज़रूरी है आय थिंक।किलर झपाटाhttps://www.blogger.com/profile/07325715774314153336noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-781663575574699403.post-69960775967136266102010-12-12T17:50:43.048-08:002010-12-12T17:50:43.048-08:00.
आशुतोष जी ,
कैनानाईजेशन का कांसेप्ट बहुत अच्छ....<br /><br />आशुतोष जी ,<br /><br />कैनानाईजेशन का कांसेप्ट बहुत अच्छा लगा। सकारात्मक बदलाव की माग एक कैनन स्वरूपी प्रतिरोध ही पूरा कर सकता है। निश्चय ही इसकी सांस्कृतिक परंपरा को स्वीकृति मिलनी चाहिए। <br /><br />.ZEALhttps://www.blogger.com/profile/04046257625059781313noreply@blogger.com