Sunday, August 4, 2024

'इसी दुनिया में' दोबारा

यह लेख वीरेन दा के पहले संग्रह के पुनर्प्रकाशन के मौके पर लिखा था। 'इसी दुनिया में' दोबारा ----------- “शहतूत के पेड़ में उग आई हैं पीताभ- हरित पत्तियाँ वहां अब भी बदला करता होगा मौसम और उनींदे जंगल प्रतीक्षा किया करते होंगे करुणा और वात्सल्य और कौतूहल से विस्फारित आँखें लिए उमगती है मुझ में कविता भड़भड़ाता है किवाड़ भीतर से वह लडका खोल न साले , दरवाज़ा खोल” यह एक लम्बी और खोई हुई कविता का शुरुआती हिस्सा है . इस हिस्से को वीरेन डंगवाल के पहले कविता संकलन ‘इसी दुनिया में ‘ के पुनर्प्रकाशित संस्करण में शामिल किया गया है . कवि के विशेष अनुरोध पर . एक और पूर्वप्रकाशित कविता – ‘यह कविता नहीं है समझे’ – भी शामिल की गई है , जो पहले संस्करण में नहीं थी. पुनर्प्रकाशन की तैयारियां चल ही रही थीं कि वीरेन दा अंतिम यात्रा पर गए . वीरेन डंगवाल का जाना हिंदी कविता समाज के लिए मुक्तिबोध की मृत्य जैसी गहरा आघात पैदा करने वाली घटना बन गई है . उन्हें याद किया जा रहा है , लेख लिखे जा रहे हैं , किताबें छप रही हैं . प्रेमशंकर वारा सम्पादित ‘रहूँगा भीतर नमी की तरह’ संस्मरणों और आलोचनात्मक लेखों का वृहद संकलन है. पंकज चतुर्वेदी के लिखी पुस्तिका ' यही तुम थे ' भी छप कर आ चुकी है . यह कवि और उसकी कविता के साथ नई पीढी के एक कवि-आलोचक कीअन्तरंग यात्रा है . अपनी कविताओं के संकलन और प्रकाशन के प्रति वीरेनदा की लापरवाही जगत-विख्यात है . इस लापवाही का उल्लेख नीलाभ ने पहले संग्रह की भूमिका में भी किया है . प्रकाशक नीलाभ को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी, तब कहीं जाकर तकरीबन पैंतालीस की उम्र में यह संग्रह छप सका था . सन १९९१ में संग्रह के छपने के पहले ही वीरेन युवा पीढी के चहेते कवि बन चुके थे . ऐसे वीरेन ने पुनर्प्रकाशन के समय इन दो कविताओं के लिए विशेष अनुरोध किया, यह बात ध्यान देने लायक है . इन कविताओं ने इस संकलन को अधिक तीखेपन के साथ समकालीन बना दिया है . यों यह पूरा संग्रह इसी साल प्रकाशित किसी ताज़ा संग्रह की तरह पढ़ा जा सकता है , जबकि इसमें छपी सबसे पुरानी कविता सन १९७४ की थी. पुनर्प्रकाशन में शामिल दूसरी नई कविता और भी पुरानी है . सन १९७१ की . नवीकृत संग्रह में कविताओं की प्रथम प्रकाशन तिथियाँ भी दे दी गईं हैं . इससे अध्येताओं के लिए संग्रह का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है . जिस दौर में इस नवीकृत संग्रह के प्रकाशन की तैयारी चल रही थी , देश भर के लेखक अपने सम्मान और पुरस्कार लौटा रहे थे . प्रतिरोध का यह अभियान इतना प्रभावशाली साबित हुआ कि सरकार थरथरा उठी . उसने इसे ‘ कारखाने में तैयार विद्रोह ‘ कह कर झुठलाने की कोशिश की . वित्त मंत्री अरुण जेटली के शब्दों में – मैन्यूफैक्चर्ड प्रोटेस्ट ! लेखकों का कहना यह था कि सरकार देश भर में बन रहे साम्प्रदायिक फासीवादी तनाव के वातावरण को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही. निर्दोष नागरिकों और विवेकवादी लेखकों की हत्याओं का का दौर जारी है . अभिव्यक्ति की आज़ादी और भिन्नताओं के प्रति लोकतांत्रिक सहिष्णुता गहरे संकट में है . स्वतंत्र लेखक ख़ुद को नजरबंद महसूस कर रहा है . क्या ऊपर उद्धृत अंश को संग्रह में शामिल कर वीरेन डंगवाल ने इसी माहौल पर काव्यात्मक टिप्पणी की है ? क्या यह अपनी कल्पना के वसंत से बहिष्कृत एक विद्रोही कवि का गुस्सा है , जो कमरे में क़ैद किवाड़ पीटते लड़के की वाणी से फूट रहा है - खोल न साले , दरवाज़ा खोल? यह आक्रोश इस संग्रह को एक नई धार देता है . संग्रह में पहली बार शामिल दूसरी कविता में भी इस उबलते हुए आक्रोश को महसूस किया जा सकता है . शीर्षक है –‘यह कविता नहीं है समझे’ . इस संग्रह की बाकी कविताओं में भी आक्रोश की कमी नहीं है , लेकिन उसे तनिक छुपा कर रखा गया है . उसे मुक्तिबोधीय ‘जनमनकरुणा’ में ढाल कर . लहज़े और तेवर में तल्खी को कम से कम रखते हुए . जैसे ‘रामसिंह’ कविता में . भीतर विस्फोटक आक्रोश है , लेकिन ऊपर करुणा की तरलता महसूस होती है . ’नदी’ जैसी कविताओं में विद्रोह पैदा करने वाली स्थितियों को नाटकीय बनाया गया है . दृश्य और दर्शक या पाठक के बीच हल्का से अंतराल पैदा कर दिया गया है . अंतराल से यथार्थ को सहना आसान हो जाता है . लेकिन उपरोक्त अंश और इस दूसरी कविता में अंतराल को लगभग मिटा दिया गया है . ‘यह कविता नहीं है समझे’ शीर्षक स्वयं इस ओर इशारा करता है कि यहाँ यथार्थ को काव्यात्मक या कलात्मक बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई है .यहाँ तो ‘अपने आप को अकस्मात निडर पाने का असहय उल्लास वज्र की तरह आप पर गिरता हुआ’ मिलता है . कविता संग्रह की बाकी कविताओं से अधिक पुरानी है . सन १९७१ की . हो सकता है उपरोक्त उद्धृत अंश भी पुराना हो . वीरेन डंगवाल नक्सलबाड़ी विद्रोह से प्रेरित हिंदी कवियों में शुमार किए जाते हैं . आलोकधन्वा , कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह , वेणुगोपाल , कुमार विमल , मंगलेश डबराल , गोरख पाण्डेय , विद्रोही इसी परम्परा से जुड़े कवि है . इन सभी कवियों के आरम्भिक दौर का विस्फोटक आक्रोश आगे चलकर व्यंग्य , विडम्बना और विसंगति का रूप लेने लगता है . आठवें दशक की ‘समकालीन कविता’ के उत्थान के साथ पुराने ढंग का अकविता-नुमा आक्रोश और विद्रोह चलन से बाहर होता जाता है . शायद यही कारण था कि इन कविताओं को पहले संग्रह में जगह नहीं मिली . पुनर्प्रकाशित संग्रह में इनके शामिल होने से अनुमान लगाना असंगत न होगा कि कवि की दृष्टि में नये दौर में ये कविताएँ फिर से प्रासंगिक हो उठी हैं . सन १९१४ में भारी बहुमत से एनडीए सरकार के सत्ता पर काबिज होने के बाद भारतीय राजनीति और समाज के फासीकरण की दशकों से चल रही प्रक्रिया एक मुक़ाम पर पहुँची . इक्यानबे और दो हज़ार पन्द्रह के संस्करणों के बीच का डेढ़ दशक इसी प्रक्रिया के परवान चढ़ने का समय है . इसकी शुरुआत सातवें दशक के अखीर और आठवें दशक के उन शुरुआती वर्षों में नक्सलवादी आन्दोलन के बर्बर दमन के साथ हो गई थी , जिसका एक बड़ा पड़ाव १९७५ का आपातकाल था . पिछेल कुछ बरसों का परिदृश्य अनेक लोगों को आठवें दशक के वातावरण की याद दिलाता रहा है . नए दौर को प्रतिरोधी लेखकों ने बार बार ‘अघोषित आपातकाल’ की संज्ञा दी है . उस दौर की दो असंकलित कविताओं को संग्रह में शामिल करना दो समयों के बीच इस समांतरता को रेखांकित करने का यत्न भी है . ‘इसी दुनिया में’ को दुबारा पढना इस दौर में एक ताज़ा कविता संग्रह पढने जैसा अनुभव दे सकता है . उस दौर में इस संग्रह को जीवन के उल्लास के लिए , तुच्छ समझी जाने वाली चीजों के गौरव गान के लिए , मानवीय रिश्तों के अदेखे पहलुओं को सामने लाने के लिए रेखांकित किया गया .और ठीक ही किया गया . अदृश्य अन्याय को उद्घाटित करने और न्याय की अनसुनी पुकार को प्रतिध्वनित करने में कवि की सफलता को भी रेखांकित किया गया . लेकिन इस बात पर उतना ध्यान नहीं दिया गया कि वीरेन व्यवस्था में अंतर्निहित संरचित हिंसा की बारीक़ पड़ताल करने वाले कवि हैं . इस पड़ताल के गहरे राजनीतिक आशय हैं. व्यवस्था हमेशा हिंसा को नियंत्रित करने के नाम पर सरकारी दमन को न्यायोचित ठहराती है . लेकिन उस हिंसा को कभी चर्चा का विषय नहीं बनने देती , जिसका सृजन , पालन –पोषण और संरक्षण वह ख़ुद करती है . इसका कुछ हिसा तो लोगों को दिखाई पड़ता है , लेकिन बहुत सारा हिस्सा अदृश्य रहता है .वे कौन लोग हैं , जो इस हिंसा के शिकार होते हैं ? किस किस रूप में होते हैं ?उनके पास इस से बचने या इसका प्रतिकार करने के कौन से रास्ते होते हैं ? क्या उनके पास इतने भी साधन होते हैं कि वे इसके विविध रूपों की पहचान कर सकें ?क्या वे उस समूची हिंसा को समझते हैं , जो अनेक तरह से और अनेक रूपों में उनके साथ घटित हो रही होती है ? क्या वे कहीं इसकी शिकायत कर सकते हैं ? क्या कोई ऐसी जगह हैं , जहां न्याय मिले या नहीं , कम से कम उन्हें सुन लिया जाए ? वीरेन डंगवाल की कविता अपने तरीके से ये सारे जरूरी सवाल उठाती है . वह सत्ता के विविध संरचित रूपों के विखंडन की कविता है . ऐसा वह अपनी तीक्ष्ण वर्ग-दृष्टि और सघन मानवीय सम्वेदना के सहारे करती है . उदाहरण के लिए पर एक छोटी-सी कविता ‘इस बार वसंत’ देखी जा सकती है . ‘यों बाहर से कतई साबुत और दुरुस्त खड़ा है पेड़ लेकिन भीतर कुछ है जो दिमाग की नसों की तरह फटा है’ .यह व्यवस्था का आन्तरिक विभाजन है , जो वर्ग , लिंग , जाति और धर्म के अनेक आयाम लिए हुए हो सकता है , लेकिन हर जगह वह कुलीन और जन के बीच की विलोमता के रूप में प्रकट होता है . ऊपर की कविता में आया खूनी वसंत संग्रह की पहली कविता ‘कैसी ज़िन्दगी जिए ‘ में भी मौजूद है . इस ‘उत्तम वसंत’ में हवा कुलीन केशों की गंध से भरी हुई है , लेकिन खरखराते पत्तों में कोपलों की ओट में पिछले दंगों में क़त्ल कर डाले गए लोग इस पशुता का अर्थ पूछते हैं . इस प्रश्न के उत्तर में कविता कहती है – ‘कुछ भी नहीं किया गया थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा! क्या यह ठीक हमारे समय का बयान नहीं है ? क्या यह इक्कीसवीं सदी के भारत का चित्र नहीं है ? अगर समय जितना बदलता है , उतना ही एक जैसा भी बना रहता है तो उसमें कविता क्या करे! ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’, ‘रामसिंह’, ‘भाप इंजन ‘ , ‘सड़क के लिए सात कविताएँ’, ‘पी.टी. उषा’ , ‘तोप’ ‘इंद्र’, ‘नदी’ , ‘समोसे’ इस संग्रह की वे कविताएँ हैं , जो अब कालजयी कही जा सकती हैं . इन कविताओं से अपरिचित कोई व्यक्ति हिंदी कविता का समकालीन पाठक नहीं कहा जा सकता . कालजयी कविता वह होती है जो हर नए दौर में अपने आशय में कुछ नया जोड़ सकती है . ऐसा वही कविता कर सकती है , जिसमें मानव और मानव समाज के अंतर्द्वंद्वों और अंतर्संघर्षों की गहरी पहचान हो . ये मूल अन्तर्द्वन्द्व जब नए आशय और नए रूप ग्रहण करते हैं , तब कविता में भी नयी अर्थवत्ता आ जाती है . ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ कविता की पंक्तियों को देखिए . संस्कृति हमेशा सत्ता के हाथों एक हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती रही है . संस्कृति का एक ख़ास चोला तैयार करना और उन सब लोंगों को संस्कृतिहीन और समाजविरोधी घोषित कर देना , जिनकी उस चोले तक पहुँच न हो या जिन्हें वो रास न आता हो . यह जन की आकांक्षाओं के दमन का आजमाया हुआ ‘कुलीन’ तरीका है . अब इन पंक्तियों को पढिए और देखिए कि वे कितने ताकतवर ढंग से एक नयी प्रासंगिकता पा गई हैं. शब्द संस्कृति ही है , भले चौरासी (में जब कविता लिखी गई थी ) इसका अर्थ कुछ और था , आज कुछ और है. ‘अन्धकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव जीवन जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती इनकी असल समझना साथी अपनी समझ बदलना साथी’ ‘रामसिंह’ कविता जब पहली बार छपी थी, तब एक बड़े बौद्धिक भूकम्प के रूप में इसकी नोटिस ली गई थी. फौज़ का सिपाही साहित्य में या तो बलिदानी योद्धा के रूप में या उत्पीड़न के यंत्र के रूप में पेश किया जाता है . इस कविता ने पहली बार दिखाया कि सिपाही ख़ुद व्यवस्था की संरचनागत हिंसा का शिकार है . ताकतवर हितों की हिफाजत के लिए व्यवस्था एक गरीब इंसान को किस तरह हत्या करने की मशीन में बदल देती है , इस समूची प्रक्रिया का सूक्ष्म लेखाजोखा कविता प्रस्तुत करती है . कविता में फ़ौजी रामसिंह एक विक्टिम की तरह आता है .वह शासन की क्रूरता और उससे उपजी त्रासदी को प्रतीकित करता है . इसी कविता को आज के दौर में पढ़िए तो केवल आपातकाल नहीं . कश्मीर , पूर्वोत्तर , छत्तीसगढ़ भी याद आएँगे . अफ्स्पा भी याद आएगा . गुजरात और उत्तर प्रदेश के फर्जी एंकाउंटर भी याद आएँगे . तब यह कविता सिर्फ़ फ़ौजी रामसिंह की कविता के रूप में नहीं पढी जाएगी . यह लोकतंत्र के सैन्यतंत्र में बदल जाने की कविता के रूप में भी पढ़ी जाएगी. ‘हवा’ और ‘नदी’ पर रोमानी कविताएँ अब तक लिखी जाती हैं . वीरेन शायद हिंदी के अनूठे कवि हैं , जिन्होंने पहचाना था कि वर्गविभाजित समाज में प्रकृति का अनुभव भी सबके लिए एक नहीं होता . नदी के कछार में रहते और हर बार बाढ़ से तबाह होते लोग नदी को उस तरह नहीं महसूस करते , जैसे चांदनी रात में नौका विहार करते लोग करते होंगे . वीरेन की कविता में नदी यों आती है – भर्राती जैसे जीप पर बैठी हुई वह निकलती है अपनी तूफानी मुहिम पर अंधेरी रात में पुलिस दारोगा की तरह गरजती बिफरती गंदी गालियाँ बकती हुई आगे पीछे दौडती है कमजोर किनारे की उधड़ी पिछाडी पर धरती है दनादन लात ‘बता साले बता नहीं तो ..’ { पुस्तक में लात की जगह लाल छप गया है . प्रूफ़ की ऐसी खटकने वाली ग़लतियाँ और भी हैं , लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं .} ऐसा नहीं हो सकता कि ‘नदी’ पढ़ते हुए आज आपको आपरेशन ग्रीन हंट की याद न आए. युवतर पीढी को सम्बोधित यह कविता पढिए –‘वह आ रहा है’. एक अंश यों है – ‘अभी उसे पता नहीं कि क्यों वयस्कों की एक दुनिया के प्रचलित शब्द –आज़ादी- का उच्चारण वयस्कों की दूसरी दुनिया में वर्जित है’ क्या इस कविता पढ़ते हुए दो हज़ार सोलह की पहली छमाही में देश में ‘आज़ादी’ के नारों को लेकर मचे घमासान का मर्म सहसा उजागर नहीं हो जाता ? अगर आप ‘इंद्र’ कविता पढ़ें और उसी के साथ ‘तोप’ कविता भी पढ़ लें तो आज के सत्ताधारी चेहरों का चरित्र उनकी ऐतिहासिक नियति भी आपके सामने क़िताब के पन्नों की तरह खुल जाएगी . वीरेन ने हिंदी कविता की एक ख़ास भाषा और एक ख़ास शैली ईज़ाद की है . इसमें एक बालसुलभ मासूमियत है , जो भाषा के हर छद्म को असम्भव कर देती है . थोड़ा बचपना भी है , जिसके सहारे वीरेन भाषा के साथ कुछ अद्भुत खिलवाड़ भी कर लेते हैं. जैसे इस कविता में – भाप इंजन --------------------- बहुत दिनों में दीखे भाई कहाँ गए थे पेराम्बूर शनैःशनैः होती जाती है अब जीवन से दूर आशिक़ जैसी विकट उंसासें वह सीटी भरपूर (इसी दुनिया में , वीरेन डंगवाल , नवारुण प्रकाशन , गाज़ियाबाद. ( दूसरा नवीकृत संस्करण -२०१५, अशोक पांडे की भूमिका के साथ ). पृष्ठ-१०८, मूल्य (जन संस्करण -100 रुपये ) प्रकाशक का पता – सी -303, जनसत्ता अपार्टमेन्ट , सेक्टर -9, वसुंधरा , गाज़ियाबाद . मोबाइल -9811577426, ईमेल - navarun.publication@gmail.com)

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