Tuesday, January 16, 2024

भारतीय फ़ासीवाद और प्रतिरोध की संभावना

फासीवाद का सबसे बड़ा लक्षण

क्या भारत की वर्तमान परिस्थिति को फासीवाद के रूप में चिन्हित किया जा सकता है? अथवा क्या इसे केवल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवाद की राजनीति के रूप में देखा जाना चाहिए? यह सवाल महत्वपूर्ण इसलिए है कि जवाब पर इस परिस्थिति से मुकाबला करने की रणनीति निर्भर करती है।

अगर यह फासीवाद है तो इसके उद्भव और वर्तमान शक्ति-सम्पन्नता के आधारभूत कारण क्या हैं? क्या यह केवल वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद के संकट की अभिव्यक्ति है, जैसा कि प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्री समझते हैं?

क्या भारतीय फ़ासीवाद जैसी किसी अवधारणा के बारे में सोचा जा सकता है? या यह सिर्फ एक वैश्विक प्रवृत्ति है?

अगर यह फ़ासीवाद नहीं है तो क्या यह पश्चिम और पश्चिमपरस्त राजनेताओं और बौद्धिकों द्वारा अन्यायपूर्ण ढंग से दबाए गए हिन्दू राष्ट्रवाद का उभार है, जैसा कि  के भट्टाचार्जी जैसे सावरकरी टिप्पणीकार दावा करते हैं?

क्या यह संघ के भीतर बढ़ते हुए लोकतंत्रीकरण के चलते उसकी पहल पर  वंचित- उत्पीड़ित जन समुदाय द्वारा किया गया सत्ता परिवर्तन है, जिसने कुलीन वर्गों की कीमत पर  अकुलीनों को शक्तिशाली बनाया है? जैसा कि अभय कुमार दुबे और बद्री नारायण जैसे सामाजिक लेखक संकेत करते हैं?

इतिहासकार रामचन्द्र गुहा सरीखे  कुछ बुद्धिजीवियों के मन में यह संशय रहा आया है कि भारत के मौजूदा निज़ाम और उसके द्वारा पैदा किये गए  सामाजिक राजनीतिक संकट को फासीवाद कहा जा सकता है या नहीं। वामपंथी दायरों में भी एक मत यह है कि भारत की वर्तमान सत्ता-संस्कृति  को अधिनायकवादी या सर्वसत्तावादी तो कहा जा सकता है, लेकिन फासीवादी नहीं. इस मत के अनुसार, भारत में अभी भी लोकतांत्रिक संस्थाएं काम कर रही हैं, वे  पूरी तरह ख़त्म नहीं हो गई हैं. नागरिक समाज के सामने अभी भी बेहतर को चुनने का विकल्प मौजूद है, विपक्ष की चुनौती ख़ुद को उसके सामने भरोसेमंद तरीके से  बेहतर विकल्प के रूप में पेश करने भर की है.

दूसरा मत इस बात पर जोर देता है कि फासीवाद भारत में भले ही अभी भी अपने निकृष्टतम रूप में प्रगट न हुआ हो, लेकिन लगातार आगे बढ़ रहा है और देश की लोकतांत्रिक शक्तियों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में मौजूद है. वामपंथी दायरों के भीतर से ही उभरने वाला एक मत यह है कि भारत में सर्वसत्तावाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष चलाने के लिए यह जरूरी है कि फासीवाद और ‘सर्वहारा की तानाशाही’ की कम्युनिस्ट अवधारणा की सामान रूप से और एक साथ निंदा की जाए. यह मत इन दोनों अवाधारणाओं को को सर्वसत्तावाद के रूप में चिह्नित करता है और इसके विरुद्ध ‘उदारवादी लोकतंत्र’ को बेहतर विकल्प के रूप में पेश करता है. हालांकि अपने अंतिम लक्ष्य के रूप में यह ‘समाजवादी लोकतन्त्र’    

इन सभी मतों को हमने भारत की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों, माकपा और भाकपा माले, की अंदरूनी बहसों के रूप में उभरते हुए देखा है.

बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा वर्तमान संकट को आज भी केवल साम्प्रदायिकता की समस्या के रूप में देखता  है. यह तबका इस बात पर जोर देता है कि इस समस्या को हल करने के लिए हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकताओं के विरुद्ध एक साथ और समान रूप से संघर्ष चलाने की जरूरत है. कहना न होगा कि जिस समय हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा और हिंदूकृत राज्य मशीनरी अल्पसंख्यक नागरिक आबादी के रूप में मुस्लिम समुदाय के गैरीकरण, हाशियाकरण और न्यूनीकरण के अभियान लगातार चला रही हो, उस समय ‘हर तरह की साम्प्रदायिकता’ की निंदा का यह विमर्श हिंदूकृत राजसत्ता को वैधता देने के सिवा कुछ और नहीं करता.

इधर सर्वोच्च न्यायालय ने एक के बाद एक कई फैसलों में नागरिक आज़ादियों के खिलाफ राजकीय दमन के अधिकार को मान्यता देकर ऐसे भोले संदेहों को निर्मूल करने की कोशिश की है। ये आज़ादियाँ कठिन संघर्ष और अनगिनत बलिदानों से हासिल की गई थीं।

हमने अयोध्या मामले में देखा कि सुप्रीम कोर्ट ने कथित आस्था के आधार पर बाबरी मस्जिद शहीद  करने वाले हिंदूवादी फ़ासीवादी नेताओं को दोषी ठहराने से इनकार कर दिया। यह मानते हुए भी कि मस्जिद का विध्वंस घोर आपराधिक कृत्य था और वहाँ किसी राम मन्दिर के होने के कोई सबूत नहीं हैं, कोर्ट ने उन्हीं अपराधियों को उनकी कब्ज़ाई जमीन मन्दिर बनाने के लिए दे दी। दूसरी तरफ इसी कोर्ट ने धारा 370 और नागरिकता कानूनों के मुद्दों पर जनता की व्यापक अपील के बावज़ूद सरकार की असंवैधानिक कार्रवाइयों पर रोक नहीं लगाई।

ज़किया जाफ़री मामले में जनसंहार पीड़िता की जाँच कराने की माँग को ठुकराते हुए कोर्ट ने उलटे उनकी सहयोगी याचिकाकार  तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ़ सरकार को पुलिस कार्रवाई करने का अधिकार बिन माँगे दे दिया। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जनसंहार की जाँच की याचिका देने वाले हिमांशु कुमार पर भी सुप्रीम कोर्ट ने भारी जुर्माना लगाया है। जुर्माना न देने पर गिरफ्तारी का आदेश है। गांधीवादी हिमांशु कुमार ने इस अन्यायपूर्ण जुर्माने को अदा करने से इनकार कर दिया है।

यह सच है कि फ़ेक न्यूज़ के खिलाफ अभियान चलाने वाले पत्रकार मुहम्मद जुबैर की अवैध गिरफ्तारी जैसे एकाध मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुरूप फैसला दिया है। लेकिन ऐसे मामले अपवाद होते जा रहे हैं और सरकारपरस्ती के तहत लिए जा रहे फैसले आम।

भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में भिड़े और एकबोटे जैसे असली दंगाई खुलेआम घूम रहे हैं, जबकि दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले आनंद तेलतुंबड़े  और गौतम नौलखा जैसे लब्धप्रतिष्ठ लेखक- कर्मकर्ता बनावटी सबूतों के आधार पर यूएपीए के तहत सालों से जेल में बंद हैं।

इधर सुप्रीम कोर्ट ने विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी लठैत की तरह काम कर रहे प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को बिना आरोप बताए किसी के भी घर छापा मारने और उसे गिरफ्तार करने के अधिकार की पुष्टि कर दी है। विपक्ष का आरोप है कि ईडी धन शोधन के मामलों की जाँच करने की जगह अपने असीमित दमनकारी अधिकारों का उपयोग विपक्षी सरकारों को ध्वस्त करने और असहमत आवाजों को चुप करने के लिए कर रही है।

पिछले कुछ सालों में पनामा पेपर से लेकर पंडोरा पेपर्स  और अदानी मामले तक भ्रष्टाचार से हासिल की गई अकल्पनीय धनराशि को विदेशों में खपाने, बैंकों से भारी मात्रा में अवैध कर्ज लेकर विदेश भाग जाने के मामले एक के बाद एक सामने आते गए हैं। इन घोटालों में सत्ता संपन्न वर्गों से जुड़े हजारों बड़े बड़े नाम सामने आए हैं। स्विस बैंकों में हिंदुस्तानियों के द्वारा जमा किया गया काला धन 14 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है- 30 हजार 500 करोड़। इन सभी मामलों में अपराधियों के खिलाफ कोई गंभीर कदम नहीं उठाए गए हैं। स्पष्ट है कि सरकार भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की जगह उसे प्रोत्साहित करने में लगी हुई है।

इसका सबसे बड़ा सबूत गोपनीय इलेक्टरल बॉन्ड्स के जरिए बड़े कारपोरेट घरानों द्वारा दिए जा रहे  गुप्त चंदे की व्यवस्था को बनाए रखना है। सभी जानते हैं कि इस गुप्त चंदे  का भारतीय चुनावों में कितना बड़ा दख़ल है।

फ़ासीवाद का सबसे बड़ा लक्षण कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका के एक गठबंधन के रूप में काम करने की प्रवृत्ति है। लोकतंत्र में इन तीनों के अलगाव और इनकी स्वायत्तता पर इसलिए जोर दिया जाता है कि कोई एक समूह राजसत्ता का दुरुपयोग न कर सके। तीनों निकाय एक दूसरे पर नजर रखने और एक दूसरे को नियंत्रित करने का कार्य करें। इस व्यवस्था के बिना एक व्यक्ति और एक गुट की निरंकुश तानाशाही से बचना नामुमकिन है।

अयोध्या-विवाद से लेकर गुलबर्ग सोसाइटी जनसंहार  और छतीसगढ़ जनसंहार तक के मामलों में हमने सुप्रीम कोर्ट को संविधान-प्रदत्त नागरिक अधिकारों और न्याय की अवधारणा के विरूद्ध राज्य के बहुमतवादी फ़ैसलों के पक्ष में खड़े होते देखा है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने धन-शोधन निवारण अधिनियम के अन्यायपूर्ण प्रावधानों के खिलाफ दी गई याचिका पर राज्य के पक्ष में फैसला दिया है. सीएए और  धारा 370 के निर्मूलीकरण जैसे मामलों में चुप्पी साधकर भी उसने नागरिक अधिकारों के विरुद्ध राजकीय निरंकुशता का समर्थन किया है.

नाज़ी जर्मनी में ग्लाइसेशतुंग या समेकन के नाजी कानूनों के जरिए इसी तरह राज्य के सभी निकायों को सकेन्द्रित और एकात्म बनाया था.  हिटलर की तरह मुसोलिनी ने भी ‘राष्ट्र-राज्य सर्वोपरि’  के सिद्धांत के तहत न्यायपालिका को पालतू बनाने का काम किया था. भारत में भी हमने गृह मंत्री अमित शाह को सबरीमाला  मामले में  सुप्रीम कोर्ट को चेतावनी देते देखा है.  कहना न होगा कि भारत में भी संवैधानिक संस्थाओं और न्यापालिका के बड़े हिस्से पर  कार्यपालिका के साथ मिलकर समेकित रूप से कलाम करने के आरोप तेज हुए हैं.


भारत में फासीवाद और वर्णाश्रम 

 भारत में फ़ासीवाद के सभी जाने पहचाने लक्षण प्रबल रूप से दिखाई दे रहे हैं। एक व्यक्ति की तानाशाही और व्यक्ति पूजा का व्यापक प्रचार। मुख्य धार्मिक अल्पसंख्यक समूह के विरुद्ध नफरत, हिंसा और अपमान का अटूट सिलसिला। अल्पसंख्यकों के खिलाफ अधिकतम हिंसा के पक्ष में जनता के व्यापक हिस्सों का जुनून। विपक्ष की बढ़ती हुई असहायता। स्वतंत्र आवाजों का क्रूर दमन। दमन के कानूनी और ग़ैरकानूनी रूपों का विस्तार। मजदूरों और किसानों के अधिकारों में जबरदस्त कटौती। आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के सम्मान के संघर्षों का पीछे ढकेला जाना। शिक्षा पर भगवा नियंत्रण। छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का विलोपन। फ़ासीवादी प्रचार के लिए साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, सिनेमा और दीगर कला-विधाओं के नियंत्रण और विरूपण को राज्य की ओर से दिया जा रहा संरक्षण और प्रोत्साहन।

 देशकाल के अनुसार फासीवाद अनेक रूप ग्रहण करता रहा है। मुसोलिनी का फासीवाद हिटलर का नाज़ीवाद, ट्रंप का ट्रंपवाद या पुतिन का पुतिनवाद बिल्कुल एक ही जैसी परिघटनाएं नहीं हैं, लेकिन इनमें कुछ बुनियादी और आत्यंतिक समानताएं मौज़ूद हैं। इन्हीं समानताओं के आधार पर फासीवाद की पहचान की जा सकती है।

फासीवाद पहचान-मूलक भावनात्मक राष्ट्रवाद का एक ऐसा संस्करण है, जो बाहरी और भीतरी ‘शत्रुओं’ की शिनाख़्त पर जोर देता है और उनके ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा से भरे हुए जन- उन्मादी अभियानों से ऊर्जा प्राप्त करता है। यह नागरिकों में राष्ट्र के प्रति शर्त रहित समर्पण की भावना जगाता है, उनसे राष्ट्रहित में आधुनिक नागरिक अधिकारों के परित्याग की मांग करता है और इसे सुनिश्चित करने के लिए राज्य मशीनरी की हिंसक शक्ति के अतिरिक्त ग़ैर-राज्य मिलिशिया के संगठित समूहों का उपयोग करता है। जाहिर है यह एक ऐसा निज़ाम है जो अंततः राष्ट्र, राज्य और नागरिक तीनों के लिए विनाशकारी साबित होता है।

भारतीय फासीवाद की कुछ अपनी विशेषताएं। ये विशेषताएं भारत की अपनी परिस्थितियों से उत्पन्न हुई है। भारत विविधताओँ से भरा हुआ एक विशाल महादेश है, जहाँ यूरोप के छोटे देशों में फले फूले फासीवादी-नाज़ीवादी प्रयोग का टिक पाना असंभव था। यूरोप में फासीवाद के प्रयोग मुख्यतः एक व्यक्ति- महानायक – को केंद्र में रखकर चले. मसीहा के रूप में महानायक की स्थापना वहाँ के फासी-नाजी निजामों की बुनियाद थी. भारत में भी फासीवादी राजनीति महानायक का इस्तेमाल करती है, लेकिन वह हमेशा मात्रि-संगठन के नियंत्रण में रहता है. इसलिए एक महानायक के विफल होने पर उसे दूसरे से विस्थापित किया जा सकता है.

वास्तव में इस विशाल महादेश की समाज-राजनीति को एक सर्वोच्च व्यक्ति-केंद्र नियंत्रित नहीं कर सकता. ऐसा नियंत्रण कायम करना किसी ऐसे ही संगठन के बस की बात है, जिसकी शाखाएं हर गाँव-शहर-बस्ती में, हर गली-कूचे में फ़ैली हुई हों. जो अपने आप में स्वायत्त इकाइयों की तरह काम करती हों, लेकिन जो संगठन के दृश्य-अदृश्य आतंरिक नेत्रित्व के फ़ैसलों, प्रचार-अभियानों, सांस्कृतिक-राजनैतिक रणनीतियों और तात्कालिक कार्यक्रमों को मशीनी कुशलता और तत्परता के साथ लागू कर सकते हों. भारत में संघ ने महानायक से पहले ऐसे संगठन के निर्माण पर जोर दिया, कि जिसकी जमीनी ताक़त से आज वह महानायकों को प्रक्षेपित और नियंत्रित कर सकने की स्थिति में है.

संघ जिस तरह वैयक्तिक नायकत्व और सांगठनिक सर्वोच्चता को एक साथ साध लेता है, उसी तरह अपनी हजारो इकाइयों, समूहों, मंचों और संस्थाओं की सापेक्षिक स्वायत्तता और कठोर सांगठनिक नियंत्रण को भी. वह उसी तरह बहुत तरह के वैचारिक –राजनीतिक नवाचार और हिंदुत्व की अपनी कोर-विचारधारा की कट्टरता को भी एक साथ साध लेता है. यह विचारधारा राजनीति के हिन्दूकरण और हिन्दुओं के सैन्यीकरण की  सावरकर–प्रणीत विचारधारा है.

कोर–कट्टरता और  बाहरी लचीलेपन के इस विरुद्ध सामंजस्य ने भारतीय फासीवाद को एक लम्बी कालावधि में, बदलते हुए अनेक अच्छे -बुरे दौरों में टिके रहने और आगे बढ़ने की क्षमता प्रदान की है. ध्यान से देखने पर साफ़ हो जाता है कि ये सारी विशेषताएं हिन्दू वर्ण-जाति व्यवस्था की वे विशेषताएं हैं, जिनके सहारे ये व्यवस्था हजारो सालों से बदलती हुई ऐतिहासिक परिस्थितियों के बीच ख़ुद को बचाए रखने में ही नहीं, अधिकाधिक मजबूत बनाते जाने में भी सफल हुई है .

भारतीय फासीवाद दुनिया का सबसे दीर्घकालीन राजनैतिक अभियान है। यह अभियान व्यवस्थित रूप से सन् 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के साथ शुरू होता अनेक अवस्थाओं से गुजरता हुआ आज तक चला रहा। संघ की संकल्पना में इतालवी फ़ासीवाद और जर्मन नाजीवाद की प्रेरणाओं और प्रभावों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। विश्व युद्ध के साथ इन दोनों प्रयोगों का उदय और अस्त बहुत तेज गति से हुआ। भारत में संघ का की राजनीति लगभग 100 वर्षों के समय अंतराल में धीमे-धीमे फलती फूलती रही है .

 अब जाकर वह एक ऐसी स्थिति में है जब यह कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति और समाज नीति के नियंत्रणकारी और निर्णायक निकायों पर उसका प्रभुत्व लगभग उसके इच्छा-अनुसार कायम हो चुका है। यह बदलाव धीमी गति से भारतीय समाज राजनीति की समूची संरचना बाहर से बहुत बदले बग़ैर उसकी अंतर्वस्तु को  भीतर से बदलते हुए किया गया है।  यह बदलाव ऐसे हैं जिन्हें अनकिया  करने के लिए उतने ही दीर्घकालीन सतत उद्यम की जरूरत होगी. इसलिए किसी को यह मुगालता नहीं होना चाहिए कि केंद्र की सरकार बदल जाने भर से भारतीय फासीवाद को शिकस्त दी जा सकेगी।

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सैनिक या सैनिक तरीकों से सीधे राजनेता पर कब्जा करने की किसी तात्कालिक परियोजना के बजाय शुरू से ही भारतीय राजनीति के स्वरूप को बदलने और और भारतीय नागरिक समाज की चेतना को अपनी कल्पना के अनुसार पुनर्निर्मित करने पर जोर दिया है।

 प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध विविधताओं से भरे विस्तृत भूभाग वाले किसी विशाल देश में सहजीवन, सद्भाव, मेल-जोल, साँझापन, सहभागिता, नवोन्मेष और विविधता के सम्मान जैसे गुण सहज ही विकसित हो जाते हैं। संघ की स्थापना के समय भारत का राष्ट्रीय आंदोलन इन्ही सामाजिक मूल्यों के साथ विकसित हो रहा था।

लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के आधुनिक विचारों ने इन मूल्यों को और अधिक मजबूत और चमकीला बना दिया था। इन विचारों के बढ़ते प्रसार ने भारत के परंपरागत वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सत्ता संरचना के ध्वजधारियों को गहरी चिंता में डाल दिया था।  संघ और हिंदू महासभा के संस्थापकों और उन्नायकों का सीधा सम्बंध इन्ही तत्वों का सर्वोच्च प्रतिनिधित्व करने वाली मराठी पेशवाई की परंपरा से था। वे भारत में एक ऐसे राष्ट्रवाद को स्थापित करने के लिए बेचैन थे, जिसके जरिए स्वाधीनता संग्राम के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समाजवादी मूल्यों को संघ द्वारा पोषित मूल्यों से विस्थापित किया जा सके

 संघ धर्मनिरपेक्षता की जगह धर्म-सापेक्षता, लोकतंत्र की जगह वर्णाश्रम संस्कार तथा समाजवाद की जगह अंध-राष्ट्रवाद को स्थापित करने की प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष  मुहिम चलाता रहा है। संघ धर्मनिरपेक्षता की निंदा  उसे छद्म बताकर करता है। सूडो-सेकुलर होना संघ की बोली में भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी गाली है।

 वैसे तो वह  पंथनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग यह जताने के लिए भी  करता है कि उसे सेकुलरिज्म की आधुनिक अवधारणा से कोई बुनियादी समस्या नहीं है, और कि भारत में धर्म-राज्य की स्थापना करना उसका लक्ष्य नहीं है। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की जगह पंथनिरपेक्षता शब्द का चुनाव करने से यह स्पष्ट है कि संघ राजनीति में धर्म की केंद्रीय भूमिका को स्वीकार करता है। एक बार इसे स्वीकार कर लिया जाए तो बताने की जरूरत ना होगी कि भारतीय राजनीति में यह केंद्रीय भूमिका किस धर्म की होगी।

सावरकर की हिंदुत्व की थीसिस को ध्यान में रखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह वही धर्म है जो भारतीय महाकाव्यों के माध्यम से एक संस्कार के रूप में भारत के प्रभुत्वशाली  वर्ग के जनमानस में उपस्थित है। इस संस्कार का सबसे प्रचलित नाम वर्णाश्रम है। सच है कि सावरकर से लेकर  मोहन भागवत तक हिंदुओं में जाति पाति की बुराई के खिलाफ अभियान चलाने की बात करते रहे हैं, लेकिन यह अभियान प्रायोजित सह्भोजों तक सीमित है।

सावरकर ‘हिंदुत्व’ में लिख चुके हैं कि वर्णाश्रम ही वह संस्कार है. जिसमें अनेक ऐतिहासिक चुनौतियों के सामने  हिंदू समाज की रक्षा की है। इसी रचना में उन्होंने यह भी कहा है कि एक राजनीतिक हिंदू की सबसे बड़ी पहचान उसका वह हिंदू संस्कार है जो उसे भारतीय आर्ष ग्रंथों से मिलता है। यहां अलग से यह कहने की जरूरत नहीं है कि यह संस्कार वर्णाश्रम के सिवा कुछ और नहीं है।

 वर्णाश्रम संस्कार समानता और लोकतंत्र के किसी भी आधुनिक विचार के खिलाफ है.। यह संस्कार बड़े और छोटे के भेदभाव को सम्मान की नजर से देखने और स्त्री पुरुष के बीच के स्वाभाविक और सांस्कारिक विभेद को बनाए रखने में है. सावरकर और संघ हिंदू-एकजुटता हिन्दुओं के सैन्यीकरण की जरूरत के तहत जाति-पांति को मिटाने की बात करते हैं, लेकिन वे उस संस्कार को मिटाने की बात सोच भी नहीं सकते, जिसे वर्णाश्रम कहते हैं.

यह वही संस्कार है, जो भारतीय आर्ष ग्रंथों- वेद-पुराण- रामायण –महाभारत- गीता इत्यादि – का मुख्य प्रतिपाद्य है. इस वर्णाश्रम संस्कार की ध्वजा उठाये हुए ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे मुसलमान,  राम नाथ कोविंद जैसे दलित और द्रौपदी मुर्मू जैसे आदिवासी संघ द्वारा सम्मानित और प्रतिष्ठित किये जाते हैं. इसी वर्णाश्रम संस्कार के खिलाफ संघर्ष छेड़ने के कारण उमर ख़ालिद,  आनन्द तेलतुम्बडे , स्टेन स्वामी, पांडु नरोटे और जी एन साईबाबा जैसे लोग राज्य की अधिकतम बर्बरता झेलने के लिए विवश किए जाते हैं.         

 जहां तक समाजवाद की बात है, इसे सभी आधुनिक नागरिक समाजों में सामाजिक राजनीति के लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है। पूंजीवादी देशों में भी लोककल्याणकारी   राज्य की अवधारणा में समाजवाद की कल्पना मौजूद रही है. इसके ठीक विपरीत फासीवाद,  नाजीवाद और हिंदू राष्ट्रवाद जैसी विचारधाराएं  सबसे ज्यादा इस बात पर जोर देती  हैं कि ‘राष्ट्र’ के हित के समक्ष नागरिक को अपने सभी अधिकारों और हितों को कुर्बान करने के लिए तैयार रहना चाहिए। व्यावहारिक स्तर पर इसका अर्थ होता है की आम श्रमजीवी जनता को देश के छोटे-से मलाईखोर शासक वर्ग के हितों के लिए कुर्बानी देने को तैयार रहना चाहिए।

100 सालों में संघ की सफलता इस बात में है कि उसने भारतीय समाज में इन प्रतिगामी मूल्यों के लिए जनमत  के एक अच्छे खासे  हिस्से को तैयार कर लिया है। भारत में जाति व्यवस्था और वर्णाश्रम  के रूप में यह सभी मूल्य हजारों वर्षों से जनमानस के किसी न किसी कोने में मौजूद रहे हैं। भारत की आजादी की लड़ाई के अग्रधावकों ने  केवल राजनीतिक आजादी की लड़ाई नहीं छेड़ी थी। गांधी, नेहरू, भगत सिंह और आम्बेडकर ने  अपने- अपने तरीकों से भारतीय जन की सांस्कारिक  आजादी की लड़ाई भी छेड़ी थी. इसीलिए उन्होंने लगातार वर्णाश्रम के  परंपरागत मूल्यों की जगह आधुनिक नागरिक मूल्यों को स्थापित करने पर जोर दिया था।

ये आधुनिक मूल्य भारत की सनातन  परंपरा में एक गंभीर विक्षेप  की तरह हैं. संघ ने कुल इतना किया है कि इस विक्षेप को निरस्त कर पुराने सनातन संस्कारों को पुनर्स्थापित करने की कोशिश की है. फिर भी उसे इस काम में 100 साल लगे हैं तो मानना चाहिए कि राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रधावकों  ने भारतीय समाज को रूपांतरित करने में कितनी दूर तक सफलता हासिल कर ली थी!


 

 प्रतिरोध की संभावना

 अभी भी कुछ लोग भारत में फासीवादी निज़ाम से सिर्फ इसलिए इंकार करते हैं कि इस देश में गैस चैंबर  स्थापित नहीं किए गए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि भारतीय फ़ासीवाद ने फ़ासीवाद के  अतीत से बहुत कुछ सीखा है। उसने समझ लिया है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण  देश में  भौतिक गैस चैंबर से कहीं अधिक असरदार और स्थायी  व्यवस्था है देश के भीतर सामाजिक और  मनोवैज्ञानिक गैस चैम्बरों का विस्तार।

लगभग समूचे देश को एक ऐसे सांस्कृतिक गैस चेंबर में बदल दिया गया है, जिसमें एक व्यक्ति और एक विचारधारा की गुलामी से इनकार करने वाले स्वतंत्रचेता जन अपने जीवित होने का कोई मतलब ही ना निकाल सकें।

यूरप की लोकतांत्रिक परम्पराओं के कारण फ़ासीवादी राज्य की स्थापना के लिए कानूनी बदलावों की जरूरत थी. भारत में ‘भक्ति-परम्परा‘ की जड़ें बहुत गहरी हैं. शर्तहीन-समर्पण का संकार प्रबल रहा है. क्या यह भी एक कारण है किभारत में यूएपीए और अफ्स्पा जैसे कुछ विशेष कानूनों के अलावा व्यापक कानूनी बदलावों की जरूरत नहीं पड़ी है?

फ़ासीवाद की मुख्य जीवनी शक्ति नफ़रत की भावना है। हमारे देश में वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा के कारण अपने ही जैसे दूसरे मनुष्यों से तीव्र नफरत का संस्कार हजारों वर्षों से फलता फूलता रहा है। वोट तंत्र ने इस नफरत को उसकी चरम सीमा तक पहुंचा दिया है। क्या भारतीय फ़ासीवाद नफरत के इस चारों ओर फैले खौलते हुए समंदर से उपजे घन-घमंड के रूप में ख़ुद को जनमानस में स्थापित कर चुका है?

लेकिन यह समय उदास होने या निराशा में डूब जाने का नहीं है।

 जैसे फ़ासीवाद ने अपने इतिहास से सीखा है, वैसे ही प्रतिरोध की शक्तियों को भी अतीत के अनुभव का लाभ उठाना चाहिए। फासीवाद केवल अल्पसंख्यकों को नहीं, कमोबेश सभी नागरिकों को पीड़ित और तबाह करता है। भले ही भक्तजन  ख़ुद अपनी बर्बादी को न देख सकें।

आज एक ऐसे प्रबल सांस्कृतिक-सामाजिक आंदोलन की जरूरत है, जो जनसाधारण को उनकी अपनी ही यातना और हमारे  देश के ऊपर टूट रही महा-विपत्ति के बारे में जागरूक कर सके, जो एक तरफ तो लोगों को उनके वास्तविक दुखों के प्रति सचेत कर सके और दूसरी तरफ उन्हें राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के महान प्रयत्न के साथ एकजुट कर सके।

एक ऐसे महान राष्ट्र के सपने को जीवित करने की जरूरत है जो बुद्ध, कबीर, अंदाल, मीरा,  मोइनुद्दीन चिश्ती, अंबेडकर, पेरियार, गांधी, भगत सिंह, प्रेमचंद और फैज़ अहमद फैज़  के सत्य, न्याय,  क्रांति और प्रीति के आदर्शों से स्पन्दित हो। निरंकुश निजीकरण पर रोक तथा शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों के सम्पूर्ण राष्ट्रीयकरण के बिना यह सपना पूरा नहीं हो सकता।

Friday, August 4, 2023

विकास, विस्थापन और वीरेन डंगवाल की कविता "रामपुर बाग की प्रेमकहानी"

कविता मनुष्य द्वारा आविष्कृत  सब से संदिग्ध कला है . अपने बारे में सब से संशयग्रस्त भी। 

संदेह की शुरुआत अफलातून से ही हो गयी थी .उनके लेखे कविता झूठ को सच की तरह  पेश करने की कला थी. 
संशय  भवभूति जैसे महाकवि को भी था . क्या सचमुच कोई है जो उस ऊलजलूल चीज का कुछ मतलब निकाल सकता है , जिसे कविता कहते हैं .वे खुद को ढांढस बँधाते हुए-से लिखते हैं - दुनिया बहुत बड़ी है और समय असीम . कभी तो कोई समानधर्मा जन्म लेगा, जो मेरे लिखे का मतलब समझ पायेगा. अंग्रेज़ी आलोचना की पहली किताब सर फिलिप सिडनी की ' कविता के लिए माफीनामा ' ही थी . शेली तक को कविता के 'बचाव ' में निबंध लिखना पड़ा .
कविता क्या है , किस लिए है , ठीक ठीक कह पाना मुश्किल है . फिर भी वह है . कुछ और नहीं तो एक दिमागी खलल की तरह . 

लेकिन सिर्फ  कविता ही दिमागी खलल नहीं होती . एक अबूझ दिमागी खलल वह भी है , जिसे प्रेम कहते हैं . सारी की सारी प्रेम - कहानियाँ हैं . ठलुओं के लिए टाईमपास होने के सिवा भला इन चीजों का भला और कोई मसरफ है ? 

वीरेन डंगवाल की कविता '' रामपुर बाग की प्रेम कहानी '' ऐसा ही एक दिमागी खलल है . यह  हमारा नहीं , खुद इस कविता का बयान है . 

यह कोई रूपक नहीं 
 न निजंधर  न कूटकथा न मनोकाव्य 
 न व्यंग्य न परिहास 
यह ये सब कुछ है थोड़ा बहुत 
और सब से बढ़ कर थोड़ा दिमागी खलल  शायद 
जैसा कि हर प्रेम कहानी होती ही है 

थोड़ा दिमागी खलल  शायद . कविता इस खलल के बारे में भी कम संशय में नहीं है . अगर संशय नहीं है तो बस  ये कि यह कोई रूपक , निजंधर  , कूटकथा, व्यंग्य , परिहास नहीं है. अगर होती , तो उसके पास पाठक को देने के लिए एक निश्चित आशय य अनुभूति होती . भले ही छुपा होता , भले ही उसे खोजना और खोलना होता , लेकिन एक ऐसा आशय , जिस से  सारे नहीं तो बहुत सारे सहमत हो सकें . इस अर्थ में वह निश्चित हो . लेकिन कविता की घोषणा है कि वह उसके पास ऐसा कोई आशय नहीं है . इसलिए ऐसे किसी आशय को उसमें ढूँढना बेमानी है . कुछ है तो सही . है तो यह सब कुछ . लेकिन निश्चित कुछ नहीं .क्योंकि या इसीलिये , यह एक खलल है . 

यों पाठक को तनिक सावधान करते हुए कहानी आगे बढती है . वह कोइ बड़ी उम्मीद न बाँधे. अंत में हो सकता है , कुछ भी उस के हाथ न लगे . वह तैयार रहे .

कभी यहाँ एक नवाब का विशालकाय घना बाग था . 
आम -अमरूद -जामुन और कटहल का 
 यह पचासेक साल पहले की बात है 
गणतंत्र बन चुका था 
 लेकिन राजे नवाब जिमींदार वगैरह भी थे ही  

थे ही. गणतंत्र बन जाने  वे मिट नहीं गए . लेकिन अब  वे वगैरह थे . इसलिए विशाल घने बागों को कटना था. इस तरह पचासेक साल पहले बागों का बाज़ार या रिहाइशी  कालोनियों में बदलना शुरू हुआ . कविता को आज़ादी बाद के भारतीय इतिहास की बड़ी साफ़ पहचान है . वह लगभग सटीक तारीख बताती है . गणतंत्र की स्थापना की तारीख . यह एक काल- विभाजक विन्दु है. 
इस विन्दु के आगे- पीछे दो कालखंड हैं. एक है , आज़ादी और गणतंत्र के पहले का . दूसरा बाद का . 
लेकिन यह विभाजन हर एक के लिए एक ही जैसा नहीं है . 
 कुछ के लिए जो गणतंत्र  और आज़ादी के साथ विकास का काल है , वही कुछ और लोगों के लिए विध्वंस और विस्थापन का . यह एक बात इस कविता में लगभग एक तथ्य , सूचना या खबर की तरह आयी है . 

फिर पेड़  कटे 
कोठियां बने लगीं 
पहले थोड़ी भव्य 
 फिर क्रमशः आलीशानतर 
कालोनी बनी जिस का नाम स्वतः पड़ा 
 या रखा गया रामपुर हाता और कालान्तर में रामपुर गार्डन
अलबत्ता बाग रहा नहीं 
 मगर बंदरों को
संकरी सडकों और हर मेल की 
कारों -मोटरों -साइकिलों -स्कूटरों से गची पड़ी
कुछ सजावटी पेड़ों के अलावा वृक्षहीन 
इस कालोनी से 
अभी भी बहुत लगाव है 
यह शायद उनकी जातीय स्मृति हो 
विध्वंस और विस्थापन के विरुद्ध 
उनका सामूहिक क्षोभ ! 
उनके झुण्ड यहाँ बराबर छापे मारते रहते हैं .

 विकास के साथ विध्वंस और विस्थापन तो होना ही है . आलीशान कालोनियों के लिए घने बागों -जंगलों को  कटना ही पड़ेगा. वहाँ रहनेवालों को विस्थापित होना पड़ेगा. यह तयशुदा बात है , मामूली जानकारी है . यह  इतनी मामूली है कि अक्सर हम इसे याद रखना भी जरूरी नहीं समझते . हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में तेज विकास के लिए बांधों और भारी उद्योगों पर सब से अधिक जोर दिया गया. नेहरू जी ने बांधों को आज़ाद भारत के मंदिरों की तरह देखा . मंदिर के साथ धर्म की ताकत जुडी हुयी है . मंदिर में दी जाने वाली बलि पर कौन सवाल उठा सकता है ? इसलिए सरकार ने आज तक कोई आंकड़ा ही नहीं रखा कि 1950 से अब तक नियोजित विकास की हमारी योजनाओं में  कितने लोगों की बलि हुई , कितने बर्बाद हुए .लेकिन भरोसेमंद शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि यह संख्या दो से चार करोड हो सकती है .( देखिये , 01 अप्रैल 2005 की इकोनोमिक एन पोलिटिकल वीकली में विश्वरंजन मोहंती का शोधपत्र.) यह संख्या अर्जेंटाइना की कुल आबादी के बराबर है . आबादी के लिहाज से दुनिया में केवल तीस देश अर्जेंटाइना से बड़े हैं . बाकी , तकरीबन ढाई सौ देश , चार करोड से कम आबादी वाले हैं .ये सब मामूली जानकारियाँ हैं , जिन्हें याद रखना जरूरी नहीं है . 

विस्थापन का मतलब एक जगह से उठ कर दूसरी, और बेहतर जगह , पहुँच जाना नहीं होता . जनसमुदाय अपने परिवेश से गहराई से जुड़े होते हैं . सामूहिक विस्थापन का मतलब उनके लिए पूरी तरह उजड़ जाना और नष्ट हो जाना होता है. यह भयानक रूप से तकलीफदेह प्रक्रिया है .इस तकलीफ में निहित भीषण विडम्बना यह है कि विस्थापितों को विकास का कोई लाभ नहीं मिलता. यानी नियोजित विकास से होने वाला विस्थापन एक तरह से साधनहीन आबादियों को सुलभ प्राकृतिक संसाधनों को उनसे छीन कर साधनसंपन्न समुदायों के हाथ में सौंप देना है . (देखिये उपरोक्त शोधपत्र .)


लेकिन ये भी मामूली जानकारियाँ हैं . हम जानते हैं , लेकिन ध्यान नहीं देते . कविता भी इसे ऐसे ही आवेगहीन ढंग से दर्ज करती है . 


गैरमामूली बात यह है कि कविता मनुष्यों के नहीं , बंदरों के विस्थापन के बारे में है .तेज विकास ने केवल मनुष्यों को नहीं , पशुपक्षियों को भी भारी पैमाने पर विस्थापित किया है . इसके चलते जीव- जंतुओं की बहुत सारी प्रजातियां नष्ट हो गयी हैं और बहुत-सी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं. इस से भी बुरी बात यह हुए है कि प्राणीजगत का मनुष्य के साथ सनातन हिंसा का रिश्ता बन गया है . जिनकी जमीनों और घरों पर हमने कब्ज़ा कर लिया है , वे हमारे घरों में घुस कर हम पर छापेमारी करने के लिए मजबूर हो गए हैं. जैसे कालोनियों में बन्दरों के सतत सामूहिक हमले .

बंदर तो हमारे पुरखे ही बताए जाते हैं . डार्विन साहब ने कुछ ऐसा ही बताया था. हमने सुख- सुविधा के लिए अपने पुरखों को भी विस्थापित कर दिया. बंदरों को पुरखे न मानिए तो भी इतना मानना चाहिए कि मनुष्य के प्राकृतिक पर्यावास में प्राणियों की सभी प्रजातियां शामिल हैं , हम ने हर को को घर से निकाल बाहर किया . खुद पूरे घर पर काबिज हो गये. भूल गए कि इन प्राणियोंके साथ खून पसीने का रिश्ता है . आखिर सीताजी को मुक्त करने के राम के अभियान में बंदर -भालुओं ने जो सहायता की थी , उस के बिना हम कहाँ होते? हमारी संस्कृति और इतिहास कहाँ होता? इतना पुराना , आत्मीय ,गहरा रिश्ता क्या एक झटके में टूट जाता है ? 

माना कि वह सब कहानी है , मिथक है . लेकिन इन मिथकों के रचने वालों का प्राणीजगत से रिश्ता कुछ और ही था. मनुष्य समेत तमाम जीव -योनियाँ एक ही जीव- सृष्टि में शरीक थीं . सभी जीव एक ही दुनिया के साझे रहवासी थे . इस हद तक कि कोई भी जीव किसी दूसरे जीव के रूप में प्रकट हो सकता था . नाग मनुष्य का रूप धारण कर सकते थे.देवता और मनुष्य किसी भी पशु- पक्षी का रूप ले सकते थे .वे एक दूसरे की बोलीबानी समझते थे, 

थे .वे एक दूसरे की बोलीबानी समझते थे, एक दूसरे की मदद करते थे . एक दूसरे की जिंदगियों में इस हद तक शामिल थे कि उन्हें अलग करना मुश्किल था . इन मिथकों से एक ऐसी विश्वदृष्टि प्रकट होती है, जिसमें विश्व मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों के बीच आज की तरह विभाजित  नहीं है .   अपनी दुनिया से  से इन जीवों को बाहर निकाल  कर  मनुष्य ने अपने मिथकों को भी विस्थापित कर दिया है . यह एक विश्वदृष्टि और उस से जुडी हुयी जीवनदृष्टि का विस्थापन है. यह उस सम्मिलित दुनिया से मनुष्य का आत्मविस्थापन भी है . 

गैरमामूली बात यह है कि हिंदी की एक समकालीन कविता अचानक मिथकों की उस खोयी हुयी दुनिया में प्रवेश करती हुयी प्रतीत होती है . 

कोठियों की छतें उनके क्रीड़ांगन हैं 
टेलीफोन -केबल के तार 
आम की लचकदार टहनियों की तरह उन के झूले 
वे घरों से डबलरोटियां, फल और कपड़े उठा ले जाते हैं 
घुदकते हैं हाउसकोट काफ्तान पहनीं 
अधेड गिरस्थिनों और उनकी युवा बहुओं को 
जिन के पतिजन तो गए 
अपनी दुकानों -दफ्तरों -कारखानों  को 
और औलादें व्यस्त 
स्कूल-टीवी -मोबाइल में 
उनमें कोई दिलचस्पी नहीं बंदरों को 
उनकी माँओं में शायद है 

अपने छोटे छोटे मोटे हाथों में 
एक साबुत डबलरोटी थामे 
तिमंजिले के छज्जे से कुछ यों घूर रहा है 
वह बलिष्ठ बन्दर श्रीमती चड्ढा को 
कि उनकी कनपटी गर्म और कान लाल हो आये हैं 

रमण की उन कल्पनाओं के रहस्य 
केवल ऊटपटांग रास्तों पर चलने वाले कवियों को पता हैं 
या फिर उस मोटे बन्दर को 
अपने टोले पर जिस का वर्चस्व असंदिग्ध है 
लेकिन जिस का ह्रदय 
इन दिनों एक मानुसी  के लिए धड़कने लगा है 

और श्रीमती चड्ढा ?
इधर मंगलवार को प्रसाद चढाते समय 
पता नहीं क्यों उनकी आँखें पूरा पहाड हथेली पर उठाये हनुमान जी के 
चरणों से ऊपर ही नहीं उठ पातीं 

मिथकीयता का कविता में इस तरह लौटना उस  विस्थापित जीवनदृष्टि का कविता में पुनर्प्रवेश  है .
बलिष्ठ बन्दर और श्रीमती चड्ढा के अनुराग- प्रसंग में हनुमानजी की मौजूदगी सीतामुक्ति अभियान में हनुमानजी की भूमिका की याद न दिलाए , यह नामुमकिन है . श्रीमती चड्ढा सीता की याद भले न दिलाती हों , लेकिन  उनकी स्थिति सीताजी से बहुत अलग नहीं है . किसी रावण ने उन का अपहरण नहीं किया , लेकिन गिरस्थी की अशोकवाटिका में वे सीता की तरह ही कैद हैं . बल्कि उनकी दुर्दशा सीताजी से बढ़ चढ कर है . बदनीयती से ही सही , सीताजी की खोजखबर लेने एक रावन वहाँ आता तो है . यहाँ तो भरेपूरे परिवार में  कोई हालचाल पूछने वाला नहीं . न किसी को फुरसत है , न जरूरत . उसका जीवनसाथी , साथी क्या मनुष्य तक नहीं रह गया है . वह  औद्योगिक -पूंजीवादी विकास की इस विराट मशीन का बिना रुके बिना थके चलनेवाला पुर्जा भर है . वह एक मशीनी ज़िंदगी जी रहा है . उसकी गिरस्थी और गिरस्थिन भी इसी मशीनी ज़िंदगी का एक हिस्सा है . बकौल कैफ़ी-

   चंद रेखाओं में , सीमाओं में 
   ज़िंदगी कैद है सीता की तरह 
     राम कब लौटेंगे मालूम नहीं 
       काश रावन ही कोई आ जाता !

कविता में गिरस्थिन शब्द इस विडम्बना को गहरा कर देता है . गृहस्थी कृषि -सभ्यता से जुड़ा हुआ शब्द है . गृहस्थ तब बने , जब खानाबदोशी छोड़ कर मनुष्य ने अपनी खेतियाँ और गृहस्थियां जमायीं . लेकिन औद्योगिक -पूंजीवादी सभ्यता ने इन गृहस्थियों को बेमानी बना दिया . मजदूरी के बाज़ार में भटकता , पूंजी की मशीन में चक्करघिन्नी की तरह घूमता   इंसान या तो फिर  से खानाबदोश हो गया , या घर में रहते हुए बेघर . इस बेघर के घर में कैद स्त्री के पास न राम हैं , न रावण .  रामपुर बाग से केवल बंदर ही विस्थापित नहीं हुए . आदमी भी आत्मविस्थापित हैं . ऐसे में औरत थोपे हुए अकेलेपन के हवाले कर दी गई है.  बाहरी विस्थापन के साथ साथ यह  आंतरिक विस्थापन है . यह एक अदृश्य  उत्पीडन है . 

सीताजी का हनुमान से रिश्ता अलग तरह का है . राम और रावण का रिश्ता अधिकार या अनाधिकार से सम्बंधित है . वह बुनियादी रूप से एक पुरुष -सभ्यता में पुरुष और स्त्री का रिश्ता है . पुरुष स्त्री  पर अधिकार चाहता है . विवाह उसे यह अधिकार प्रदान करता है . इस लिए सीता पर राम की अधिकार- भावना वैध हो जाती है , जबकि रावण की अवैध . लेकिन चाहते दोनों हैं एक स्त्री को अधिकृत करना .हनुमान सेवक हैं , दास हैं, पराधीन हैं. पराधीनता खुद अपनी आत्मवत्ता से विस्थापन है . भक्ति के नाम पर इसे हनुमान के अपने चुनाव के रूप में प्रचारित किया गया है . लेकिन है वह आत्म- विस्थापन ही.   हनुमान और सीता के बीच वह अधिकार भावना नहीं है . इसलिए एक दूसरे की पीड़ा के लिए दोनों के मन में जैसी सच्ची सहानुभूति हो सकती है , वह राम -सीता के बीच भी  दुर्लभ है . मुझे नहीं मालूम कि रामकथा के किसी संस्करण में हनुमान और सीता की पारस्परिक सहानुभूति की भावना के भीतर  अनुराग की कल्पना की गयी है या नहीं .लेकिन रामकथा की सुलभ संरचना के भीतर वह असंभव कल्पना नहीं है . ऐसी कल्पना धार्मिक आस्था को गहरी चोट पहुंचा सकती है . मुमकिन है कि इसे निरस्त करने के लिए ही हनुमान को अखंड ब्रह्मचर्य का व्रत दे दिया गया हो. हालांकि कुछ ऐसी भी कथाएं हैं , जिन में उन्हें विवाहित दिखाया गया है . जो भी हो , यहाँ इस चर्चा का मकसद किसी भी रूप में ऐसी किसी कल्पना को हवा देना नहीं है . रेखांकित सिर्फ यह करना है कि हनुमान और सीता का रिश्ता दो पीडाओं की परस्पर सहानुभूति का रिश्ता है . कविता में बलिष्ठ बन्दर और श्रीमती चड्ढा के बीच के अनुराग का आधार भी यही है . दोनों विस्थापित हैं . एक बाहर से , एक भीतर से. दोनों अकेले हैं . क्या असंभव है कि वे जाने अनजाने एक दूसरे का भावनात्मक सहारा बनें ! नारी और नर के भावनात्मक जुडाव से यौन कामना के उदय की संभावना बहुत दूर नहीं रह जाती . ऐसा होना आकस्मिक नहीं है . संयोग मात्र नहीं है . बल्कि स्वाभाविक है .

बलिष्ठ बन्दर और श्रीमती चड्ढा के बीच यौन कामना की स्वाभाविकता ही असल में विस्थापन की भीषणतम परिणतियों को रेखांकित करती है . विस्थापन , चाहे वह प्राकृतिक परिवेश से हो , चाहे मानवीय परिवेश से , आत्म -विस्थापन को जन्म देता है . यानी अपनी अपनी स्वाधीनता  , इयत्ता और जीवन की सार्थकता के अहसास से विस्थापन .कविता में  इस आत्म -विस्थापन के शिकार बन्दर भी है  , श्रीमती और उनके पति भी.  लेकिन यह केवल भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक अहसास नहीं है . यह बंदर और मनुष्य का अपनी  यौनिकता और जैविकता से विस्थापन भी है . यौन कामना किसी भी जीव के लिए उस की जैविकता या उसके जीवित होने मात्र का सब से अधिक जीवंत और अनिवार्य लक्षण है . लेकिन विस्थापन की परिस्थिति में यह सहज स्वाभाविक यौनकामना भी बची नहीं रह सकती . जहां जीवन की सहजता न हो , वहाँ यौन जीवन की सहजता कैसे हो सकती है. विस्थापन  पर आधारित विकास ने मनुष्य की प्राकृतिक यौन कामना को भी विस्थापित कर दिया है . उसकी स्वाभाविक जीवन -कामना को ही विस्थापित कर दिया है . वह मनुष्य के रूप में अपने प्रजाति -गुणों से विस्थापित हुआ अपनी मानवीयता और स्वाधीनता को खो कर .अपनी यौन कामना को खो कर वह एक जीवित प्राणी 
मात्र के रूप में अपनी जैविकता से भी विस्थापित हुआ . क्या मनुष्य होने की और जीवित होने इस से भी बड़ी कोई त्रासदी  हो सकती है ? यह विराट त्रासदी हिंदी कविता में यहीं पहली बार दर्ज होती है . 

रात का खटका 
'खटाक ' से गिरता है 
जैसे पिंजरे का द्वार !
अँधेरे में छत से आती है 
एक प्रार्थना भरी करुण कूंक

नगरनिगम ने बुलवाया है कहीं बाहर से 
बन्दर पकड़ने वाला पेशेवर दस्ता 
जिसकी फीस है एक सौ सत्तर रुपये फी बन्दर 
बेचैनी से करवट बदलतीं श्रीमती चड्ढा 
चोर निगाहों से देखती हैं 
नशे और नींद में धुत्त अपने पति को 
जिसकी लार एक हज़ार रुपये कीमत के 
नफीस तकिये को सतत भिगो रही है 

रात का खटका उसी पिंजरे में गिरता है  , जिस में ज़िंदगी कैद है सीता की तरह .कविता में इस 'खटाक' की चोट बहुत दूर तक जाती है . पिंजरा तो पिंजरा है . रात केवल उस का दरवाजा बंद करती है . खटाक की आवाज़ उस पिंजरे के वजूद की याद भर दिलाती है . पिंजरे में बैठे प्राणी के लिए तो रात और दिन बराबर है. दरवाजा खुला भी हो तो उसे उड़ जाने की छूट नहीं है . उड़ना पहले ही छूट  चुका है , छीना जा चुका है . उड़ने की न संभावना रही न आदत . पिंजरे के  जीवन की आदत पड़ जाए तो पिंजरे में होने की बात भी भूल जाती है . फिर भी रात आती है तो खटका गिरता है . पिंजरे के वजूद की दुखती हुयी याद हरी हो जाती है . रात का आना एक करुण घटना है , क्योंकि वह दिन के बीत जाने की याद दिलाती है .
रात वैसे तो कामना और अभिसार का समय है . लेकिन रात से यह जीवन -सुंदरता विस्थापित हो चुकी है . बची है तो नशे की नींद और रुपयों की तानाशाही . 

और ऊपर एक वानर यूथ पति
नवाब रामपुर के बाग का मूल अधिवासी 
पूर्ण चन्द्रमा जैसे टीवी डिश पर 
अपना शीश टिकाये 
अन्धकार में आंसू भरे नेत्रों से 
टाक रहा है तारों को 
ढूँढता उन्ही में 
आम का वह भव्य दरख़्त 
अपने कुनबे का छीन लिया गया आशियाना 
जिसकी शाखों पर केलि करते थे 
उसके पुरखे -पुरखिनें 

अब तो हज़ारों रातें बीत चुकीं 
ठन्डे सीमंट से पेट सटा कर सोते हुए 
बीत चुकीं लू -लपट से तपतीं 
हज़ारों प्यास-खुश दोपहरें 
गर्म पानी से भरी पानी की टंकियों से जूझते 
कुत्तों -पत्थरों और हुलकारती 
हिंसक आवाजों से 
कूदते भागते गए जाने कितने 
भूखे विस्थापित दिन 
लेकिन तांड पर मार कर बतौर चेतावनी टांगी गयीं 
सह्जातियों की लाशें 
भयाक्रांत करने के बावजूद 
मंद नहीं कर पातीं 
उस पुराने सपने का सम्मोहन 

कविता आखिर कविता है . उसमें जरूर एक जगह आती है , जहां वह व्याख्या से परे चली जाती है . इन पंक्तियों की व्याख्या करने की कोई भी कोशिश इनमें निहित संवेदना और सचाई को सीमित करने से नहीं बच पाएगी . वे बिना किसी व्याख्या के ही सब से अच्छी तरह संप्रेषित होती हैं . इतना जरूर कहा जा सकता है कि यहाँ  तक आते- आते कविता अपनी मिथकीयता में अंतर्निहित सामाजिक -राजनीतिक यथार्थ अपने पूरे आवेग के साथ बाहर आ जाता है . यहाँ यूथपति वानर और हमारे समय के किसी भी विस्थापित मनुष्य , किसान हो या आदिवासी , के बीच फर्क करना नामुमकिन हो जाता है . वही जानलेवा स्मृतियाँ , वही ठंढी क्रूरता , हिंसा और आतंक की वही रुतें और रूटीन. लेकिन यही कविता का या इतिहास का अंत नहीं है .

यूथपति एक दृढ वानर संकल्प लेता है 
फिर से यहीं बनाएंगे 
अपना वह बाग़
फिर से प्यार करेंगे 
पेड़ों की घनी -भारी दालों पर 
सब विजातियों को भगा देंगे 
बस एक उसी मानुषी कोछोड़ कर 
जिसकी वसंत में आम के नए पत्तों जैसे हरे परिधान में देखी करुणामयी छवि 
ह्रदय से उतरती नहीं 
जो गोया उस पुराने भव्य आम्रवृक्ष 
का ही कमनीय प्रतिरूप है 

कामना शेष है तो सपना बाकी है . सपना जो एक छिने  हुए घर ,  विस्थापित आत्म ,  विनष्ट पर्यावास , कुचली हुयी जैविकता की स्मृति को जीवित रखता है , और नूतन निर्माण के संघर्ष के संकल्प का सृजन करता है .लेकिन कविता बिना इस उपसंहार के खत्म नहीं होती -

न कोई रूपक , न निजंधर 
 न व्यंग्य न समाजेतिहास 
थोड़ा दिमागी खलल , बस , शायद 

जिस समाज और समय में जीवन विस्थापित है , कविता भी विस्थापित है .जैसे दिमाग से खलल विस्थापित है . कविता उस दिमागी खलल को फिर से रायज़ करती है . यह सर्वग्रासी विस्थापन के विरुद्ध कविता का एकमात्र संभव , लेकिन सब से शक्तिशाली,  हस्तक्षेप है . कविता का यह पुनर्वास जीवन का पुनर्वास भी है . 'रामपुर बाग़ की प्रेमकहानी ' हिंदी कविता की गैरमामूली उपलब्धि है .

Friday, October 14, 2022

 एकात्म मानववाद का ‘डिस्टोपिया’

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( अक्टूबर २०१७ का यह लेख राजकिशोर सम्पादित 'रविवार डाइजेस्ट' के मेरे उस समय के नियमित स्तम्भ 'जंतर मंतर' के लिए लिखा गया था. लेकिन पत्रिका के प्रबंधन ने इसे छापने से इनकार कर दिया. इस सेंसरशिप के विरोध में राजकिशोर जी ने पत्रिका से इस्तीफा दे दिया था. )

ऐसा लगता है कि मौज़ूदा निज़ाम ने 'एकात्म मानववाद' (एमा) विराट प्रचार करने का फैसला किया है. इस ‘वाद’ को प्रस्तावित करने का श्रेय भारतीय जनसंघ के शीर्ष-नेता रहे श्री दीनदयाल उपाध्याय को दिया जाता है. भारतीय जनसंघ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा समर्थित भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती राजनीतिक पार्टी थी.

इस साल दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती बहुत धूमधाम से मनाई गयी है. स्कूलों-कालेजों में बहुत सारे कार्यक्रम आयोजित किए गए. उनसे सम्बन्धित पुस्तिकाएं करोड़ों की संख्या में वितरित की गईं. दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने पन्द्रह खंडों में उनका सम्पूर्ण वांग्मय प्रकाशित किया है.

उनके नाम से बहुत सारी जगहों का नामकरण किया गया. मुगलसराय जैसे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्टेशन का नाम भी दीनदयाल उपाध्याय नगर कर दिया गया. अनेक महत्त्वपूर्ण सरकारी योजनाओं को दीनदयाल का नाम दिया गया है. जैसे दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना, दीनदयाल ग्राम कौशल्या योजना, दीनदयाल अन्त्योदय योजना, दीनदयाल स्वास्थ्य सेवा योजना, दीनदयाल डिसएबल्ड रिहैबिलिटेशन स्कीम इत्यादि.
एमा सुनने में बहुत उदात्त लगता है. यह मनुवाद की तरह गंदला और हिंदूवाद की तरह उन्मादी नहीं जान पड़ता. यह शांतिपूर्ण, स्निग्ध, सरस.. लगभग आध्यात्मिक-सी अनुगूंज पैदा करता है . यह मानववाद से आगे की चीज मालूम होता है. एकात्म मानववाद को सबसे पहले पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने चार व्याख्यानों के रुप में 22 अप्रेल से 25 अप्रैल, 1965 के बीच बंबई में प्रस्तुत किया था. ये चारो व्याख्यान भारतीय जनता पार्टी की वेबसाइट बीजेपी डॉट ओआरजी पर उपलब्ध हैं.
यूं तो सावरकर की रचना ‘हिन्दुत्त्व’ हिंदूवादी राजनीति का बीजग्रंथ है. इसके अलावा गोलवलकर की दो पुस्तकें ‘विचार-गुच्छ’ और ‘हम और हमारे राष्ट्रवाद की परिभाषा’ संघ के मूलभूत दर्शन की व्याख्याएँ मानी जाती रही हैं. लेकिन इन सभी रचनाओं में ‘हिंदुत्व’ की शब्दावली का मुखर उपयोग किया गया है. हिन्दूतर समुदायों के प्रति साम्प्रादायिक घृणा भी इनमें उतनी ही मुखर है. सत्ता की लम्बी पारी खेलने के लिए इनकी शब्दावली उपयुक्त नहीं है. इससे हिन्दूतर सम्प्रदायों का जुड़ना कठिन हो जाता है .
एमा के साथ ऐसी कोई बात नहीं है. इसमें हिन्दूवाद का कहीं उल्लेख नहीं है. ‘राष्ट्रवाद’ तक की आलोचना की गयी है. धर्म-सम्प्रदाय विशेष पर आधारित धार्मिक-राज्य यानी थियोक्रेटिक स्टेट की अवधारणा को साफ़ तौर पर नामंजूर कर दिया गया है. इसे मानववाद जैसे आधुनिक उदार विचार से जोड़ा गया है.

इतना ही नहीं, इसमें उस पुरातनपंथी सोच को भी ठुकरा दिया गया है जो यह मानती है कि भारत को अपने पुराने सुनहले अतीत की तरफ लौट जाना चाहिए. इसमें परिवर्तन को स्वीकार करने वाली अग्रगामी सोच पर जोर दिया गया है. पाश्चात्य विचारों और रहन-सहन की नकल करने की प्रवृत्ति की आलोचना इस आधार पर की गयी है कि एक ही संस्कृति दुनिया के हर देश केलिए उपयुक्त नहीं हो सकती.

लेकिन यह भी कहा गया है कि ज्ञान-विज्ञान का सम्बन्ध किसी देश विशेष से नहीं होता. यह समूची मानवता की सांझी सम्पत्ति होती है. ज्ञान-विज्ञान की किसी वैश्विक उपलब्धि से सिर्फ़ इसलिए परहेज करना कि वह विदेशी है, निरी मूर्खता है. ज्ञान कहीं से भी ग्रहण किया जा सकता है, लेकिन उसका उपयोग अपनी विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए. अपने देश की ज्ञान-परंपराओं का उपयोग भी श्रद्धाभाव से नहीं, समय की मांग पर नज़र रखते हुए ही करना चाहिए.

इसमें पश्चिम में उभरे आधुनिक विचार-आंदोलनों की आलोचना मुख्य रूप से इसलिए की गयी है कि वे उनका एक दूसरे के साथ तालमेल नहीं है. राष्ट्रवाद, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के विचार आधुनिक पश्चिम की मुख्य देन है. लेकिन राष्ट्रवाद और समाजवाद का आपस मेल नहीं है. अगर दोनों को जबरन मिला भी दिया जाए तो लोकतंत्र का बचना मुश्किल होगा. धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद का तालमेल भी आसान नहीं है. ऐसी हालत में पश्चिम अपनी ही अवधारणाओं पर अमल नहीं कर पा रहा. एक को सम्हालता है तो दूसरी हाथ से निकल जाती है .

पश्चिम द्ववारा विकसित आर्थिक प्रणालियाँ भी समस्याग्रस्त हैं. पूंजीवाद में बाज़ार की एकाधिकारी ताकतें इस क़दर हावी हैं कि इंसान बाज़ार का खिलौना बन कर रह गया है. समाजवादी प्रणाली में पूंजीवाद की बुराइयां नहीं हैं, लेकिन सरकार की मुक़म्मल तानाशाही है. यह व्यवस्था भी इंसान को मशीन के एक पुर्जे में बदल कर रख देती है.
एमा की ये सारी बातें कितनी तर्क-संगत और प्रगतिशील लगती हैं! भला इन बातों से किसी का क्या विरोध हो सकता है? शायद यही कारण है कि इधर वामपक्ष के कुछ लेखक भी एमा की अच्छाइयों की चर्चा करने लगे हैं. वे यहाँ तक कह रहे हैं कि दीदउ का एकात्म मानववाद बीजेपी के हिंदू राष्ट्रवाद का प्रतिपक्ष है. अगर लोगों को एमा की अच्छाइयों के बारे में बताया जाए तो वे एमा के नाम पर हिंदू राष्ट्र बेचना बीजीपी केलिए मुश्किल हो जाएगा. एमा चूंकि सिद्धान्तहीन राजनीति और अवसरवादी गठबन्धनों के खिलाफ भी है, इसलिए यह राजनीति की गन्दगी साफ़ करने के काम भी आ सकता है.

ऐसे में एमा से जुडी प्रस्थापनाओं पर तनिक गहराई से विचार करने की जरूरत है.
मानववाद चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में यूरप में रेनेसां के साथ आया विचार था. बेसिक आइडिया यह था कि मानव का कल्याण मानव ही कर सकता है. किसी आत्मा-परमात्मा के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा.अगर मनुष्य को अपना भला करना है तो उसे केवल 'अपने' बुद्धि-विवेक और अपनी मेहनत के भरोसे आगे बढ़ना होगा. यह मध्यकालीन भाग्यवादी बोध के खिलाफ़ आधुनिक विवेकवादी चेतना का विस्फोट था.

"राष्ट्र एक मानवदेह है"
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अब मज़ा देखिए. एकात्म मानववाद क्या कहता है?
एक तो यह कि मनुष्य के व्यक्तित्व के चार आयाम होते हैं. शरीर, मन, बुद्धि औ आत्मा. चारो मिलकर व्यक्ति का निर्माण करते हैं. एकात्म मानव वही है, जिसके व्यक्तित्व के इन चारो पहलू अंतर्ग्रथित हों . मनुष्य ऐसा ही होता है. यह मनुष्य को देखने की भारतीय दृष्टि है. गडबड पश्चिम ने की. उसने मनुष्य को राजनीतिक प्राणी के रूप में देखा तो लोकतंत्र की खोज हुई. आर्थिक प्राणी के रूप में देखा तो समाजवाद का विचार आया. मनुष्य को इकहरे ढंग से देखने की कारण ये अवधारणाएं आपस में टकरा गईं. एकात्म मनुष्य की जटिल मांगों समझ पाना इनके बूते की बात न थी.

दूसरे यह कि सगरी मनुष्यता की एक ही आत्मा है. विभिन्नताएं और विविधताएं जो दिखाई देते हैं, वे केवल आभासी हैं. अंदर ही अंदर मनुष्य की आत्मा उसी तरह एक है, जैसे यह सम्पूर्ण वैविध्यपूर्ण ब्रह्मांड सिर्फ़ ऊर्जा से निर्मित है. संसार में जहां कोई विरोध या संघर्ष दिखाई देता है, वह एक विकृति है. विकृति में अतिरिक्त ऊर्जा न लगाई जाए तो वह अपने आप विलीन हो जाएगी. यह भी भारतीय दृष्टिकोण है, जिससे द्वंद्व और संघर्ष को केन्द्रीय महत्व देने वाली पश्चिमी सभ्यता की बुराइयों का निराकरण किया जा सकता है.

यानी मानववाद जिस आत्मा-परमात्मा की बात को नकार कर सामने आया ,वह दुबारा प्रकट हो गई. और क्या धाँसू अंदाज़ में ! अब मज़ा देखिए. आत्मा एक ही है, खाली शरीर अलग-अलग हैं. क्या सूफ़ियाना ख़याल है .मने बनारस के पंडीजी और उनकी राष्ट्रवादी लाठियों से घायल बालिकाओं की आत्मा एक ही है. न किसी ने पीटा, न कोई पिटी. यह सब आपसी प्यार-मुहब्बत है. अदानी सर और नोएडा में गटर में दफन हुए मजदूरों की आत्मा एक ही .बाबू बजरंगी और उसके हाथों मारे गए लोगों की आत्मा एक ही ही. ट्रम्प और किम की आत्मा एक ही है .न कोई मरता है , न कोई मारता है. आत्मा केवल कपड़े बदलती है .ये है गीता का ज्ञान. करम किए जा , फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान!

गीता का ज्ञान यह है कि मारने वाला भी आत्मा है और मरने वाला भी वही आत्मा है. न कोई मरा, न किसी ने मारा . क्या गजब की थियरी है! मारनेवालों के पक्ष में और मरनेवालों के खिलाफ इससे शानदार कोई थियरी हो सकती है क्या ?
ब्राह्मण –दलित, स्त्री-पुरुष सब एक ही आत्मा हैं . एक शरीर मन्त्र पढ़ता है . एक शरीर मैला साफ़ करता है . एक शरीर पूजित होता है. एक देह समर्पित होती है . लेकिन सब एक ही हैं , इसलिए किसी को किसी से शिकायत करने का हक नहीं है. एक शरीर राज करता है. एक शरीर कुचला जाता है. लेकिन सब एकात्म हैं.

इसलिए सबको प्रेमपूर्वक रहना चाहिए. इस प्रेमभाव से सारी समस्याओं का हल निकला आएगा. निकल क्या आएगा, उत्पीड्कों के लिए पीड़ितों के प्रेमभाव से अधिक आकर्षक समाधान हो ही क्या सकता है! यही श्रीमदभागवतपुराण का संदेश है . यही गीता का ज्ञान है. यही मनुस्मृति की मनीषा है. यही सनातन ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण है.
एकात्म मानववाद मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता के विचार पर आधारित मानववाद को सर के बल खड़ा कर देता है
एकात्म मानववाद मनुवादी वर्णव्यवस्था का सुंदर नाम है। यह एकात्म मानव वह ब्रह्मा है, जिसका मस्तक ब्राह्मण है और पैर शूद्र। दलित कहां हैं पता नहीं। दीनदयाल मानते थे कि हरेक का काम समान रूप से सम्माननीय है, लेकिन हरेक को अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए। यानी ब्राह्मण को पोथी ही बांचनी चाहिए और दलित को मैला ही साफ करना चाहिए। दोनों को एकात्म भाव से एक दूसरे को सम्मान देना चाहिए। ऐसा होने पर दोनों के बीच किसी संघर्ष या विरोध का प्रश्न ही नहीं उठेगा. समाज उतना ही एकात्म हो उठेगा, जितना कि एक व्यक्ति-शरीर होता है. सभी अंग अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं, लेकिन पूर्ण समन्वय के साथ.
"राष्ट्रीय चित्त और धर्म-राज्य"
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एमा समाज को ही नहीं राष्ट्र को भी व्यक्ति-शरीर के रूप में देखता है. जैसे ‘आत्मा’ व्यक्ति की अंतर्ग्रथित चेतना का प्रतीक है, वैसे ही राष्ट्र की भी एक सामूहिक अन्तश्चेतना होती है, जिसे ‘चित्त’ कहा जा सकता है. हर राष्ट्र का अपना एक अलग ‘चित्त’ होता है. किसी भी राष्ट्र का विकास केवल उन्ही बातों से हो सकता है, जो उसके ‘चित्त’ के अनुकूल हों. वे सारी चीजें जो चित्त के प्रतिकूल हों, वे राष्ट्र के विरोध में होंगी. इन सारी चीजों को कैंसर की तरह शरीर से बाहर करना आवश्यक है.

लेकिन यह कौन तय करेगा कि कौन सी चीजें राष्ट्रीय चित्त के अनुकूल हैं और कौन सी नहीं? क्या बीफ़ भारतीय चित्त के अनुकूल है ? क्या ताजमहल भारतीय चित्त के अनुकूल है? क्या लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता भारतीय चित्त के अनुकूल है? क्या जींस भारतीय चित्त के अनुकूल है? अगर नहीं हैं तो इन सब चीजों से छुटकारा पाना राष्ट्र की सुरक्षा के लिए जरूरी है! इस एकात्म मानववाद और वर्तमान हिंदू राष्ट्रवाद में शब्दावली के अलावा अंतर क्या है?
एमा राष्ट्रीय चित्त के सिद्धांत को बढाते हुए ‘धर्म-राज्य’ की अवधारणा तक पहुंचता है. राष्ट्रीय चित्त की संतुष्टि के लिए बनाए गए नैतिक विधान को ‘धर्म’ कहते हैं. यह धर्म ही राष्ट्रीय की एकता और सम्प्रभुता को धारण करता है .यह कोई विशेष धर्म-सम्प्रदाय नहीं , एक उच्चतर नैतिक विधान है. लेकिन यह किसी भी राज्य और राष्ट्रको संचालित करने वाली सर्वोच्च शक्ति है. यह सम्विधान से ऊपर है. संविधान को इस कथित राष्ट्रीय धर्म का अनुसरण करना होगा, इस धर्म की व्याख्या सम्विधान के अनुसार नहीं होगी. यह वो धर्म है जो जनता की आकांक्षा से भी ऊपर है. जो बहुमत के निर्णय से भी स्वतंत्र है. जो कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को भी अनुशासित करता है.
यह कथित धर्म किन चीजों की इजाजत देता है और किनकी नहीं, यह कौन तय करेगा? सबसे अहम बात यह है कि इसे कोई तय नहीं कर सकता. कोई सम्विधान–सभा इसका निर्धारण नहीं कर सकती, क्योंकि यह पहले–से, अनादि-काल से, अस्तित्व में है. सिर्फ़ इसकी व्याख्या की जा सकती है, जिसका अधिकार केवल उन कुछ लोगों के पास होगा, जो इसके स्वघोषित पुरोहित होंगे. जैसे किसी पुरोहित, पंडे या मौलवी के फ़तवे को चुनौती नहीं दी जा सकती, वैसे ही इस धर्म-राज्य के पुरोहितों को भी सवालों के कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता.

तो यह है एकात्म मानववाद का सार-संक्षेप जो वस्तुतः फाशीवादी ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद के सिवा और कुछ नहीं है.
यह सही है कि एमा के आर्थिक चिन्तन में एकाधिकारी पूंजीवाद का विरोध किया गया है . राज्य नियंत्रित समाजवादी अर्थव्यवस्था का भी विरोध किया गया है. ‘स्वदेशी’ और ‘विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया है. लेकिन यह नहीं बताया गया है कि ऐसी विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था बनेगी कैसे. यह मान लिया गया है कि धर्म-राज्य ही राजनीति और समाजनीति के साथ अर्थव्यवस्था को भी संचालित करेगा. आर्थिक फ़ैसले भी अंततः धर्म-राज्य के इन्ही ‘पुरोहितों’ के हाथों में होंगे. वे किसी के प्रति जवाबदेह या जिम्मेदार न होंगे. उदाहरण के तौर पर वे जब चाहेंगे नोटबंदी लागू कर देंगे, जब चाहेंगे डिजिटल अर्थव्यवस्था बना देंगे. जब चाहेंगे, जितना चाहेंगे, भूमंडलीकरण या स्वदेशीकरण कर देंगे. वे न बाज़ार के नियमों से संचालित होंगे, न राज्य की नीतियों से.
ऐसा सर्वशक्तिमान धर्म-राज्य सिर्फ़ डिस्टोपिया हो सकता है.

Saturday, November 13, 2021

'एक साहित्यिक की डायरी': नए सौन्दर्यबोध की जन्म-कुण्डली

“..आकर्षण की किरण चतुर्दिक प्रसारित होते हुए भी उस व्यक्ति के भीतर ऐसा कुछ है , जिसे आप ‘खोट’ कह सकते हैं. वह सारल्य और भोलापन तो उसमें है ही नहीं , उसके विपरीत हर इच्छित कार्य या चाल को न्यायोचित ठहराने के लिए भाव -विचारों का मायावी इंद्रजाल तानने का उसका कुछ इतना बड़ा माद्दा है कि लगता है उसके आस पास जो तमाम मित्र-मंडली जमा रहती है वह उसकी सक्रिय दलाली के सिवा कुछ नहीं करती . और वह दलाली काहे की ? एक अत्यंत प्रतिक्रियावादी राजनीति की , एक अत्यंत कठोर स्वार्थ की , एक शिलावत भाव की -- जिसका संबंध सिर्फ ‘मैं’ से है !” 1

 ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के इस पन्ने पर मुक्तिबोध एक करिश्माई किन्तु परम स्वार्थी प्रतिक्रियावादी व्यक्तित्व की चर्चा करते हैं . लेकिन विश्लेषण उस व्यक्तित्व का नहीं , उस सामाजिक मनोविज्ञान का करते हैं , जो ऐसे चमत्कारी व्यक्तियों और उनकी व्यक्ति-पूजा का पोषण करता है . भारत में इन दिनों व्यक्ति-पूजा की यह प्रतिक्रियावादी राजनीति अपने चरम पर पहुंची हुई प्रतीत होती है . यह किसी पार्टी-विशेष तक सीमित नहीं है .

 मुक्तिबोध कहते हैं – “श्रद्धेय की आलोचना करना भारतीय संस्कार के इतने विपरीत है कि कुछ मत पूछिए . हम अपने मन की सज्जनता को भीतर के आलोचक से अधिक प्रतिष्ठित बनाए रखते हैं. यह कितनी बड़ी आत्मवंचना है . इस आत्मवंचना का कोई पार नहीं .2 “ (‘ हाशिए पर कुछ नोट्स’, डायरी ) प्रतिक्रियावादी राजनीति इसी आत्मवंचना से अपनी ख़ुराक पाती है.

 नए की जन्मकुंडली 

 सुंदरता क्या होती है ? सुंदर किसको कहते हैं ? ये सवाल जितने सीधे और सहज है , उतने ही उलझे हुए और भ्रामक भी . सदियों से बहस होती रही है कि सुंदरता की स्वतंत्र सत्ता है या यह केवल देखने वाले की नजर में होती है . 
उन्नीसवीं सदी में मार्क्सवादी विचार ने सुझाया कि सुंदरता का एक वर्गीय परिप्रेक्ष्य होता है . वर्गीय हितों का बोध सुंदरता की धारणाओं और उसके अहसास को प्रभावित करता हैं. प्रेमचंद ने जब हुस्न के मेराज़ को उसके ऐशपरवराना अंदाज़ के बरक्श कशमकशे हयात यानी ज़िन्दगी की ज़द्दोज़हद में देखने की सिफारिश की थी , तब वे सुन्दरता के इस वर्गीय परिप्रेक्ष्य की ओर ध्यान खींच रहे थे .

 प्रेमचन्द खुद उस रूसी बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित थे , जिसने यूरप में दो विश्वयुद्धों के बीच के वक्फे में सुंदरता की इस बहस को तेज कर दिया था . कला और साहित्य की दुनिया ‘बुर्जुआ ‘ और ‘सर्वहारा’ के बीच बंट चुकी थी. सर्वनाश की दुस्संभावना का सामना कर रही दुनिया अब यह सोच रही थी कि दुनिया में सुंदरता जैसी कोई चीज होती भी है या नहीं . क्या सुंदरता महज़ एक आर्थिक-सामाजिक पूर्वग्रह है , जैसा कि मार्क्सवादी बौद्धिक दायरों में समझा जा रहा था ? क्या वह महज़ वर्चस्व कायम करने का जरिया है ? अथवा क्या वह ज़िन्दगी की कडवी सच्चाई से मुंह चुराने का बहाना भर है, जैसा कि रोमैंटिक कवियों की दुनिया में होता लग रहा था ? 

ऐसे समय टी एस इलियट और एफ आर लिविस जैसे काव्य चिंतकों का उदय हुआ , जिन्होंने नई समीक्षा और आधुनिकतावादी सौन्दर्य दृष्टि की जमीन तैयार की . आधुनिकतावादियों ने सुन्दरता और संवेदना के संकट के कारणों को सामाजिक –आर्थिक संरचनाओं में ढूँढने की प्रवृत्ति का खंडन किया . संकट के स्रोत उन्हें आधुनिकता के साथ सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों में दिखाई पड़े . 
मनुष्य के भावबोध में ही दरार 3(3- ‘द मेटाफिज़िकल पोएट्स’, इलियट , टी एस ; 1951) पड़ गई है . बुद्धि और हृदय में विभाजन हो गया है . मास मीडिया और बाज़ारू संस्कृति के फैलाव ने भाषा की अर्थ -सम्पन्नता और मार्मिकता को नष्ट कर दिया है . सिर्फ़ महान कविता सुंदरता के अहसास की और मनुष्यता की रक्षा कर सकती है . लेकिन ऐसी कविता लिखना और उसका लुत्फ़ उठाना सबके वश की बात नहीं है . केवल गुणीजनों के एक अल्पसंख्यक समूह4 को सुंदरता और संस्कृति की रक्षा की महती जिम्मेदारी उठानी होगी . 

अंग्रेज़ी आलोचना में विकसित हो रहे इन विचारों का असर सारी दुनिया पर हो रहा था . अंग्रेज़ी साम्राज्य का मुकुट भारत कैसे बच सकता था . हिंदी में उन दिनों उपनिवेश विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन से निकली दो साहित्यिक महाशक्तियों का प्रभाव था - प्रेमचन्द और निराला . दोनों ही प्रगतिशील दृष्टि के हिमायती थे , जीवन के संघर्ष में सौन्दर्य देखने वाले . राजनीतिक चेतना को सौन्दर्य-दृष्टि का अनिवार्य तत्व समझने वाले . अज्ञेय ने इन दोनों के बर'-अक्स साहित्य की एक नई राह निकाली . 

उन्होंने अपनी कविताओं और कथा-साहित्य के जरिए सुंदरता की एक नई कल्पना पेश की . इस कल्पना में ताज़गी थी, आज़ादी का अहसास था , निजता का स्पर्श था और आधुनिकतावादी अनास्था और अवसाद की अनुगूंज थी. हिंदी में इसका जादुई प्रभाव हुआ . नई कविता और नई कहानी , दोनों के दिग्विजय में अज्ञेय का बुनियादी योगदान है . कलाओं की ताक़त सुंदरता के नए अहसासों की खोज में है . मनुष्य का व्यवहार , उसकी क्रियाशीलता और भविष्य में उसका हस्तक्षेप सुंदरता के उसके अहसास पर निर्भर करता है . उसे क्या , क्यों और कैसे सुंदर लगता है , यह उसके जीवन को संचालित करने वाली सबसे बड़ी प्रेरणा होती है . विचार तो आते-जाते रहते हैं , लेकिन सौन्दर्यबोध अंगुली पकड़ कर  साथ लिए चलता है .

 ‘एक साहित्यिक की डायरी ‘ में संकलित निबन्धों में नई कविता के दायरे में अज्ञेय द्वारा प्रस्तावित नई सौन्दर्य दृष्टि के साथ एक गहरी बहस की गई है . यह बहस वाद-विवाद के रूप में नहीं की गई है . यह एक आत्मीय आंतरिक बातचीत है . इन निबंधों की शैली किसी घनिष्ठ मित्र के साथ बातचीत की डायरी जैसी है .

 बातचीत को डायरी के रूप में दर्ज करने का लाभ यह है कि वाचक को अपने साथ बात करने का अवसर भी मिल जाता है . असल में डायरी में संवाद कम से कम तीन स्तरों पर चलता है . पहले तो वाचक और उसके मित्र का . दूसरे वाचक का संवाद स्वयं अपने साथ . और तीसरे पाठक के साथ . मुक्तिबोध ने इस शैली की खोज सौन्दर्य सम्बन्धी प्रचलित अवधारणाओं के सभी पहलुओं की गहरी जांच-पड़ताल करने के लिए की है .

 एक विशेष अवधारणा किस तरह जनम लेती है , किस भूमिका का निर्वाह करती है और अपने समय को किस तरह प्रभावित करती है , इन सब की बारीक़ खोज-बीन मुक्तिबोध करते हैं . ख़ास बात यह कि इस त्रिस्तरीय संवाद में केवल तर्क –वितर्क नहीं है . दोस्ताना तफरीहें हैं. रोजमर्रे की ज़िन्दगी के मार्मिक अवलोकन और उन पर सोचती-समझती टिप्पणियाँ भी हैं. जीवन-जगत के दार्शनिक और राजनीतिक प्रश्नों से मुठभेड़ है . सांझे हैं , सुबहें हैं. कविता है .

 इन डायरियों को पढ़ते हुए पाठक को लगता है कि वो अपने समय को और अपने आप को पहचानने लगा है . वह इस संवाद में शरीक हो जाता है . वो अपने आप से बहस करने लगता है , और अपने आप के जरिए जमाने से . इस प्रक्रिया में एक नए इंसान का जन्म होने लगता है . ‘नए की जन्मकुंडली’ शीर्षक से दो निबंध भी इस संग्रह में हैं . एक और दो के नाम से . 
नए इंसान का जन्म प्रचलित विचारों में छुपे हुए प्रतिक्रियावाद को पहचानकर होता है . स्थापित , सुसज्जित , सम्मानित विचारों में छुपे हुए छल और उसकी समूची ऐतिहासिक प्रक्रिया को समझ कर होता है .अपनी आलोचना में अन्यत्र भी मुक्तिबोध ने विस्तार से इन चर्चाओं को उठाया है . लेकिन संवाद-प्रतिसंवाद की इस शैली से इन अवधारणाओं का जितनी गहराई से परीक्षण हो सकता है , शायद वह दूसरे तरीके से मुमकिन नहीं है .

मुक्तिबोध अपने समय के ‘आधुनिकतावादी’ विचारों में छुपी ‘बानर-सत्ता” 5(5 – ‘डायरी’ , सं-1989, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन , पृष्ठ -42) को पहचान लेते हैं . वे उसे ‘लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता’ के रूप में परिभाषित भी करते हैं. वे फासीवाद . बहुसंख्यकवाद .अंधराष्ट्रवाद आदि की चर्चा नहीं करते . लेकिन समकालीन पाठक इस डायरी के जरिए सुंदरता की ‘आधुनिकतावादी’ और फासीवादी अवधारणाओं के बीच की निकटता को पहचान सकता है . 

आगे हम इस निकटता पर तनिक गहराई से विचार करेंगे . हमारा उद्देश्य हिंदी की आधुनिकतावादी काव्य-दृष्टि में निहित फासीवादी संभावनाओं के ख़िलाफ़ ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के संघर्ष को उद्घाटित करना है . हम यहीं स्पष्ट कर दें कि हम नई कविता के व्यक्तिवादी स्कूल की कविता और काव्य-चिन्तन को फ़ासिस्ट विचारधारा नहीं मानते . दोनों में बड़ा अंतर यह है कि नए कवियों के लिए स्वतन्त्रता एक ऐसा सबसे बड़ा मूल्य है , जिसके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता , जबकि एक फ़ासिस्ट के लिए स्वतन्त्रता का कोई मूल्य ही नहीं है . 

सौन्दर्य प्रतीति का सम्बन्ध सृजन –प्रक्रिया से है . सुंदरता के बारे में एक नज़रिया यह है कि यह कुछ गुणों , प्रतिमानों या मूल्यों पर निर्भर करती है . कोई वस्तु , दृश्य या रचना सुंदर हो सकती है , अगर वो इन प्रतिमानों पर खरी उतरे . इन प्रतिमानों का निरंतर विकास होता रहता है . अज्ञेय ने अपने निबंध ‘शिवत्व बोध और सौन्दर्य बोध’ में क्रमशः जटिल होते ऐसे मानकों की चर्चा की है – लय , वक्रता , स्थिरता, सन्तुलन; परिचित और नव्यता; गाम्भीर्य, सूचकता, सार्वभौमता .6
इसी निबंध में वे आधुनिकता के साथ साहित्यिक प्रतिमानों में आए विकास के कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं. आख्यान साहित्य घटना-वर्णन से घटना-हेतु की खोज की तरफ बढ़ा है . नैतिक निर्णय से समझ और सम्वेदना की ओर गया है . यह परिवर्तन , जिसे अज्ञेय संस्कार कहते हैं, आधुनिक मानवतावादी चेतना की देन है . इन प्रतिमानों पर नई समीक्षा की छाप स्पष्ट है . 

परिचित और नव्यता को परम्परा और मौलिकता के बराबर रखा जा सकता है . अज्ञेय ने इलियट के निबंध ‘परम्परा और व्यक्तिगत प्रतिभा का’ अनुलेखन ‘रूढ़िवाद और मौलिकता’ शीर्षक से किया था . गाम्भीर्य , सूचकता और सार्वभौमता आदि ‘नई समीक्षा’ द्वारा किए गए प्रचलित किए गए पद हैं. अज्ञेय यह भी मानते हैं कि सुंदरता के इन प्रतिमानों का अंतिम स्रोत मनुष्य का विवेक है , जो अनुभव पर आधारित और बुद्धि द्वारा परिमार्जित होता है . समय के साथ मनुष्य के नौभाव , बुद्धि और विवेक का विस्तार होता चलता है . इसे के साथ सुंदरता के प्रतिमान भी विकसित होते चलते हैं . लेकिन विकास पूर्ववर्ती मानकों का खंडन नहीं करता , उसमें नया जोड़ भर देता है . क्योंकि नया अनुभव पुराने को मिटा नहीं देता , केवल उसका एक नया संस्कार कर देता है . इसलिए सुंदरता के प्रतिमान शाश्वत भले ही न हों , लेकिन वे स्थायी जरूर होते हैं. 

अज्ञेय की दृष्टि में सुन्दरता के मूल्यों का नैतिक मूल्यों से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है. अगर ऐसा देखा जाता है कि सुंदर रचना नैतिक दृष्टि से भी उदात्त है, तो यह अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि सौन्दर्य बोध और नैतिक  बोध दोनों का स्रोत मनुष्य का अनुभव और उसका विवेक है.  लेकिन ऐसा होना एक संयोग मात्र है, क्योंकि सुंदर और शिव  जीवन के दो भिन्न आयाम हैं. ये दो अलग अलग चलने वाली खोजें हैं. एक दूसरी पर निर्भर नहीं  है. 

दरअसल कला से, अज्ञेय के शब्दों में,  'शिवेतर-क्षय'  की मांग करना एक अतिरिक्त मांग है. इतना ही नहीं, कला से असुंदर के क्षय या निषेध की मांग करना भी अनुचित है. सुन्दरता का विकास असुन्दर की पहचान या निषेध से नहीं होता , नए अनुभव और विवेक की प्रेरणा से सहज रूप से होता है. नैतिक बोध के  विकास के लिए भी अनैतिक की पहचान करने और उसके विरुद्ध संघर्ष चलाने की अनिवार्यता नहीं है. उसका विकास भी सुन्दरता की तरह  सहज रूप से होता है. द्वंद्व और संघर्ष की बात करना 'नाना  प्रकार के वाद' चलाना  है! इसका कला उर विवेक से कुछ लेना -देना नहीं . 

अज्ञेय ने लिखा है -'...  जो सुन्दर है वह अनैतिक नहीं होगा यह एक बात है, पर उससे शिवेतर-क्षय की माँग करना एक अतिरिक्त शक्ति या प्रभाव की माँग करना है।......
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विश्लेषण को चरम अवस्था तक ले जाएँ तो मानना होगा कि नैतिक मूल्य यानी शिवत्व के मूल्य, और सौन्दर्य के मूल्य अलग-अलग हैं और अलग विचार माँगते हैं। विशुद्ध तर्क के क्षेत्र में यह भी मान लेना होगा कि ऐसा हो सकता है कि कोई कलाकृति सुन्दर हो और अशिव हो, या कम से कम शिव न हो।....
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कृतिकार सुन्दर का स्रष्टा होकर असुन्दर के सायास परित्याग के द्वारा सुन्दर की उपलब्धि नहीं करता, उसी प्रकार वह नैतिक द्रष्टा होकर सायास अनैतिक के विरोध द्वारा नैतिक को नहीं पाता; उसकी परिपुष्ट संवेदना सहज भाव से दोनों को पाती है-और देती है। इसीलिए कला हमें आनन्द भी देती है, हमारा उन्नयन भी करती है। आज का समालोचक इस बात को नाना वादों के आवरण में छिपा चाहे सकता है, इसे अमान्य नहीं कर सकता।"7
(बल मेरा )

सौन्दर्य की इस अवधारणा की धुरी है संघर्ष का निषेध और मनुष्य के  'सहज विवेक' पर अप्रश्नेय आस्था. यही अज्ञेय का मानवतावाद है. मानवतावादी अज्ञेय व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के अथक आग्रही हैं.  लेकिन असुंदर और अशिव के विरुद्ध संघर्ष  की अनिवार्यता से रहित सौन्दर्य-दृष्टि स्वतंत्रता के विरुद्ध  भी जा सकती है, इस पर उनका ध्यान नहीं जाता. 

 मानवतावाद और फ़ासीवाद विपरीत वैचारिक ध्रुवों पर स्थित प्रतीत होते हैं . लेकिन दोनों विचारधाराएं मानवीय विवेक की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर आधारित हैं . ऐसे कयास लगाए जाते रहे हैं कि हिटलर की वैचारिक प्रेरणाओं में दार्शनिक नीत्शे की ‘अतिमानव ‘ जैसी कल्पनाएँ भी शामिल थीं .8 

अगर मानवीय विवेक इतना  सहज होता  तो उसके इतने रूप नहीं होते. शक्तिशाली सत्ता-सम्पन्न लोग हमेशा अपने ही विश्व बोध को मनुष्य  के सहज विवेक के रूप में स्थापित कर सकते है. वे अपने ही  हितों को सुन्दरता और नैतिकता के  सार्वभौम और सार्वकालिक  'मानवीय मूल्यों' के रूप में प्रतिष्ठित कर सकते हैं.   

मुक्तिबोध डायरी के पहले निबंध ‘तीसरा क्षण’ में सुंदरता की मूल्य-आधारित परिकल्पना का खंडन करते हैं. “मुझे गहरा संदेह है कि आजकल की सौन्दर्य परिभाषा केवल कविता , और वह भी आत्मपरक कविता , की विशेषताओं के आधार पर बनाई जा रही है . सौन्दर्य संबंधी इन व्याख्याओं का प्रकट या अप्रत्यक्ष उद्देश्य आज की काव्य-दृष्टि का डिफेन्स है ... किन्तु ये व्याख्याएं कुछ इस प्रकार से , कुछ इस ठाठ से और शान से बनाई जाती हैं मानो वे सार्वभौम सत्य की सार्वकालिक स्पन्दनाएं हों . इस पोज़ और पोश्चर की जरूरत नहीं . यह अवैज्ञानिक दृष्टि है .”9 

मूल्य- आधारित सौन्दर्य-बोध की जगह वे कला के तीन क्षणों के जरिए प्रक्रिया-आधारित सौन्दर्यबोध की सिफ़ारिश करते हैं. इनमें पहला क्षण अनुभव का , दूसरा अनुभव के वैयक्तिक अनुसंगों से मुक्त फैंटेसी में रूपांतरित होने का और तीसरा इस फैंटेसी की शब्द-बद्ध होने का क्षण है . यह अनुभव के विस्तार की प्रक्रिया है , जो लगातार चलती रहती है . अनुभव का वैयक्तिक अनुसंगों से मुक्त होना ही उसका फैंटेसी में बदल जाना है . फैंटेसी अनुभव की कन्या है , किन्तु उसका स्वतंत्र विकासशील व्यक्तित्व है . निजी दुख-ताप से छूटकर एक ख़ास अनुभव बहुत से दूसरे ( निजी और सामाजिक ) अनुभवों से जुडकर एक नई सघनता पा जाता है . भाषाबद्ध होने की प्रक्रिया में वह भाषा में संचित अनुभवों-आशयों से और अधिक समृद्ध होने लगता है . यों कविता फैंटेसी से जन्म लेती है , लेकिन अंततः अपने स्वतंत्र प्रवाह का निर्माण करती है . सुंदरता का अनुभव इस विस्तार और प्रवाह में है .

 यह निरंतर गतिमान प्रक्रिया मुक्तिबोध को छोटी कविताएँ नहीं लिखने देती .10 अनुभव का सौन्दर्यानुभव में बदलना एक सृजनात्मक प्रक्रिया है . इसलिए सौन्दर्यानुभव की जांच केवल रचना प्रक्रिया के आधार पर की जा सकती है , किन्ही स्थायी या शाश्वत मूल्यों के आधार पर नहीं . अनुभव का सौन्दर्यानुभव में बदलना वैयक्तिक अनुभव का प्रातिनिधिक अनुभव में बदलना भी है . मुक्तिबोध ‘प्रातिनिधिक’ शब्द का प्रयोग करते हैं , सार्वभौम या सार्वकालिक नहीं . प्रातिनिधिक एक से अधिक का होता है , सबका नहीं . यह प्रातिनिधिकता आती है “दृष्टि की स्थिति-मुक्त वैयक्तिकता और सम्वेदना की स्थिति–बद्ध वैयक्तिकता के समन्वय” से . 11 “भोक्त्रित्व और दर्शकत्व का द्वंद्व एक समन्वय में लीन होकर एक दूसरे के गुणों का आदान –प्रदान करता हुआ सृजन-प्रक्रिया आगे बढ़ा देता है .”12 

मुक्तिबोध की सौन्दर्य दृष्टि द्वन्द्वात्मक और गतिशील है , जबकि अज्ञेय की द्वंद्वरहित और स्थायित्वकामी ! अपने कालजयी उपन्यास ‘ शेखर :एक जीवनी ‘ की भूमिका में लिखते हैं – “यह बात हिन्दी के कम लेखक समझते या मानते हैं कि कल्पना और अनुभूति-सामर्थ्य (sensibility) के सहारे दूसरे के घटित में प्रवेश कर सकना, और वैसा करते समय आत्म-घटित की पूर्व-धारणाओं और संस्कारों को स्थगित कर सकना- objective हो सकना-ही लेखक की शक्ति का प्रमाण है। इसके विपरीत लेखको में ऐसे अनेक मिल जाएँगे, जो ऐसी अनुभूति ......को परकीय, सेकण्ड-हैण्ड, अतएव घटिया और असत्य कहेंगे।
 ऐसे व्यक्तियों के लिए टी.एस. इलियट की उस उक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा, जो वास्तव में इसका एकमात्र उत्तर है : There is always a separation between the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the greater the separation. (भोगनेवाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार में सदा एक अन्तर रहता है, और जितना बड़ा कलाकार होता है, उतना ही भारी यह अन्तर होता है।)” 13 

मुक्तिबोध भोक्तृत्व और दर्शकत्व के बीच द्वन्द्वात्मक समन्वय करते हैं , जबकि इलियट के हवाले से अज्ञेय दोनों को एकदम अलग कर देना चाहते हैं. उनके लेखे अंतर जितना भारी हो , कला की दृष्टि से उतना ही अच्छा होगा . यह अलगाव कला को शुद्ध बौद्धिक व्यापार बना देता है . कला जितनी बौद्धिक होगी , उसका नैतिक निर्णय उतना ही प्रखर होगा . शेखर में , अज्ञेय स्वयं कहते हैं , यह ‘महान आदर्श’ निभ नहीं पाता. शेखर के लेखक की यह ‘विफलता’ ही उपन्यास की श्रेष्ठता का बीज बन जाती है !

 ‘द्वंद्वात्मक समन्वय’ वदतोव्याघात लग सकता है , लेकिन है नहीं . ‘तीसरा क्षण’ में केशव कहता है –“ केवल तटस्थ व्यक्ति ही तदाकार हो सकता है , समझे ?” 14
 भोक्तृत्व और दर्शकत्व के द्वन्द्वात्मक समन्वय के बिना निजी अनुभव प्रातिनिधिक अनुभव में रूपांतरित नहीं हो सकता . यहाँ एक उदाहरण लिया जा सकता है . चाँद सुंदर लगता है , लेकिन उसे उसके तमाम सांस्कृतिक सन्दर्भों से काट कर देखा जाए तो वह एक चमकदार धब्बा भर रह जाएगा . दूसरी तरफ , अगर वो सबको एक ही जैसा दिखाई दे तो ऊब पैदा करेगा . चाँद को औरों की आँखों से देखते हुए अपनी भी आँखों से देखना एक नए अदेखे चाँद को देखना है . यह सृजन प्रक्रिया ही सौन्दर्यानुभव है . 

बुद्धिजीवी को जनता से अलग करना प्रतिक्रियावाद है . मूल्य आधारित सौन्दर्यदृष्टि कलाकर्म के प्रति कुलीनतावादी नजरिए में प्रतिफलित होती है . सुंदरता का निर्णय करने के लिए जैसे ही कुछ प्रतिमान या मूल्य तय किए जाते हैं , वैसे ही दुनिया सुंदर और असुन्दर के बीच बंट जाती है . 
कुछ चीजें सुंदर मान ली जाती हैं और बाक़ी असुन्दर . 
इसी तरह समाज में कुछ लोग प्रतिभाशाली होते हैं , कवि-कलाकार होते हैं. शेष जनता - जन साधारण -भीड़ है . कवि-कलाकार नदी का द्वीप है . उसके व्यक्तित्व की मौलिकता और स्वतन्त्रता ही उसे कलाकार बनाती है . जनता नदी की धारा है . धारा में बहती बूंदों का अपना कोई वज़ूद नहीं . 

अपनी प्रसिद्ध कविता ‘ नदी के द्वीप ‘ 15 में अज्ञेय यह तो मानते हैं कि धारा ने ही द्वीप को बनाया है और चाहे तो मिटा भी सकती है , लेकिन फिर भी सबसे अहम बात यह है कि द्वीप द्वीप है , धारा नहीं है ! कुलीनातावादी नज़रिए के लिए यह मानना जरूरी है कि असाधारण कार्य करनेवाले नायक अपनी असाधारण क्षमता किसी आंतरिक प्रेरणा से प्राप्त करते हैं . उनका कर्तृत्व किसी सामाजिक कारक से प्रेरित नहीं होता . 

‘शेखर’ में वाचक ने जन्मजात प्रतिभा के सिद्धांत पर बार- बार बल दिया है . क्रांतिकारी पैदा होते हैं , बनाए नहीं जाते . अज्ञेय मानते हैं कि इस आंतरिक कर्तृत्व को उद्घाटित करने की प्रवृति आधुनिक ‘मानवतावादी’ आख्यान -साहित्य की प्रमुख विशेषता है . पुराना साहित्य नैतिक दृष्टि से नियतिबद्ध था . पात्र प्रायः अच्छे और बुरे में बंटे होते थे , जिन्हें अपनी पूर्व-निर्धारित भूमिकाओं का निर्वाह करना होता था . आधुनिक पात्र अपनी आंतरिक प्रेरणा से परिचालित होते हैं , इसलिए उन्हें किसी नैतिक खाँचें में फिट नहीं किया जा सकता . 

अज्ञेय इस मानवतावादी नज़रिए के बरक्श आधुनिक साहित्य की एक ख़ास प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं , जो उनके लेखे आंतरिक कर्तृत्व के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करती और मनुष्य को उसकी परिस्थितियों द्वारा संचालित मानती है . लिखते हैं –“ यह प्रवृत्ति कर्म-प्रेरणाओं की पड़ताल को प्रवंचना कहती है, क्योंकि वह कर्ता के कर्तृत्व को, भावना और अनुभूति की प्राथमिकता को अस्वीकार करती है। जिसे हम आभ्यन्तर कारण कहते हैं उसे वह स्थितिजन्य परिणाम मानती है। एक प्रकार से वह साहित्य की अब तक की प्रवृत्ति को उलट रही है: जहाँ अब तक साहित्य मानव को बँधी-बँधाई नैतिक लीकें से उबार कर कत्र्ता का गौरवपूर्ण पद देने की ओर प्रवृत्त था, वहाँ यह नई प्रवृत्ति फिर से बँधी-बँधाई लीकों लेकर उसमें मानव को डालने का उपक्रम कर रही है।“ 16 

अज्ञेय इस नज़रिए को द्वन्द्वात्मक , अवसरसेवी और विवेक की जगह तर्क को प्रतिष्ठित करनेवाला नज़रिया भी करार देते हैं . नाम वे नहीं लेते , लेकिन स्पष्ट है कि उनका इशारा मार्क्सवादी दृष्टिकोण की तरफ़ है . मानवतावाद और मार्क्सवाद की उनकी इन व्याख्याओं में निहित सरलीकरण और भ्रम के विश्लेषण में न जाते हुए भी यह देखना कठिन नहीं है कि कुल मिलाकर यह एक कुलीनतावादी दृष्टिकोण है . आखिर यह कर्मप्रेरक क्रांतिकारी आंतरिक प्रेरणा गिने चुने लोगों को ही नसीब हो सकती है .

 यों कविता में कठोर निर्वैयक्तिकता और दर्शन में घोर व्यक्तिवाद का सह-अस्तित्व कायम हो जाता है . यह स्वाभाविक भी है . नितांत निर्वैयक्तिक होने के लिए विशुद्ध बुद्धिवादी होना जरूरी है , जिसकी अंतिम परिणति व्यक्तिवाद में ही हो सकती है . 

आधुनिकतावादी काव्य-सिद्धान्त से प्रभावित नयी कविता में निहित इस कुलीनतावाद का डायरी में अनेक बार खंडन किया गया है . मुक्तिबोध बार बार दुहराते हैं कि यह एक प्रतिक्रियावादी नज़रिया है . “अपने अंतिम निष्कर्ष में यह विचारधारा अत्यंत प्रतिक्रियावादी है , वह जन के प्रति घृणा पर आधारित है , और बुद्धिजीवियों को जनता से अलग करके रखने का एक उपाय है . ...सब नए कवि जनता को घृणा नहीं करते हैं . लेकिन कुछ ऐसे हैं जो इस प्रतिक्रियावादी विचारधारा को अपनाते हैं. “ 17 

बकौल मुक्तिबोध यह विचारधारा पश्चिमी साम्राज्यवाद की देन है . यह विचारधारा प्रतिक्रियावादी इसलिए है कि यह आर्थिक –राजनीतिक सत्ता पर एक छोटे कुलीन तबके के कब्ज़े को तर्कसंगत ठहराती है . यह सत्ता में साधारण जन की हिस्सेदारी की लोकतांत्रिक मांग के विरुद्ध कुलीन वर्ग की प्रतिक्रिया है . मध्यवर्ग के महत्वाकांक्षी लेखक सत्ता-केंद्र के करीबतर होने के लालच में इस विचारधारा के शिकार हो कर अपनों से दूर हो जाते हैं. “ उन अपनों के जीवन की बदरंग सूरतें उनमें, उनके विरुद्ध , एक तड़पती हुई प्रतिक्रिया पैदा कर देती हैं. उन अपनों से हट कर वे अपने स्वामियों या उच्च सत्ताधारियों या लाभदायक प्रभाव सम्पन्न व्यक्तियों की खुशामद करने में एक दूसरे की होड़ करने लगते हैं .” 18 

प्रक्रिया-आधारित सौन्दर्य दृष्टि कुलीनातावाद की धज्जियां उड़ाती है . कला के दूसरे क्षण में फैंटेसी का निर्माण सम्वेदना की स्थितिबद्ध वैयक्तिकता का दृष्टि की स्थितिमुक्त वैयक्तिकता से समन्वय का प्रतिफल है . तीसरे क्षण में भाषा एक सामाजिक शक्ति के रूप में हस्तक्षेप करती है . स्थितिमुक्त दृष्टि और भाषा में निहित सामाजिकता के संयोग से व्यक्तिगत सम्वेदना एक नए रूप में ढल कर प्रातिनिधिक हो उठती है . 

सुंदरता इस प्रक्रिया से उत्पन्न होती है . वह किन्ही प्रतिमानों की मदद से खोज लिए जाने के इंतज़ार में पहले-से किसी व्यक्ति , वस्तु या विचार में मौजूद नहीं होती . अगर पहले से मौज़ूद हो तो इससे कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे ईश्वर में खोजा जाता है या राजा में , नायिका में ढूंढा जाता है या प्रकृति में , काव्य में तलाशा जाता है या राष्ट्र में ! मूल्य-आधारित सौन्दर्य दृष्टि फासीवाद के अनुकूल जमीन मुहैया करा सकती है , जबकि प्रक्रिया आधारित दृष्टि हमेशा उसके प्रतिकूल सिद्ध होगी . 

अनुभूत सत्य का जितना अनादर आज है , उतना पहले कभी नहीं था . मुक्तिबोध कहते हैं –“ असलियत यह है कि सौन्दर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशील कल्पना के सहारे संवेदित अनुभव ही का विस्तार हो जाए .” 19

 सौन्दर्यानुभव के लिए सृजनशीलता ही काफी नहीं है . सृजन की सार्थकता संवेदित अनुभव के विस्तार में है . फैंटेसी कल्पना की दिशाहीन उड़ान नहीं है . अनुभव के विस्तार का आशय है निजी अनुभव के वेग से वृहत्तर , व्यापकतर और गहनतर सामाजिक सत्य तक पहुँचने का यत्न . मुक्तिबोध के लेखे नए लेखक की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह अपने ही अनुभव को व्यक्त करने से बचता है . 

विस्तार देने की जगह उसे सेंसर कर देता है . ऐसा वह क्यों करता है ? यहाँ सौन्दर्य-प्रक्रिया में सत्ता की दखलन्दाजी सामने आती है . “बड़े-बड़े आदर्शवादी आज रावण के यहाँ पानी भरते हैं, और हाँ में हाँ मिलाते हैं....और रावण के राज्य का एक मूल नियम यह है कि जो अपना अनुभूत वास्तव है , उस पर पर्दा डालो. इसलिए हमारे बहुत से कवि और कथाकार , मारे डर के , उस वास्तव को नहीं लिखते हैं , जिसे ये भोग रहे हैं ...अनुभूत वास्तव का जितना अनादर आज है उतना पहले कभी नहीं था .’’ 20 

सत्ता जिस लालच और भय को जन्म देती है , उसका सबसे आसान शिकार उच्चतर वर्ग होता है . “ उच्चतर वर्ग अधिक जड़ और प्रतिगामी हो गया है . वह इस समय साहित्य में ऐसे विचारों का प्रचार करना चाहता है जिनके द्वारा हमारा साहित्यिक व्यक्ति अनुभूत वास्तवों की पाशविकता और मानवीयता पर पर्दा डाल दे , और वह जनता की ओर उन्मुख न हो ..............’’ 21 

अनुभूत वास्तविकता जटिल होती है . उसमें मानवीय मार्मिकता और पाशविक निर्ममता एक साथ पाई जाती है . मुक्तिबोध ने पाशविक शब्द का प्रयोग प्रचलित अर्थ में किया है , हालांकि कहना कठिन है कि मनुष्य और पशु में अधिक निर्मम कौन है ! मूल्य-आधारित सौन्दर्य-सिद्धांत सत्ता का सिद्धांत है . मूल्यों का निर्धारण सत्ताएँ करती हैं. इन मूल्यों को प्रचलित करने के लिए वे भय और लालच की शक्ति का इस्तेमाल करती हैं. सृजन –प्रक्रिया आधारित सिद्धांत सत्ता को चुनौती देता है . संवेदित अनुभव के विस्तार के लिए वह हर कदम पर सत्ता का मुक़ाबला करता है. 

 डायरी में एक बड़ी बहस ‘कलाकार की ईमानदारी’ की अवधारणा के बारे में है . यह नई कविता के प्रवक्ताओं की प्रिय अवधारणा थी. अज्ञेय ने ‘आत्मनेपद’ और ‘त्रिशंकु’ में ‘स्वानुभूत’ लिखने का आग्रह किया है . वे मानते हैं कि अनुभूति की प्रामाणिकता कम लिखवाएगी , लेकिन गलत नहीं लिखवाएगी . डायरी में मुक्तिबोध का सवाल है कि क्या ईमानदारी को स्वानुभूत तक सीमित किया जा सकता है .

 “ व्यक्तिगत ईमानदारी का नारा देने वाले लोग असल में भाव या विचार के सिर्फ सब्जेक्टिव पहलू- केवल आत्मगत पक्ष - के चित्रण को ही देकर उसे ‘भाव-सत्य’ या ‘आत्म-सत्य’ की उपाधि देते हैं. किन्तु भाव या विचार का एक ऑब्जेक्टिव पहलू अर्थात् वस्तुपरक पक्ष भी होता है . आजकल लेखन में आत्मपरक पक्ष को महत्व देकर वस्तुपरक पक्ष की उपेक्षा की जाती है .” 22

 मध्यकालीन हिंदी कविता में वस्तु-वर्णन की प्रधानता रही . छायावादी कविता में आत्माभिव्यक्ति पर बल दिया गया . मुक्तिबोध का आग्रह है कि नई कविता में आत्मपरक और वस्तुपरक का समन्वय होना चाहिए . कला के तीन सर्जनात्मक क्षणों में यही प्रक्रिया घटित होती है . लेकिन यह अनायास नहीं होगा . इसके लिए कवि को दो तरह की आयास करने होंगे .

 पहला यह कि वस्तुजगत का अधिक से अधिक ज्ञान हासिल करने की चेष्टा होगी और इस ज्ञान के आधार पर अपनी विश्व-दृष्टि को निरंतर विकसित करने का यत्न करना होगा . डायरी याद दिलाती है कि “ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खडी है .यदि ज्ञान और बोध की बुनियाद गलत हुई तो भावना की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी .उसका असर काव्य शिल्प पर भी होगा .” (‘ कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी – एक ‘)

 आज भावना की ऐसी कितनी ही बेडौल इमारतें चारो तरफ खडी हैं. कहीं धर्म की इमारत है , कहीं देशभक्ति की , कहीं परम्परा और संस्कृति की . इन बेडौल डरावनी इमारतों की पीछे एक ही सौन्दर्य-सिद्धांत है , मूल्य-आधारित सिद्धांत . यह सिद्धांत भले ही विवेक को अंतिम कसौटी घोषित करता हो , लेकिन यह नहीं बताता कि इस विवेक के तत्व क्या होंगे , इसके विकास की प्रक्रिया क्या होगी . क्या कोई प्रदत्त विवेक होता है ?

प्रक्रिया के अभाव विवेक किसी विशिष्ट नैतिक अभिरुचि की तानाशाही के सिवा और कुछ नहीं है . कवि-लेखक का दूसरा संघर्ष अभिरुचि के परिष्कार का है .उसे अपनी ही अभिरुचि द्वारा निर्मित अपने अंतर्निषेधों को सुधारना होगा . यह अंपनी ही अभिरुचि की दायरे को पार करने का कठिन संघर्ष है . लेखक जिसे अपनी अभिरुचि समझता है उसके द्वारा सेंसर की गई अनुभूतियों को ही स्वानुभूत सत्य मान लेता है . लेकिन यह अभिरुचि प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः सत्ता-निर्मित हो सकती है . लेखक अपने तईं प्रामाणिक लिख रहा होता है , लेकिन अभिरुचि उसे फ्रॉड में बदल देती है .

 लेखकीय ईमानदारी कोई स्वतः सुलभ वस्तु नहीं है . ईमानदारी मेहनत से कमानी पडती है .लेखक को अधिक से अधिक ईमानदार होने का संघर्ष करना पड़ता है . यह एक निरंतर संघर्ष है . किसी दिए गए क्षण में ईमानदारी और बेईमानी के दो उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक को चुन लेने जैसा आसान काम नहीं है . और अधिक ईमानदारी , और बड़ी सच्चाई के लिए किया जानेवाला कठिन संघर्ष है .

 विवेक की तरह सत्य भी प्रदत्त , परिभाषित , निर्धारित और सनातन नहीं होता . सौन्दर्य की तरह सत्य भी एक सृजनात्मक प्रक्रिया है . कहने का आशय ये नहीं कि सत्य एकदम अनिर्धारणीय और अनिश्चित होता हो . अगर ऐसा होता तो वृहत्तर सत्य तक पहुँचने का कोई रास्ता ही न होता . अगर सत्य ही कुछ नहीं , तो वृहत्तर सत्य कैसा ? वृहत्तर सत्य की खोज के लिए सत्य में आस्था जरूरी है .

 लेकिन यह भी जरूरी है कि जाने हुए सत्य पर निरंतर संदेह किया जाए . पहचाना जाए कि मनुष्य की ज्ञान शक्ति की भी सीमाएं हैं. डायरी कहती है ,”हमें ज्ञान शक्ति की सीमाओं का गहरे से गहरा ज्ञान चाहिए , जिससे कि ग़लतियाँ टाल सकें , अपने कार्यों को अधिक फलप्रद बना सकें .” 23 असीम संदेहरहित ज्ञान या तो अपौरुषेय होता है या फ़ासिस्ट .

 सन्दर्भ 

1(हाशिए पर कुछ नोट्स , ‘एक साहित्यिक की डायरी ‘)
2(‘ हाशिए पर कुछ नोट्स’, डायरी )
3- ‘द मेटाफिज़िकल पोएट्स’, इलियट , टी एस ; 1951)
4- ‘मास सिविलाइज़ेशन एंड माइनोरिटी कल्चर’ – लीविस , एफ आर ; 1930 )
5 – ‘डायरी’ , सं-1989)
6 –‘सौन्दर्यबोध और शिवत्वबोध’ ; अज्ञेय , सच्चिदानंद , हीरानंद वात्स्यायन ) 
 7 – वही )
8 - Nietzsche, Anti-Semitism, and the Holocaust (1997), Steven Aschheim ) .
9- डायरी , सं-89, पृष्ठ 13)
10 -‘एक लम्बी कविता का अंत’ , डायरी )
 11 – डायरी , सं-89 , पृष्ठ -21 )
12 - वही )
 13 भूमिका , शेखर:एक जीवनी , भाग -1
 14 ( डायरी , पृष्ठ -15 ) 
15 - अज्ञेय, ‘हरी घास पर क्षण भर’ )
 16 - (अज्ञेय , ‘सौन्दर्य बोध और शिवत्व बोध’)
 17-( ‘एक लम्बी कविता का अंत’ , डायरी )
 18-( वही ) 
19- ( ‘तीसरा क्षण’ , डायरी ) 
20- वही 
21 - ( ‘एक लम्बी कविता का अंत ‘ , डायरी )
 22 ( ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी –एक’ , डायरी ) .
 23( कटुयान और काव्य सत्य‘, डायरी ).

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