Saturday, November 13, 2021

'एक साहित्यिक की डायरी': नए सौन्दर्यबोध की जन्म-कुण्डली

“..आकर्षण की किरण चतुर्दिक प्रसारित होते हुए भी उस व्यक्ति के भीतर ऐसा कुछ है , जिसे आप ‘खोट’ कह सकते हैं. वह सारल्य और भोलापन तो उसमें है ही नहीं , उसके विपरीत हर इच्छित कार्य या चाल को न्यायोचित ठहराने के लिए भाव -विचारों का मायावी इंद्रजाल तानने का उसका कुछ इतना बड़ा माद्दा है कि लगता है उसके आस पास जो तमाम मित्र-मंडली जमा रहती है वह उसकी सक्रिय दलाली के सिवा कुछ नहीं करती . और वह दलाली काहे की ? एक अत्यंत प्रतिक्रियावादी राजनीति की , एक अत्यंत कठोर स्वार्थ की , एक शिलावत भाव की -- जिसका संबंध सिर्फ ‘मैं’ से है !” 1

 ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के इस पन्ने पर मुक्तिबोध एक करिश्माई किन्तु परम स्वार्थी प्रतिक्रियावादी व्यक्तित्व की चर्चा करते हैं . लेकिन विश्लेषण उस व्यक्तित्व का नहीं , उस सामाजिक मनोविज्ञान का करते हैं , जो ऐसे चमत्कारी व्यक्तियों और उनकी व्यक्ति-पूजा का पोषण करता है . भारत में इन दिनों व्यक्ति-पूजा की यह प्रतिक्रियावादी राजनीति अपने चरम पर पहुंची हुई प्रतीत होती है . यह किसी पार्टी-विशेष तक सीमित नहीं है .

 मुक्तिबोध कहते हैं – “श्रद्धेय की आलोचना करना भारतीय संस्कार के इतने विपरीत है कि कुछ मत पूछिए . हम अपने मन की सज्जनता को भीतर के आलोचक से अधिक प्रतिष्ठित बनाए रखते हैं. यह कितनी बड़ी आत्मवंचना है . इस आत्मवंचना का कोई पार नहीं .2 “ (‘ हाशिए पर कुछ नोट्स’, डायरी ) प्रतिक्रियावादी राजनीति इसी आत्मवंचना से अपनी ख़ुराक पाती है.

 नए की जन्मकुंडली 

 सुंदरता क्या होती है ? सुंदर किसको कहते हैं ? ये सवाल जितने सीधे और सहज है , उतने ही उलझे हुए और भ्रामक भी . सदियों से बहस होती रही है कि सुंदरता की स्वतंत्र सत्ता है या यह केवल देखने वाले की नजर में होती है . 
उन्नीसवीं सदी में मार्क्सवादी विचार ने सुझाया कि सुंदरता का एक वर्गीय परिप्रेक्ष्य होता है . वर्गीय हितों का बोध सुंदरता की धारणाओं और उसके अहसास को प्रभावित करता हैं. प्रेमचंद ने जब हुस्न के मेराज़ को उसके ऐशपरवराना अंदाज़ के बरक्श कशमकशे हयात यानी ज़िन्दगी की ज़द्दोज़हद में देखने की सिफारिश की थी , तब वे सुन्दरता के इस वर्गीय परिप्रेक्ष्य की ओर ध्यान खींच रहे थे .

 प्रेमचन्द खुद उस रूसी बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित थे , जिसने यूरप में दो विश्वयुद्धों के बीच के वक्फे में सुंदरता की इस बहस को तेज कर दिया था . कला और साहित्य की दुनिया ‘बुर्जुआ ‘ और ‘सर्वहारा’ के बीच बंट चुकी थी. सर्वनाश की दुस्संभावना का सामना कर रही दुनिया अब यह सोच रही थी कि दुनिया में सुंदरता जैसी कोई चीज होती भी है या नहीं . क्या सुंदरता महज़ एक आर्थिक-सामाजिक पूर्वग्रह है , जैसा कि मार्क्सवादी बौद्धिक दायरों में समझा जा रहा था ? क्या वह महज़ वर्चस्व कायम करने का जरिया है ? अथवा क्या वह ज़िन्दगी की कडवी सच्चाई से मुंह चुराने का बहाना भर है, जैसा कि रोमैंटिक कवियों की दुनिया में होता लग रहा था ? 

ऐसे समय टी एस इलियट और एफ आर लिविस जैसे काव्य चिंतकों का उदय हुआ , जिन्होंने नई समीक्षा और आधुनिकतावादी सौन्दर्य दृष्टि की जमीन तैयार की . आधुनिकतावादियों ने सुन्दरता और संवेदना के संकट के कारणों को सामाजिक –आर्थिक संरचनाओं में ढूँढने की प्रवृत्ति का खंडन किया . संकट के स्रोत उन्हें आधुनिकता के साथ सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों में दिखाई पड़े . 
मनुष्य के भावबोध में ही दरार 3(3- ‘द मेटाफिज़िकल पोएट्स’, इलियट , टी एस ; 1951) पड़ गई है . बुद्धि और हृदय में विभाजन हो गया है . मास मीडिया और बाज़ारू संस्कृति के फैलाव ने भाषा की अर्थ -सम्पन्नता और मार्मिकता को नष्ट कर दिया है . सिर्फ़ महान कविता सुंदरता के अहसास की और मनुष्यता की रक्षा कर सकती है . लेकिन ऐसी कविता लिखना और उसका लुत्फ़ उठाना सबके वश की बात नहीं है . केवल गुणीजनों के एक अल्पसंख्यक समूह4 को सुंदरता और संस्कृति की रक्षा की महती जिम्मेदारी उठानी होगी . 

अंग्रेज़ी आलोचना में विकसित हो रहे इन विचारों का असर सारी दुनिया पर हो रहा था . अंग्रेज़ी साम्राज्य का मुकुट भारत कैसे बच सकता था . हिंदी में उन दिनों उपनिवेश विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन से निकली दो साहित्यिक महाशक्तियों का प्रभाव था - प्रेमचन्द और निराला . दोनों ही प्रगतिशील दृष्टि के हिमायती थे , जीवन के संघर्ष में सौन्दर्य देखने वाले . राजनीतिक चेतना को सौन्दर्य-दृष्टि का अनिवार्य तत्व समझने वाले . अज्ञेय ने इन दोनों के बर'-अक्स साहित्य की एक नई राह निकाली . 

उन्होंने अपनी कविताओं और कथा-साहित्य के जरिए सुंदरता की एक नई कल्पना पेश की . इस कल्पना में ताज़गी थी, आज़ादी का अहसास था , निजता का स्पर्श था और आधुनिकतावादी अनास्था और अवसाद की अनुगूंज थी. हिंदी में इसका जादुई प्रभाव हुआ . नई कविता और नई कहानी , दोनों के दिग्विजय में अज्ञेय का बुनियादी योगदान है . कलाओं की ताक़त सुंदरता के नए अहसासों की खोज में है . मनुष्य का व्यवहार , उसकी क्रियाशीलता और भविष्य में उसका हस्तक्षेप सुंदरता के उसके अहसास पर निर्भर करता है . उसे क्या , क्यों और कैसे सुंदर लगता है , यह उसके जीवन को संचालित करने वाली सबसे बड़ी प्रेरणा होती है . विचार तो आते-जाते रहते हैं , लेकिन सौन्दर्यबोध अंगुली पकड़ कर  साथ लिए चलता है .

 ‘एक साहित्यिक की डायरी ‘ में संकलित निबन्धों में नई कविता के दायरे में अज्ञेय द्वारा प्रस्तावित नई सौन्दर्य दृष्टि के साथ एक गहरी बहस की गई है . यह बहस वाद-विवाद के रूप में नहीं की गई है . यह एक आत्मीय आंतरिक बातचीत है . इन निबंधों की शैली किसी घनिष्ठ मित्र के साथ बातचीत की डायरी जैसी है .

 बातचीत को डायरी के रूप में दर्ज करने का लाभ यह है कि वाचक को अपने साथ बात करने का अवसर भी मिल जाता है . असल में डायरी में संवाद कम से कम तीन स्तरों पर चलता है . पहले तो वाचक और उसके मित्र का . दूसरे वाचक का संवाद स्वयं अपने साथ . और तीसरे पाठक के साथ . मुक्तिबोध ने इस शैली की खोज सौन्दर्य सम्बन्धी प्रचलित अवधारणाओं के सभी पहलुओं की गहरी जांच-पड़ताल करने के लिए की है .

 एक विशेष अवधारणा किस तरह जनम लेती है , किस भूमिका का निर्वाह करती है और अपने समय को किस तरह प्रभावित करती है , इन सब की बारीक़ खोज-बीन मुक्तिबोध करते हैं . ख़ास बात यह कि इस त्रिस्तरीय संवाद में केवल तर्क –वितर्क नहीं है . दोस्ताना तफरीहें हैं. रोजमर्रे की ज़िन्दगी के मार्मिक अवलोकन और उन पर सोचती-समझती टिप्पणियाँ भी हैं. जीवन-जगत के दार्शनिक और राजनीतिक प्रश्नों से मुठभेड़ है . सांझे हैं , सुबहें हैं. कविता है .

 इन डायरियों को पढ़ते हुए पाठक को लगता है कि वो अपने समय को और अपने आप को पहचानने लगा है . वह इस संवाद में शरीक हो जाता है . वो अपने आप से बहस करने लगता है , और अपने आप के जरिए जमाने से . इस प्रक्रिया में एक नए इंसान का जन्म होने लगता है . ‘नए की जन्मकुंडली’ शीर्षक से दो निबंध भी इस संग्रह में हैं . एक और दो के नाम से . 
नए इंसान का जन्म प्रचलित विचारों में छुपे हुए प्रतिक्रियावाद को पहचानकर होता है . स्थापित , सुसज्जित , सम्मानित विचारों में छुपे हुए छल और उसकी समूची ऐतिहासिक प्रक्रिया को समझ कर होता है .अपनी आलोचना में अन्यत्र भी मुक्तिबोध ने विस्तार से इन चर्चाओं को उठाया है . लेकिन संवाद-प्रतिसंवाद की इस शैली से इन अवधारणाओं का जितनी गहराई से परीक्षण हो सकता है , शायद वह दूसरे तरीके से मुमकिन नहीं है .

मुक्तिबोध अपने समय के ‘आधुनिकतावादी’ विचारों में छुपी ‘बानर-सत्ता” 5(5 – ‘डायरी’ , सं-1989, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन , पृष्ठ -42) को पहचान लेते हैं . वे उसे ‘लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता’ के रूप में परिभाषित भी करते हैं. वे फासीवाद . बहुसंख्यकवाद .अंधराष्ट्रवाद आदि की चर्चा नहीं करते . लेकिन समकालीन पाठक इस डायरी के जरिए सुंदरता की ‘आधुनिकतावादी’ और फासीवादी अवधारणाओं के बीच की निकटता को पहचान सकता है . 

आगे हम इस निकटता पर तनिक गहराई से विचार करेंगे . हमारा उद्देश्य हिंदी की आधुनिकतावादी काव्य-दृष्टि में निहित फासीवादी संभावनाओं के ख़िलाफ़ ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के संघर्ष को उद्घाटित करना है . हम यहीं स्पष्ट कर दें कि हम नई कविता के व्यक्तिवादी स्कूल की कविता और काव्य-चिन्तन को फ़ासिस्ट विचारधारा नहीं मानते . दोनों में बड़ा अंतर यह है कि नए कवियों के लिए स्वतन्त्रता एक ऐसा सबसे बड़ा मूल्य है , जिसके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता , जबकि एक फ़ासिस्ट के लिए स्वतन्त्रता का कोई मूल्य ही नहीं है . 

सौन्दर्य प्रतीति का सम्बन्ध सृजन –प्रक्रिया से है . सुंदरता के बारे में एक नज़रिया यह है कि यह कुछ गुणों , प्रतिमानों या मूल्यों पर निर्भर करती है . कोई वस्तु , दृश्य या रचना सुंदर हो सकती है , अगर वो इन प्रतिमानों पर खरी उतरे . इन प्रतिमानों का निरंतर विकास होता रहता है . अज्ञेय ने अपने निबंध ‘शिवत्व बोध और सौन्दर्य बोध’ में क्रमशः जटिल होते ऐसे मानकों की चर्चा की है – लय , वक्रता , स्थिरता, सन्तुलन; परिचित और नव्यता; गाम्भीर्य, सूचकता, सार्वभौमता .6
इसी निबंध में वे आधुनिकता के साथ साहित्यिक प्रतिमानों में आए विकास के कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं. आख्यान साहित्य घटना-वर्णन से घटना-हेतु की खोज की तरफ बढ़ा है . नैतिक निर्णय से समझ और सम्वेदना की ओर गया है . यह परिवर्तन , जिसे अज्ञेय संस्कार कहते हैं, आधुनिक मानवतावादी चेतना की देन है . इन प्रतिमानों पर नई समीक्षा की छाप स्पष्ट है . 

परिचित और नव्यता को परम्परा और मौलिकता के बराबर रखा जा सकता है . अज्ञेय ने इलियट के निबंध ‘परम्परा और व्यक्तिगत प्रतिभा का’ अनुलेखन ‘रूढ़िवाद और मौलिकता’ शीर्षक से किया था . गाम्भीर्य , सूचकता और सार्वभौमता आदि ‘नई समीक्षा’ द्वारा किए गए प्रचलित किए गए पद हैं. अज्ञेय यह भी मानते हैं कि सुंदरता के इन प्रतिमानों का अंतिम स्रोत मनुष्य का विवेक है , जो अनुभव पर आधारित और बुद्धि द्वारा परिमार्जित होता है . समय के साथ मनुष्य के नौभाव , बुद्धि और विवेक का विस्तार होता चलता है . इसे के साथ सुंदरता के प्रतिमान भी विकसित होते चलते हैं . लेकिन विकास पूर्ववर्ती मानकों का खंडन नहीं करता , उसमें नया जोड़ भर देता है . क्योंकि नया अनुभव पुराने को मिटा नहीं देता , केवल उसका एक नया संस्कार कर देता है . इसलिए सुंदरता के प्रतिमान शाश्वत भले ही न हों , लेकिन वे स्थायी जरूर होते हैं. 

अज्ञेय की दृष्टि में सुन्दरता के मूल्यों का नैतिक मूल्यों से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है. अगर ऐसा देखा जाता है कि सुंदर रचना नैतिक दृष्टि से भी उदात्त है, तो यह अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि सौन्दर्य बोध और नैतिक  बोध दोनों का स्रोत मनुष्य का अनुभव और उसका विवेक है.  लेकिन ऐसा होना एक संयोग मात्र है, क्योंकि सुंदर और शिव  जीवन के दो भिन्न आयाम हैं. ये दो अलग अलग चलने वाली खोजें हैं. एक दूसरी पर निर्भर नहीं  है. 

दरअसल कला से, अज्ञेय के शब्दों में,  'शिवेतर-क्षय'  की मांग करना एक अतिरिक्त मांग है. इतना ही नहीं, कला से असुंदर के क्षय या निषेध की मांग करना भी अनुचित है. सुन्दरता का विकास असुन्दर की पहचान या निषेध से नहीं होता , नए अनुभव और विवेक की प्रेरणा से सहज रूप से होता है. नैतिक बोध के  विकास के लिए भी अनैतिक की पहचान करने और उसके विरुद्ध संघर्ष चलाने की अनिवार्यता नहीं है. उसका विकास भी सुन्दरता की तरह  सहज रूप से होता है. द्वंद्व और संघर्ष की बात करना 'नाना  प्रकार के वाद' चलाना  है! इसका कला उर विवेक से कुछ लेना -देना नहीं . 

अज्ञेय ने लिखा है -'...  जो सुन्दर है वह अनैतिक नहीं होगा यह एक बात है, पर उससे शिवेतर-क्षय की माँग करना एक अतिरिक्त शक्ति या प्रभाव की माँग करना है।......
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विश्लेषण को चरम अवस्था तक ले जाएँ तो मानना होगा कि नैतिक मूल्य यानी शिवत्व के मूल्य, और सौन्दर्य के मूल्य अलग-अलग हैं और अलग विचार माँगते हैं। विशुद्ध तर्क के क्षेत्र में यह भी मान लेना होगा कि ऐसा हो सकता है कि कोई कलाकृति सुन्दर हो और अशिव हो, या कम से कम शिव न हो।....
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कृतिकार सुन्दर का स्रष्टा होकर असुन्दर के सायास परित्याग के द्वारा सुन्दर की उपलब्धि नहीं करता, उसी प्रकार वह नैतिक द्रष्टा होकर सायास अनैतिक के विरोध द्वारा नैतिक को नहीं पाता; उसकी परिपुष्ट संवेदना सहज भाव से दोनों को पाती है-और देती है। इसीलिए कला हमें आनन्द भी देती है, हमारा उन्नयन भी करती है। आज का समालोचक इस बात को नाना वादों के आवरण में छिपा चाहे सकता है, इसे अमान्य नहीं कर सकता।"7
(बल मेरा )

सौन्दर्य की इस अवधारणा की धुरी है संघर्ष का निषेध और मनुष्य के  'सहज विवेक' पर अप्रश्नेय आस्था. यही अज्ञेय का मानवतावाद है. मानवतावादी अज्ञेय व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के अथक आग्रही हैं.  लेकिन असुंदर और अशिव के विरुद्ध संघर्ष  की अनिवार्यता से रहित सौन्दर्य-दृष्टि स्वतंत्रता के विरुद्ध  भी जा सकती है, इस पर उनका ध्यान नहीं जाता. 

 मानवतावाद और फ़ासीवाद विपरीत वैचारिक ध्रुवों पर स्थित प्रतीत होते हैं . लेकिन दोनों विचारधाराएं मानवीय विवेक की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर आधारित हैं . ऐसे कयास लगाए जाते रहे हैं कि हिटलर की वैचारिक प्रेरणाओं में दार्शनिक नीत्शे की ‘अतिमानव ‘ जैसी कल्पनाएँ भी शामिल थीं .8 

अगर मानवीय विवेक इतना  सहज होता  तो उसके इतने रूप नहीं होते. शक्तिशाली सत्ता-सम्पन्न लोग हमेशा अपने ही विश्व बोध को मनुष्य  के सहज विवेक के रूप में स्थापित कर सकते है. वे अपने ही  हितों को सुन्दरता और नैतिकता के  सार्वभौम और सार्वकालिक  'मानवीय मूल्यों' के रूप में प्रतिष्ठित कर सकते हैं.   

मुक्तिबोध डायरी के पहले निबंध ‘तीसरा क्षण’ में सुंदरता की मूल्य-आधारित परिकल्पना का खंडन करते हैं. “मुझे गहरा संदेह है कि आजकल की सौन्दर्य परिभाषा केवल कविता , और वह भी आत्मपरक कविता , की विशेषताओं के आधार पर बनाई जा रही है . सौन्दर्य संबंधी इन व्याख्याओं का प्रकट या अप्रत्यक्ष उद्देश्य आज की काव्य-दृष्टि का डिफेन्स है ... किन्तु ये व्याख्याएं कुछ इस प्रकार से , कुछ इस ठाठ से और शान से बनाई जाती हैं मानो वे सार्वभौम सत्य की सार्वकालिक स्पन्दनाएं हों . इस पोज़ और पोश्चर की जरूरत नहीं . यह अवैज्ञानिक दृष्टि है .”9 

मूल्य- आधारित सौन्दर्य-बोध की जगह वे कला के तीन क्षणों के जरिए प्रक्रिया-आधारित सौन्दर्यबोध की सिफ़ारिश करते हैं. इनमें पहला क्षण अनुभव का , दूसरा अनुभव के वैयक्तिक अनुसंगों से मुक्त फैंटेसी में रूपांतरित होने का और तीसरा इस फैंटेसी की शब्द-बद्ध होने का क्षण है . यह अनुभव के विस्तार की प्रक्रिया है , जो लगातार चलती रहती है . अनुभव का वैयक्तिक अनुसंगों से मुक्त होना ही उसका फैंटेसी में बदल जाना है . फैंटेसी अनुभव की कन्या है , किन्तु उसका स्वतंत्र विकासशील व्यक्तित्व है . निजी दुख-ताप से छूटकर एक ख़ास अनुभव बहुत से दूसरे ( निजी और सामाजिक ) अनुभवों से जुडकर एक नई सघनता पा जाता है . भाषाबद्ध होने की प्रक्रिया में वह भाषा में संचित अनुभवों-आशयों से और अधिक समृद्ध होने लगता है . यों कविता फैंटेसी से जन्म लेती है , लेकिन अंततः अपने स्वतंत्र प्रवाह का निर्माण करती है . सुंदरता का अनुभव इस विस्तार और प्रवाह में है .

 यह निरंतर गतिमान प्रक्रिया मुक्तिबोध को छोटी कविताएँ नहीं लिखने देती .10 अनुभव का सौन्दर्यानुभव में बदलना एक सृजनात्मक प्रक्रिया है . इसलिए सौन्दर्यानुभव की जांच केवल रचना प्रक्रिया के आधार पर की जा सकती है , किन्ही स्थायी या शाश्वत मूल्यों के आधार पर नहीं . अनुभव का सौन्दर्यानुभव में बदलना वैयक्तिक अनुभव का प्रातिनिधिक अनुभव में बदलना भी है . मुक्तिबोध ‘प्रातिनिधिक’ शब्द का प्रयोग करते हैं , सार्वभौम या सार्वकालिक नहीं . प्रातिनिधिक एक से अधिक का होता है , सबका नहीं . यह प्रातिनिधिकता आती है “दृष्टि की स्थिति-मुक्त वैयक्तिकता और सम्वेदना की स्थिति–बद्ध वैयक्तिकता के समन्वय” से . 11 “भोक्त्रित्व और दर्शकत्व का द्वंद्व एक समन्वय में लीन होकर एक दूसरे के गुणों का आदान –प्रदान करता हुआ सृजन-प्रक्रिया आगे बढ़ा देता है .”12 

मुक्तिबोध की सौन्दर्य दृष्टि द्वन्द्वात्मक और गतिशील है , जबकि अज्ञेय की द्वंद्वरहित और स्थायित्वकामी ! अपने कालजयी उपन्यास ‘ शेखर :एक जीवनी ‘ की भूमिका में लिखते हैं – “यह बात हिन्दी के कम लेखक समझते या मानते हैं कि कल्पना और अनुभूति-सामर्थ्य (sensibility) के सहारे दूसरे के घटित में प्रवेश कर सकना, और वैसा करते समय आत्म-घटित की पूर्व-धारणाओं और संस्कारों को स्थगित कर सकना- objective हो सकना-ही लेखक की शक्ति का प्रमाण है। इसके विपरीत लेखको में ऐसे अनेक मिल जाएँगे, जो ऐसी अनुभूति ......को परकीय, सेकण्ड-हैण्ड, अतएव घटिया और असत्य कहेंगे।
 ऐसे व्यक्तियों के लिए टी.एस. इलियट की उस उक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा, जो वास्तव में इसका एकमात्र उत्तर है : There is always a separation between the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the greater the separation. (भोगनेवाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार में सदा एक अन्तर रहता है, और जितना बड़ा कलाकार होता है, उतना ही भारी यह अन्तर होता है।)” 13 

मुक्तिबोध भोक्तृत्व और दर्शकत्व के बीच द्वन्द्वात्मक समन्वय करते हैं , जबकि इलियट के हवाले से अज्ञेय दोनों को एकदम अलग कर देना चाहते हैं. उनके लेखे अंतर जितना भारी हो , कला की दृष्टि से उतना ही अच्छा होगा . यह अलगाव कला को शुद्ध बौद्धिक व्यापार बना देता है . कला जितनी बौद्धिक होगी , उसका नैतिक निर्णय उतना ही प्रखर होगा . शेखर में , अज्ञेय स्वयं कहते हैं , यह ‘महान आदर्श’ निभ नहीं पाता. शेखर के लेखक की यह ‘विफलता’ ही उपन्यास की श्रेष्ठता का बीज बन जाती है !

 ‘द्वंद्वात्मक समन्वय’ वदतोव्याघात लग सकता है , लेकिन है नहीं . ‘तीसरा क्षण’ में केशव कहता है –“ केवल तटस्थ व्यक्ति ही तदाकार हो सकता है , समझे ?” 14
 भोक्तृत्व और दर्शकत्व के द्वन्द्वात्मक समन्वय के बिना निजी अनुभव प्रातिनिधिक अनुभव में रूपांतरित नहीं हो सकता . यहाँ एक उदाहरण लिया जा सकता है . चाँद सुंदर लगता है , लेकिन उसे उसके तमाम सांस्कृतिक सन्दर्भों से काट कर देखा जाए तो वह एक चमकदार धब्बा भर रह जाएगा . दूसरी तरफ , अगर वो सबको एक ही जैसा दिखाई दे तो ऊब पैदा करेगा . चाँद को औरों की आँखों से देखते हुए अपनी भी आँखों से देखना एक नए अदेखे चाँद को देखना है . यह सृजन प्रक्रिया ही सौन्दर्यानुभव है . 

बुद्धिजीवी को जनता से अलग करना प्रतिक्रियावाद है . मूल्य आधारित सौन्दर्यदृष्टि कलाकर्म के प्रति कुलीनतावादी नजरिए में प्रतिफलित होती है . सुंदरता का निर्णय करने के लिए जैसे ही कुछ प्रतिमान या मूल्य तय किए जाते हैं , वैसे ही दुनिया सुंदर और असुन्दर के बीच बंट जाती है . 
कुछ चीजें सुंदर मान ली जाती हैं और बाक़ी असुन्दर . 
इसी तरह समाज में कुछ लोग प्रतिभाशाली होते हैं , कवि-कलाकार होते हैं. शेष जनता - जन साधारण -भीड़ है . कवि-कलाकार नदी का द्वीप है . उसके व्यक्तित्व की मौलिकता और स्वतन्त्रता ही उसे कलाकार बनाती है . जनता नदी की धारा है . धारा में बहती बूंदों का अपना कोई वज़ूद नहीं . 

अपनी प्रसिद्ध कविता ‘ नदी के द्वीप ‘ 15 में अज्ञेय यह तो मानते हैं कि धारा ने ही द्वीप को बनाया है और चाहे तो मिटा भी सकती है , लेकिन फिर भी सबसे अहम बात यह है कि द्वीप द्वीप है , धारा नहीं है ! कुलीनातावादी नज़रिए के लिए यह मानना जरूरी है कि असाधारण कार्य करनेवाले नायक अपनी असाधारण क्षमता किसी आंतरिक प्रेरणा से प्राप्त करते हैं . उनका कर्तृत्व किसी सामाजिक कारक से प्रेरित नहीं होता . 

‘शेखर’ में वाचक ने जन्मजात प्रतिभा के सिद्धांत पर बार- बार बल दिया है . क्रांतिकारी पैदा होते हैं , बनाए नहीं जाते . अज्ञेय मानते हैं कि इस आंतरिक कर्तृत्व को उद्घाटित करने की प्रवृति आधुनिक ‘मानवतावादी’ आख्यान -साहित्य की प्रमुख विशेषता है . पुराना साहित्य नैतिक दृष्टि से नियतिबद्ध था . पात्र प्रायः अच्छे और बुरे में बंटे होते थे , जिन्हें अपनी पूर्व-निर्धारित भूमिकाओं का निर्वाह करना होता था . आधुनिक पात्र अपनी आंतरिक प्रेरणा से परिचालित होते हैं , इसलिए उन्हें किसी नैतिक खाँचें में फिट नहीं किया जा सकता . 

अज्ञेय इस मानवतावादी नज़रिए के बरक्श आधुनिक साहित्य की एक ख़ास प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं , जो उनके लेखे आंतरिक कर्तृत्व के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करती और मनुष्य को उसकी परिस्थितियों द्वारा संचालित मानती है . लिखते हैं –“ यह प्रवृत्ति कर्म-प्रेरणाओं की पड़ताल को प्रवंचना कहती है, क्योंकि वह कर्ता के कर्तृत्व को, भावना और अनुभूति की प्राथमिकता को अस्वीकार करती है। जिसे हम आभ्यन्तर कारण कहते हैं उसे वह स्थितिजन्य परिणाम मानती है। एक प्रकार से वह साहित्य की अब तक की प्रवृत्ति को उलट रही है: जहाँ अब तक साहित्य मानव को बँधी-बँधाई नैतिक लीकें से उबार कर कत्र्ता का गौरवपूर्ण पद देने की ओर प्रवृत्त था, वहाँ यह नई प्रवृत्ति फिर से बँधी-बँधाई लीकों लेकर उसमें मानव को डालने का उपक्रम कर रही है।“ 16 

अज्ञेय इस नज़रिए को द्वन्द्वात्मक , अवसरसेवी और विवेक की जगह तर्क को प्रतिष्ठित करनेवाला नज़रिया भी करार देते हैं . नाम वे नहीं लेते , लेकिन स्पष्ट है कि उनका इशारा मार्क्सवादी दृष्टिकोण की तरफ़ है . मानवतावाद और मार्क्सवाद की उनकी इन व्याख्याओं में निहित सरलीकरण और भ्रम के विश्लेषण में न जाते हुए भी यह देखना कठिन नहीं है कि कुल मिलाकर यह एक कुलीनतावादी दृष्टिकोण है . आखिर यह कर्मप्रेरक क्रांतिकारी आंतरिक प्रेरणा गिने चुने लोगों को ही नसीब हो सकती है .

 यों कविता में कठोर निर्वैयक्तिकता और दर्शन में घोर व्यक्तिवाद का सह-अस्तित्व कायम हो जाता है . यह स्वाभाविक भी है . नितांत निर्वैयक्तिक होने के लिए विशुद्ध बुद्धिवादी होना जरूरी है , जिसकी अंतिम परिणति व्यक्तिवाद में ही हो सकती है . 

आधुनिकतावादी काव्य-सिद्धान्त से प्रभावित नयी कविता में निहित इस कुलीनतावाद का डायरी में अनेक बार खंडन किया गया है . मुक्तिबोध बार बार दुहराते हैं कि यह एक प्रतिक्रियावादी नज़रिया है . “अपने अंतिम निष्कर्ष में यह विचारधारा अत्यंत प्रतिक्रियावादी है , वह जन के प्रति घृणा पर आधारित है , और बुद्धिजीवियों को जनता से अलग करके रखने का एक उपाय है . ...सब नए कवि जनता को घृणा नहीं करते हैं . लेकिन कुछ ऐसे हैं जो इस प्रतिक्रियावादी विचारधारा को अपनाते हैं. “ 17 

बकौल मुक्तिबोध यह विचारधारा पश्चिमी साम्राज्यवाद की देन है . यह विचारधारा प्रतिक्रियावादी इसलिए है कि यह आर्थिक –राजनीतिक सत्ता पर एक छोटे कुलीन तबके के कब्ज़े को तर्कसंगत ठहराती है . यह सत्ता में साधारण जन की हिस्सेदारी की लोकतांत्रिक मांग के विरुद्ध कुलीन वर्ग की प्रतिक्रिया है . मध्यवर्ग के महत्वाकांक्षी लेखक सत्ता-केंद्र के करीबतर होने के लालच में इस विचारधारा के शिकार हो कर अपनों से दूर हो जाते हैं. “ उन अपनों के जीवन की बदरंग सूरतें उनमें, उनके विरुद्ध , एक तड़पती हुई प्रतिक्रिया पैदा कर देती हैं. उन अपनों से हट कर वे अपने स्वामियों या उच्च सत्ताधारियों या लाभदायक प्रभाव सम्पन्न व्यक्तियों की खुशामद करने में एक दूसरे की होड़ करने लगते हैं .” 18 

प्रक्रिया-आधारित सौन्दर्य दृष्टि कुलीनातावाद की धज्जियां उड़ाती है . कला के दूसरे क्षण में फैंटेसी का निर्माण सम्वेदना की स्थितिबद्ध वैयक्तिकता का दृष्टि की स्थितिमुक्त वैयक्तिकता से समन्वय का प्रतिफल है . तीसरे क्षण में भाषा एक सामाजिक शक्ति के रूप में हस्तक्षेप करती है . स्थितिमुक्त दृष्टि और भाषा में निहित सामाजिकता के संयोग से व्यक्तिगत सम्वेदना एक नए रूप में ढल कर प्रातिनिधिक हो उठती है . 

सुंदरता इस प्रक्रिया से उत्पन्न होती है . वह किन्ही प्रतिमानों की मदद से खोज लिए जाने के इंतज़ार में पहले-से किसी व्यक्ति , वस्तु या विचार में मौजूद नहीं होती . अगर पहले से मौज़ूद हो तो इससे कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे ईश्वर में खोजा जाता है या राजा में , नायिका में ढूंढा जाता है या प्रकृति में , काव्य में तलाशा जाता है या राष्ट्र में ! मूल्य-आधारित सौन्दर्य दृष्टि फासीवाद के अनुकूल जमीन मुहैया करा सकती है , जबकि प्रक्रिया आधारित दृष्टि हमेशा उसके प्रतिकूल सिद्ध होगी . 

अनुभूत सत्य का जितना अनादर आज है , उतना पहले कभी नहीं था . मुक्तिबोध कहते हैं –“ असलियत यह है कि सौन्दर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशील कल्पना के सहारे संवेदित अनुभव ही का विस्तार हो जाए .” 19

 सौन्दर्यानुभव के लिए सृजनशीलता ही काफी नहीं है . सृजन की सार्थकता संवेदित अनुभव के विस्तार में है . फैंटेसी कल्पना की दिशाहीन उड़ान नहीं है . अनुभव के विस्तार का आशय है निजी अनुभव के वेग से वृहत्तर , व्यापकतर और गहनतर सामाजिक सत्य तक पहुँचने का यत्न . मुक्तिबोध के लेखे नए लेखक की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह अपने ही अनुभव को व्यक्त करने से बचता है . 

विस्तार देने की जगह उसे सेंसर कर देता है . ऐसा वह क्यों करता है ? यहाँ सौन्दर्य-प्रक्रिया में सत्ता की दखलन्दाजी सामने आती है . “बड़े-बड़े आदर्शवादी आज रावण के यहाँ पानी भरते हैं, और हाँ में हाँ मिलाते हैं....और रावण के राज्य का एक मूल नियम यह है कि जो अपना अनुभूत वास्तव है , उस पर पर्दा डालो. इसलिए हमारे बहुत से कवि और कथाकार , मारे डर के , उस वास्तव को नहीं लिखते हैं , जिसे ये भोग रहे हैं ...अनुभूत वास्तव का जितना अनादर आज है उतना पहले कभी नहीं था .’’ 20 

सत्ता जिस लालच और भय को जन्म देती है , उसका सबसे आसान शिकार उच्चतर वर्ग होता है . “ उच्चतर वर्ग अधिक जड़ और प्रतिगामी हो गया है . वह इस समय साहित्य में ऐसे विचारों का प्रचार करना चाहता है जिनके द्वारा हमारा साहित्यिक व्यक्ति अनुभूत वास्तवों की पाशविकता और मानवीयता पर पर्दा डाल दे , और वह जनता की ओर उन्मुख न हो ..............’’ 21 

अनुभूत वास्तविकता जटिल होती है . उसमें मानवीय मार्मिकता और पाशविक निर्ममता एक साथ पाई जाती है . मुक्तिबोध ने पाशविक शब्द का प्रयोग प्रचलित अर्थ में किया है , हालांकि कहना कठिन है कि मनुष्य और पशु में अधिक निर्मम कौन है ! मूल्य-आधारित सौन्दर्य-सिद्धांत सत्ता का सिद्धांत है . मूल्यों का निर्धारण सत्ताएँ करती हैं. इन मूल्यों को प्रचलित करने के लिए वे भय और लालच की शक्ति का इस्तेमाल करती हैं. सृजन –प्रक्रिया आधारित सिद्धांत सत्ता को चुनौती देता है . संवेदित अनुभव के विस्तार के लिए वह हर कदम पर सत्ता का मुक़ाबला करता है. 

 डायरी में एक बड़ी बहस ‘कलाकार की ईमानदारी’ की अवधारणा के बारे में है . यह नई कविता के प्रवक्ताओं की प्रिय अवधारणा थी. अज्ञेय ने ‘आत्मनेपद’ और ‘त्रिशंकु’ में ‘स्वानुभूत’ लिखने का आग्रह किया है . वे मानते हैं कि अनुभूति की प्रामाणिकता कम लिखवाएगी , लेकिन गलत नहीं लिखवाएगी . डायरी में मुक्तिबोध का सवाल है कि क्या ईमानदारी को स्वानुभूत तक सीमित किया जा सकता है .

 “ व्यक्तिगत ईमानदारी का नारा देने वाले लोग असल में भाव या विचार के सिर्फ सब्जेक्टिव पहलू- केवल आत्मगत पक्ष - के चित्रण को ही देकर उसे ‘भाव-सत्य’ या ‘आत्म-सत्य’ की उपाधि देते हैं. किन्तु भाव या विचार का एक ऑब्जेक्टिव पहलू अर्थात् वस्तुपरक पक्ष भी होता है . आजकल लेखन में आत्मपरक पक्ष को महत्व देकर वस्तुपरक पक्ष की उपेक्षा की जाती है .” 22

 मध्यकालीन हिंदी कविता में वस्तु-वर्णन की प्रधानता रही . छायावादी कविता में आत्माभिव्यक्ति पर बल दिया गया . मुक्तिबोध का आग्रह है कि नई कविता में आत्मपरक और वस्तुपरक का समन्वय होना चाहिए . कला के तीन सर्जनात्मक क्षणों में यही प्रक्रिया घटित होती है . लेकिन यह अनायास नहीं होगा . इसके लिए कवि को दो तरह की आयास करने होंगे .

 पहला यह कि वस्तुजगत का अधिक से अधिक ज्ञान हासिल करने की चेष्टा होगी और इस ज्ञान के आधार पर अपनी विश्व-दृष्टि को निरंतर विकसित करने का यत्न करना होगा . डायरी याद दिलाती है कि “ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खडी है .यदि ज्ञान और बोध की बुनियाद गलत हुई तो भावना की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी .उसका असर काव्य शिल्प पर भी होगा .” (‘ कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी – एक ‘)

 आज भावना की ऐसी कितनी ही बेडौल इमारतें चारो तरफ खडी हैं. कहीं धर्म की इमारत है , कहीं देशभक्ति की , कहीं परम्परा और संस्कृति की . इन बेडौल डरावनी इमारतों की पीछे एक ही सौन्दर्य-सिद्धांत है , मूल्य-आधारित सिद्धांत . यह सिद्धांत भले ही विवेक को अंतिम कसौटी घोषित करता हो , लेकिन यह नहीं बताता कि इस विवेक के तत्व क्या होंगे , इसके विकास की प्रक्रिया क्या होगी . क्या कोई प्रदत्त विवेक होता है ?

प्रक्रिया के अभाव विवेक किसी विशिष्ट नैतिक अभिरुचि की तानाशाही के सिवा और कुछ नहीं है . कवि-लेखक का दूसरा संघर्ष अभिरुचि के परिष्कार का है .उसे अपनी ही अभिरुचि द्वारा निर्मित अपने अंतर्निषेधों को सुधारना होगा . यह अंपनी ही अभिरुचि की दायरे को पार करने का कठिन संघर्ष है . लेखक जिसे अपनी अभिरुचि समझता है उसके द्वारा सेंसर की गई अनुभूतियों को ही स्वानुभूत सत्य मान लेता है . लेकिन यह अभिरुचि प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः सत्ता-निर्मित हो सकती है . लेखक अपने तईं प्रामाणिक लिख रहा होता है , लेकिन अभिरुचि उसे फ्रॉड में बदल देती है .

 लेखकीय ईमानदारी कोई स्वतः सुलभ वस्तु नहीं है . ईमानदारी मेहनत से कमानी पडती है .लेखक को अधिक से अधिक ईमानदार होने का संघर्ष करना पड़ता है . यह एक निरंतर संघर्ष है . किसी दिए गए क्षण में ईमानदारी और बेईमानी के दो उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक को चुन लेने जैसा आसान काम नहीं है . और अधिक ईमानदारी , और बड़ी सच्चाई के लिए किया जानेवाला कठिन संघर्ष है .

 विवेक की तरह सत्य भी प्रदत्त , परिभाषित , निर्धारित और सनातन नहीं होता . सौन्दर्य की तरह सत्य भी एक सृजनात्मक प्रक्रिया है . कहने का आशय ये नहीं कि सत्य एकदम अनिर्धारणीय और अनिश्चित होता हो . अगर ऐसा होता तो वृहत्तर सत्य तक पहुँचने का कोई रास्ता ही न होता . अगर सत्य ही कुछ नहीं , तो वृहत्तर सत्य कैसा ? वृहत्तर सत्य की खोज के लिए सत्य में आस्था जरूरी है .

 लेकिन यह भी जरूरी है कि जाने हुए सत्य पर निरंतर संदेह किया जाए . पहचाना जाए कि मनुष्य की ज्ञान शक्ति की भी सीमाएं हैं. डायरी कहती है ,”हमें ज्ञान शक्ति की सीमाओं का गहरे से गहरा ज्ञान चाहिए , जिससे कि ग़लतियाँ टाल सकें , अपने कार्यों को अधिक फलप्रद बना सकें .” 23 असीम संदेहरहित ज्ञान या तो अपौरुषेय होता है या फ़ासिस्ट .

 सन्दर्भ 

1(हाशिए पर कुछ नोट्स , ‘एक साहित्यिक की डायरी ‘)
2(‘ हाशिए पर कुछ नोट्स’, डायरी )
3- ‘द मेटाफिज़िकल पोएट्स’, इलियट , टी एस ; 1951)
4- ‘मास सिविलाइज़ेशन एंड माइनोरिटी कल्चर’ – लीविस , एफ आर ; 1930 )
5 – ‘डायरी’ , सं-1989)
6 –‘सौन्दर्यबोध और शिवत्वबोध’ ; अज्ञेय , सच्चिदानंद , हीरानंद वात्स्यायन ) 
 7 – वही )
8 - Nietzsche, Anti-Semitism, and the Holocaust (1997), Steven Aschheim ) .
9- डायरी , सं-89, पृष्ठ 13)
10 -‘एक लम्बी कविता का अंत’ , डायरी )
 11 – डायरी , सं-89 , पृष्ठ -21 )
12 - वही )
 13 भूमिका , शेखर:एक जीवनी , भाग -1
 14 ( डायरी , पृष्ठ -15 ) 
15 - अज्ञेय, ‘हरी घास पर क्षण भर’ )
 16 - (अज्ञेय , ‘सौन्दर्य बोध और शिवत्व बोध’)
 17-( ‘एक लम्बी कविता का अंत’ , डायरी )
 18-( वही ) 
19- ( ‘तीसरा क्षण’ , डायरी ) 
20- वही 
21 - ( ‘एक लम्बी कविता का अंत ‘ , डायरी )
 22 ( ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी –एक’ , डायरी ) .
 23( कटुयान और काव्य सत्य‘, डायरी ).

Friday, November 12, 2021

मुक्तिबोध की कविताएँ: 'कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या?'





                                                                                                                      तड़िन्मय वायलिन  
                                            

जैसे- जैसे समय बीतता जाता है, मुक्तिबोध की कवितायेँ और अधिक समकालीन होती जाती हैं . यह गुण मुक्तिबोध को हिंदी  के दूसरे बड़े कवियों से अलग करता है. और कवियों को प्रासंगिक बने रहने के लिए पुनर्पाठ की जरूरत पड़ती  है. मुक्तिबोध के साथ ऐसा लगता है, जैसे उनका पहला ही पाठ निरंतर जारी है. कुछ उसी तरह, जैसे मुक्तिबोध को लगता था कि उनकी कविताओं की रचना  एक लगातार  जारी रहने वाली प्रक्रिया है.

मुक्तिबोध की कविताओं के इस गुण का कारण  उनका भविष्यदर्शी होना है।  भविष्यदृष्टि इतिहासदृष्टि की कोख में जन्म लेती है। भविष्य वही देख  सकता है , जिसे इतिहास की गहरी पहचान हो।  जो इतिहास की चाल समझता हो।   इतिहास के साथ जीवित संवाद करने वाली कवितायेँ  हमेशा सजीव बनी रहती हैं।  
'उस दिन ' [१]कुछ कम चर्चित कविता है।  लेकिन मुक्तिबोध की कविताओं की भविष्य दृष्टि को समझने के लिहाज से बेजोड़ है।  यह  कविता  पर्सिपोलिस की महान लाइब्रेरी के सिकंदर  द्वारा जलाए  जाने की घटना का संदर्भ लेती है. यह घटना 330 ईसवी पूर्व घटित हुई थी. कहा जाता है कि  पर्सिपोलिस के  दहन के पीछे एक सदी पहले  एथेंस के एक्रोपोलिस (सर्वोच्च धामिक केंद्र ) के फारसियों द्वारा किये गए विनाश का बदला लेने की भावना थी. 

…… 
इतने में अँधेरे भीतरी घर से 
निकल कर काल पीड़ित सत्य (ऊंचा क़द , 
जमाकर नाक पर टूटा हुआ चश्मा , 
दिखा अखबार ) कहता है 
सुना  तुमने !!
धधकती जा रही है ग्रंथशाला  भी 
हमारे पर्सिपोलिस  की !!
कहाँ फ्रामरोज़ ( पण्डितराज )
केटायून (कवयित्री )
कहाँ बहराम ( संपादक )
कहाँ रुस्तम 
उन्होंने सिर्फ नालिश की 

अरे रे , सिर्फ़  नालिश की  अंधेरी उस अदालत में 
जहां मुंशी और मुंसिफ पी रहे थे 
लुटेरे के अर्दली के साथ 
रम , शैम्पेन , ह्विस्की --जब 
उड़ेले जा रहे थे खून कैरोसीन के पीपे 
लगाई जा रही थी सींक माचिस की 
कहाँ थे तुम 

कहाँ थे तुम 
कि जब दस मंजिलों , दस गुंबदों वाली 
सुलगती जा रही थी लायब्रेरी पर्सिपोलिस की 
हमारे गहन जीवन-ज्ञान 
 मानव -मूल्य के उस एक्रोपोलिस की !!

लाइब्रेरी का जलाया जाना जीवन -ज्ञान और मानव -मूल्य की विरासत को नष्ट करना है।  सदियों की प्रगति को मटियामेट कर मनुष्यता को पीछे धकेलने की कोशिश करना है।  यही कारण है कि  सदियों बाद भी पर्सिपोलिस की  घटना मनुष्यता की स्मृति में एक असहनीय घृणित अपराध की तरह दर्ज़ है। बदले की भावना इस तरह के अपराध को औचित्य प्रदान नहीं कर सकती।  भारत में पिछले कुछ दशकों में  ऐसी  बहुत सारी घटनाएं घटी हैं , जिन्हें  पर्सिपोलिस के समतुल्य कहा जा सकता है।  देश ने आपातकाल देखा और विशेष  कानूनों की शक्ल में अघोषित आपातकाल से भी रू- ब- रू हुआ. एम  एफ  हुसैन , यू   आर  अनंतमूर्ति , गिरीश कर्नाड , अरुंधति राय , पेरुमल मुरुगन और शीतल साठे  जैसे कितने ही कलाकारों और लेखकों के खिलाफ नफरत और हिंसा की मुहिम चलाई गयी ।  हुसैन को अपने जीवन के उत्तरकाल में देश छोड़ कर जाने के लिए मजबूर किया गया।  मुरुगन इतने मजबूर हुए कि उन्होंने अपनी लेखकीय मृत्यु की घोषणा कर दी. अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ जब  ऐसी  मुहिम चलाई जाती है , और नालिशों -शिकायतों के सिवा  कोई  प्रभावशाली प्रतिरोध सम्भव नहीं हो पाता , तब लेखकों -कलाकारों की बड़ी संख्या  अपने आप को सत्ता के अनुकूल बनाने में जुट जाती है।  सेल्फ -सेंसरशिप काम करने  लगती है . जीवन ज्ञान और मानव मूल्य के विध्वंस का एक रूप यह है।  

दूसरा रूप है - पाठ्यक्रम और शिक्षा के ढाँचे में बदलाव। शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य के रूप में नैतिक शिक्षा पर जोर देना , नैतिक  शिक्षा को  भी बुनियादपरस्त और रूढ़िवादी ढंग से परिभाषित करना , आधुनिक ज्ञान विज्ञान के ऊपर मिथकों और धर्मशास्त्रों को महत्व देना , श्रेष्ठ अकादमिक संस्थानों की कमान  वफादारी के आधार पर नाकाबिल लोगों के हाथों में दे देना।  ये सारी घटनाएं  ज्ञान- निर्माण की संस्थाओं और  शोध के  वातावरण को नष्ट करती हैं।  यह सब कुछ होता  रहा है , लेकिन बौद्धिक नेतृत्व उसके मुकाबले की रणनीति बनाने में असफल रहा।  उसका विरोध  नालिशों और अपीलों तक महदूद रहा।  उत्तरोत्तर बिगड़ती जाती इस परिस्थिति में मुक्तिबोध की कविता अधिकाधिक  प्रासंगिक होती जान पड़े तो हैरानी क्या !

लेकिन तब के पर्सिपोलिस और आज के भारत में बड़ा अंतर यह है कि  वहां विनाश मचाने वाले विदेशी आक्रमणकारी थे , जबकि यहां अपने ही  लोग हैं।  यह कविता सन  तिरेसठ में लिखी गयी थी।  कुछ ही महीने पहले भारत चीन युद्ध होकर चुका था , जिसमें भारतीय पक्ष को अपमानजनक  स्थिति का सामना करना पड़ा था. ऐसे समय में ' हमारे बीच के किसी नव साम्राज्यवादी  ' की कल्पना करना आसान न रहा होगा। यानी कविता के अगले अंश से २०१४-१५ का पाठक जितनी आसानी से जुड़ सकता है , उस तरह उस जमाने के पाठक का जुड़ पाना  नामुमकिन लगता है।  ख़ास तौर पर इसलिए , कि आज हम एक के बाद एक सरकारों को देश में  नए वैश्विक साम्राज्यवाद के अनुकूल नीतियां लागू करते देखते हैं। साथ ही , कमजोर पड़ोसियों के बीच भारत को लोकल  सुपरपावर के रूप में स्थापित करने के सपने बेचते भी. 


….... 
 क्षितिज पर पोत  डामर जब , 
गुलाबों , सूर्यमुखियों , पारिजातों पर 
छिड़क कर स्याह , गाढ़ा , कोलतारी द्रव 
हमीं में से विदेशी -सा 
हमारे बीच का ही एक 
नव -साम्राज्यवादी.… 
लोभ के आवेश में आकर 
उजाड़े जा रहा है 
ज़िंदगी की बस्तियां 
पददलित मानव मूल्य 
हैं आक्रांत आत्माएं 
तुम्हे क्या चाहिए 
पिस्तौल या वायलिन !!

पिस्तौल  या वायलिन की बहस स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत है।  हिंसा और अहिंसा की बहस स्वतंत्रता के बाद क्रांति  और कला की बहस बन गई है। कविता इस बहस में एक पक्ष चुनने की जगह उसकी  प्रासंगिकता पर  सवाल खड़े करती है।  

....... 
" मूर्खों , तुम्हारे हाथ में दुर्भाग्य या सौभाग्य से 
पिस्तौल या वायलिन। .... 
अथवा अन्य  कोई अस्त्र आ भी जाए 
वह छूंछा खिलौना ही रहेगा , क्योंकि 
तुम में हैं कहाँ जनगुण। .... 
सहज व्यक्तित्व का ही वह समर्पणशील भोला भाव 

जो इस ज़िंदगी की धमन भट्टी में परीक्षित हो 
बने इस्पात !!.... 

 बौद्धिकों की बहस अप्रासंगिक इसलिए है कि यह  निरी अकादमिक बहस है।  इस्पात की तरह ठोस बनने के लिए उसे ज़िंदगी की धमन भट्टी से गुजरना चाहिए।  लेकिन जनता से दूर हो चुका बुद्धिजीवी न तो इतना भोला है , न समर्पणशील कि  वह  धमन भट्टी से गुजरना मंजूर करे। 
लेकिन मुक्तिबोध की कविता भविष्य  के भविष्य तक झाँक सकती है। 

…… 
कोई कर रहा होगा 
ऐसा अस्त्र आविष्कार निस्संदेह 
जिसके तड़िन्मय परमाणुओं में से 
मधुर आत्मीय कोई वायलिन स्वर और 
उसकी हर लहर में से 
उभरता एक ज्ञानावेश दीपित स्वप्न 

मुक्तिबोध की तमाम कविताऐं  गवाह हैं कि वे  सचमुच एक ऐसे तड़िन्मय अस्त्र की तलाश में थे , जिस से वायलिन के स्वर निकलते हों।  ज़िंदगी की बस्तियां उजाड़ने वाली व्यवस्था शांतिपूर्ण तरीकों से नहीं बदली जा सकती।  हथियारों की  आलोचना का मुकाबला आलोचना के हथियारों से नहीं किया जा सकता , इसे समझने के लिए कार्ल मार्क्स होने की जरूरत नहीं है।  हिंसा और पशुबल पर आधारित तंत्र को नितांत अहिंसक तरीकों से छिन्न- भिन्न नहीं किया जा सकता।  लेकिन संदेह नहीं कि ऐसे  परिवर्तनकारी अस्त्र की मूल प्रकृति मधुर  और आत्मीयता -व्यंजक होगी।  आखिर वह व्यवस्था में अन्तर्निहित उत्पीड़न और आतंक के  अंत का उपकरण होगा।

ध्यान  से सुनें  तो मुक्तिबोध की कविता ऐसी ही   तड़िन्मय वायलिन है.  उसमें एक ओर तो बदलाव के लिए कठिन वैचारिक संघर्ष करने का माद्दा है तो दूसरी ओर संवेदना के गहनतम धरातलों तक पहुँचने की ज़िद। एक ओर  ज्ञानात्मक संवेदन है , दूसरी ओर संवेदनात्मक ज्ञान।  एक ओर आक्रोश और संकल्प है तो दूसरी ओर  जीवन ज्ञान और मानव मूल्य।  एक ओर सभ्यता- समीक्षा है तो दूसरी ओर आत्म - आलोचन।  एक ओर समाज और समय है तो दूसरी ओर व्यक्ति और परिवार।  एक ओर वह  राजनीतिक है , दूसरी ओर  एकांतिक। एक  ओर  इतिहास है , दूसरी  ओर  भविष्य। एक ओर यथार्थ है , दूसरी ओर  फैंटेसी। एक ओर  जीवन है , दूसरी ओर  कला।  वह एक ओर  से तड़िन्मय है और दूसरी ओर  से संगीतमय। 
एक ओर प्रगतिवाद है , दूसरी ओर  नई कविता।  
ये दोनों ओर  अलग अलग नहीं , अकेले नहीं . एक दूसरे से जुड़े हुए , एक दूसरे पर  निर्भर हैं ।  उनके बीच की  द्वन्दात्मक एकता  ही मुक्तिबोध की कविता का मार्क्सवाद है।  यह उनकी कविता का मूल स्वभाव है , अंतःप्रकृति है।  मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी भविष्यदृष्टि के बिना न उनकी कविता संभव है , न उस कविता का आशंसन।   उनकी कविता मार्क्सवाद से समस्याकुलित नहीं है। जैसा कि  कुँअर नारायण सोचते हैं।[२] और  न वह 'मार्क्सवाद के बावज़ूद ' कविता है।  जैसा कि  निर्मल वर्मा[३] और अशोक वाजपेयी[४]  को लगता है। 

उनकी समस्त रचनाशीलता के पीछे केन्द्रीय चिंता है - आधुनिकता की भारतीय परियोजना की ऐतिहासिक विफलता । इस विफलता में भारतीय बौद्धिक की भूमिका। वह भूमिका , जो 'रक्तपायी वर्ग' अर्थात स्वामी वर्ग के साथ उसकी नाभिनालबद्धता से निर्धारित होती है। [५] 
इस विफलता का प्रतिकार उनकी कविता का बुनियादी 'सम्वेदनात्मक उद्देश्य ' है. यही कारण है कि बौद्धिक उद्यम और वैचारिक संघर्ष उनकी  कविता की असली जमीन है।  

ये सारी विशेषताएं ऊपर उद्धृत कविता ' उस दिन ' में अनायास लक्षित की जा सकती हैं।  


                                                                                                                      भूल- गलती 
                                     

भूल- गलती मुक्तिबोध की सब से लोकप्रिय कविताओं में है. इस कविता में एक मध्यकालीन सुल्तानी दरबार का चित्र है।  यह एक गतिशील बिम्ब है , जिसमें ' भूल -गलती ' तख़्त नशीन है।  जंजीरों में जकड़ा हुआ 'ईमान ' तख़्त के सामने पेश किया गया है।वह घायल है. उसके बदन पर जुल्म के  साफ़ निशान  हैं।   लेकिन जिन्हें बोलना चाहिए , जो बोल सकते थे , खामोश रहे।  
  
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार

हैं खामोश !!
'उस दिन ' कविता में फ्रामरोज़ , केटायून, बहराम और रुस्तम , जिहोने अंधेरी अदालतों में नालिश करने के सिवा कुछ न किया।  इस कविता में मनसबदारों और सिपहसालारों के  अलावा अल गज़ाली , इब्ने सिन्ना , अलबरूनी के साथ शाइर और सूफी भी हैं।   सभी कतार बांधे , सर झुकाए , हाथ बांधे 'बेजुबां बेबस सलाम' में खड़े हैं। 

भूल-ग़लती लोकप्रिय तो है , लेकिन इस पर आलोचकीय सम्वाद कम हुआ है।  सवाल है , आखिर यह किसकी भूल -गलती है , और क्या है।  रामविलास शर्मा इसे मानव- मन में पैठे शैतान के रूप में देखा है।[६] यह इतनी अनैतिहासिक व्याख्या  है कि  इसे गंभीरता नहीं लिया जा सकता। 
  कुछ लोगों का मानना है कि  इसमें नेहरू सरकार को निशाने पर लिया गया है।  कोई कहता है  विकास के 'पश्चिमी माडल '[७ ] के लिए उनके अनुराग के चलते तो कोई कहता है तेलंगाना जैसे क्रांतिकारी आंदोलनों के सैन्य दमन के उनके फैसलों के कारण [८ ] . 
कविता में नेहरू का ज़िक्र नहीं है।  कविता की रचना के समय को ध्यान में रख कर इसका संबंध नेहरू से जोड़ा जाता है।  
लेकिन क्लासिकी मेयार की कविताओं का कालबोध इतना तात्कालिक नहीं होता। वे इतिहास के एक बड़े फलक पर युग -परिवर्तन की आहटों को सुनने और समझने की कोशिश से बड़ी होती हैं। 
'भूल -गलती ' मुक्तिबोध की बहुत सारी कविताओं की तरह एक फैंटेसी है।  कामायनी के संदर्भ में फैंटेसी पर विचार करते हुए मुक्तिबोध ने दिखाया है कि  किसी गहन 'जीवन -समस्या' से प्रेरित 'दीर्घकालीन क्रिया -प्रतिक्रियाओं'  से निर्मित जीवन की एक ऐसी पुनर्रचना  है , जिसमें 'जीवन- आलोचनात्मक व्याख्यान के सूत्र' समाए होते हैं। [९  ]
यह जीवन समस्या जितनी निजी होती है , उतनी ही सार्वजनीन , लेकिन वह कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं होती।  
भूल -गलती की फैंटेसी  में मध्ययुग का वातावरण है।  इस कविता में अरबी -फारसी शब्दों का बाहुल्य है , जैसा मुक्तिबोध की किसी कविता में नहीं मिलता।  अरबी -फारसी भाषाएँ मध्य -युग के इस्लामी नव -जागरण की भाषाएँ हैं . अल गजाली , इब्ने -सिन्ना , अल बरूनी उस नव जागरण के बौद्धिक प्रतिनिधि हैं . लेकिन , जाहिर है , इस फैंटेसी में ये ऐतिहासिक चरित्र समाज की बौद्धिकता मात्र के प्रतिनिधि हैं . इस कविता में वे गुलामों की तरह हाथ बांधे सर झुकाए खड़े हैं . अपने समय में उनकी ऐसी स्थिति कभी भी नहीं थी. मध्य युग के वातावरण के बावजूद कविता 'हमारे ' समय की है।  यह  ' हमारी चेतना के रक्तप्लावित स्वर ' , 'मेरी -आपकी कमजोरियों' और ' हम सब कैद ' जैसे वाक्यांशों से स्पस्ट है. 

वह भूल -गलती भी हमारी ही है , जो जिरह -बख्तर पहन कर दिल के तख़्त पर बैठी है।  कैद कर लाया गया ईमान भी हमारा ही है।  और वह जो अजीब कराह - सा निकल कर भाग गया है , ताकि सचाई के लिए  लश्कर मुहैया कर सके , वह भी हमारी ही चेतना का कोई स्वर है। 'हम'कौन है ?  आधुनिक भारत के  अल ग़ज़ाली।  आधुनिकता की भारतीय परियोजना के प्रतिनिधि।  भारत का आधुनिक बौद्धिक नेतृत्व।  

इस आधुनिक भारतीय  बौद्धिक की भूल -गलती सिर्फ यह नहीं है कि  वह पर्सिपोलिस की लाइब्रेरी के विध्वंस का सक्रिय प्रतिरोध नहीं करता।  उससे भी ज़्यादा यह कि  उसने अपने ही ईमान को क़ैद में डाल दिया है। क्योंकि उस ईमान को ज़िन्दगी की शर्म की-सी शर्त नामंजूर थी! समाज में बौद्धिक की भूमिका क्या है ? अपने समय और समाज की गहन आलोचना प्रस्तुत करना , प्रतिगामी मूल्यों और विचारों के विरुद्ध तर्कपूर्ण संघर्ष करना , वैज्ञानिक चिंतन के  विकास के लिए  ठोस तर्क  मुहैया करना।  अगर बौद्धिक यह भूमिका नहीं निभाता तो अपने ईमान के साथ गद्दारी करता है।  किसी भी   परम्परागत समाज के आधुनिक रूपांतरण की प्रक्रिया में बौद्धिक की यह भूमिका केंद्रीय और अपरिहार्य है।  क्या  पुनर्जागरण और ज्ञानोदय  के कलाकारों और चिंतकों के बिना यूरप में आधुनिक चेतना का विकास हो सकता था ? आधुनिक मनुष्य -केंद्रित जनतांत्रिक वैज्ञानिक चेतना का विकास पूर्व-आधुनिक ईश्वरोन्मुख  सामंती रहस्यवादी चेतना से मुकम्मल संघर्ष किये बिना नहीं हो  सकता।  
भारतीय बौद्धिक ने यह जरूरी ऐतिहासिक भूमिका ठीक से नहीं निभाई  . बौद्धिक ईमान की रक्षा करने की  बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।  कठिनाइयाँ उठानी पड़  सकती हैं।  यंत्रणाएं सहनी  पड़ सकती हैं। जान से भी हाथ  धोना पड़  सकता है।  सभी युगों में युगांतरकारी बौद्धिकों - चिंतकों -वैज्ञानिकों ने यह कीमत चुकाई है।  तभी युग परिवर्तन संभव हुआ है। 

ज़िंदगी की शर्म की- सी शर्त को मंजूर कर , अपने ही ईमान को क़ैद कर ,भारतीय बौद्धिक ने जो -भूल गलती की , उस की  कीमत भारतीय जनता को चुकानी पड़  रही है। यह कीमत भयानक है और उसके बहुविध चित्र मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में खींचे हैं।  
उतनी ही विशदता से उन्होंने इस बौद्धिक भूल - गलती के भी चित्र खींचे हैं।  इस भूल -गलती के कारण आधुनिकता की समूची परियोजना के विफल हो जाने का खतरा पैदा  हुआ।  आधुनिकता के नाम पर मध्यकालीन सामंती चेतना के ही तख्तनशीन हो जाने का खतरा पैदा हुआ।  भारतीय दिल के तख़्त पर! जिसका अर्थ है आधुनिकता , वैज्ञानिकता और लोकतंत्र की   संभावनाओं का क्रूर समापन।

 मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
हाँ खूँखार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता    
  

यह बात और है कि उसका राज स्थायी नहीं हो सकता . मुक्तिबोध का मार्क्सवादी आशावाद कहता है कि 'सुल्तानी जिरह बख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का' .   एक दिन जरूर हमारी चेतना का रक्त- प्लावित स्वर हमारी हार का बदला चुकाने आएगा।  इतिहास  के प्रवाह के विरुद्ध खड़ी चेतना  दीर्घजीवी नहीं हो सकती। 
 
यह बौद्धिक  भूल-गलती मात्र मध्यवर्गीय अपराध- बोध नहीं है।  मुक्तिबोध की कविताओं में अक्सर मिलने वाले  अपराध -बोध को अनेक आलोचकों ने लक्षित किया है।   बकौल नामवर सिंह " मुक्तिबोध की रचनाओं में आत्म भर्त्सना का स्वर असंदिग्ध है , लेकिन इस आत्म भर्त्सना को स्वयं  मुक्तिबोध की आत्मभर्त्सना कहना भारी भ्रम है।  वस्तुत मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में ' मैं ' के द्वारा अपने पूरे वर्ग - मध्यवर्ग - की आत्मभर्त्सना को अभिव्यक्त किया है।"[१०]   लेकिन  इसे महज  मध्यवर्गीय अवसरवाद और कायरता की भर्त्सना  समझना भी भ्रम   है।  यह  अधिक गहरा,  युगव्यापी , अपराधबोध है।  यह भारतीय आधुनिकता की समूची परियोजना की विफलता का ऐतिहासिक अपराध- बोध  है।  इसके अनेक रूप हैं।  अनेक  कविताओं में  इसके  अलग- अलग आयाम प्रकट हुए हैं।  इस ऐतिहासिक भूल -गलती पर ध्यान देने से स्पस्ट होगा कि मुक्तिबोध की कविताओं में मिलने वाले जिस 'आत्मसंघर्ष ' की बहुत चर्चा की जाती है , वह भी महज मध्यवर्गीय आत्मसंघर्ष नहीं है।  वह एक बृहत्तर बौद्धिक -वैचारिक आत्मसंघर्ष है।  

मुक्तिबोध के ही शब्दों में कहें तो यह उन की रचनाशीलता की  केंद्रीय 'जीवन -समस्या' है।   इसीलिये यह अनेक रूपों में  उनकी  कविताओं, कहानियों और  डायरियों  में प्रकट होती है।  यह आधुनिक भारतीय बौद्धिकता की वह अनेकस्तरीय ऐतिहासिक  विफलता  है , जिस  ने भारतीय जन के सभी समकालीन  संकट उत्पन्न किये हैं।  इसका एक रूप है  मध्यकालीन सामंती चेतना के साथ समझौता।  यह समझौता सब से ज़्यादा घनीभूत था उत्तर भारत में। भूल -गलती कविता में मध्यकालीन  सुल्तानी दरबार के  रूपक  के जरिए इस समझौते  की परिणतियों को चित्रित किया गया है।   

 मुक्तिबोध के चिंतन में  इस  जीवन- समस्या की केन्द्रीयता का पता उनकी महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तक  'कामायनी :एक पुनर्विचार 'से भी चलता है। मुक्तिबोध कामायनी को मध्यकालीन सामंती समाज के विध्वंस , पूंजीवादी आधुनिक समाज के नव निर्माण और उसके आंतरिक संघर्षों की फैंटेसी के रूप में पढ़ने का आग्रह करते हैं।    मुक्तिबोध ने  कामायनी  की आलोचना मुख्य रूप से मनु के कमजोर चरित्र के कारण की है।  वे मानते हैं कि  मनु स्वयं जयशंकर प्रसाद के मन की कुछ निगूढ़ प्रवृत्तियों का प्रतिनधि है।  यही कारण है की उसकी समस्या को पहचानकर भी प्रसाद जी उसे अपनी प्रचुर लेखकीय सहानुभूति प्रदान करते हैं।  मनु- चरित्र की कमजोरी  का कारण  यह है कि वह आधुनिक युग में पुराने पतनशील सामंत वर्ग की संतान है।  उसके वर्ग  के वर्चस्व का अंत हो चुका है।  लेकिन उसके व्यक्तित्व पर सामंती संस्कृति की गहरी छायाऐं  है।  उस संस्कृति  से लड़ने की कौन कहे , मनु का रुख उसके प्रति पर्याप्त रूप से आलोचनात्मक भी नहीं है।  यही कारण है कि अपनी खुद की कमजोरियों - गलतियों - अपराधों  के प्रति भी उसके मन में कोई गम्भीर , जीवन -परिवर्तनकारी- पश्चाताप  नहीं है।  इसी  मनु को नयी भारतीय संस्कृति का नेतृत्व  करना है। इसी मनु को भारत में  आधुनिक  सभ्यता का  निर्माण करना है। 

कौन है यह मनु ? उत्तर भारत में  आधुनिकता की परियोजना को आगे बढाने वाले , अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त करने वाले , शुरुआती  पीढ़ियों के लोग उच्च जातियों - वर्गों के लोग थे।  मैकाले की अंग्रेज़ी शिक्षा ने  आधुनिक विचारों से इनका परिचय  कराया।  इन्होने अपनी आधुनिकता पुरानी सामंती संस्कृति से संघर्ष करते हुए हासिल न की थी। उलटे वे उसी संस्कृति में आपादमस्तक डूबे हुए थे। उनकी आधुनिकता  ओढी हुई थी , सतही थी। मुक्तिबोध का ख्याल था कि जयशंकर प्रसाद और उनके काव्य नायक मनु दोनों इसी वर्ग के प्रतिनिधि थे।   मुक्तिबोध स्वयं को इस वर्ग से सम्बद्ध नहीं करते। संस्कृति-नेतृत्व- कारी उच्च वर्ग के मुकाबले वे अपने को साधारण जन से जोड़ते हैं।  इससे स्पस्ट है कि मुक्तिबोध की जीवन समस्या व्यक्तिगत समस्या नहीं है।  इससे यह भ्रम भी दूर हो जाना चाहिए कि मुक्तिबोध की कविताओं में दिखने वाला अपराधबोध उनके अपने निम्नमध्यवर्ग का अपराधबोध है।   

 मुक्तिबोध मध्यवर्ग को  दो हिस्सों , उच्च मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग  , में बाँट कर  देखते हैं।  संस्कृति का नेतृत्व  उच्चमध्यवर्ग के हाथों में है , जिसका संश्रय शासक वर्गों के साथ है। यह समझौता  मध्यकालीन सामंती  संस्कृति के साथ उसके बौद्धिक समझौते के रूप में भी प्रकट होता है।  निम्नमध्यवर्ग उत्पीडित जनसाधारण  का हिस्सा है।  लेकिन यह वर्ग प्रभु  वर्ग  के सांस्कृतिक प्रभाव में रहता है।  समय- समय पर उत्पीड़ित वर्ग प्रभु   वर्ग के खिलाफ बगावत का झंडा  उठाता है।  लेकिन आखिरकार हर बगावत व्यवस्था के पक्ष में समायोजित  कर ली जाती है। ठीक वैसे ही जैसे भक्तिकाल में निम्नवर्गीय संतों के सांस्कृतिक विद्रोह को सगुण भक्ति ने  समायोजित कर लिया। 

आधुनिक भारत के वर्चस्वशाली बौद्धिक की  शिनाख्त करते हुए  'पुनर्विचार' में मुक्तिबोध लिखते हैं -- '' आज संस्कृति  का नेतृत्व उच्च  वर्गो के हाथों में है- जिनमें उच्च मध्य वर्ग भी शामिल है ! … संस्कृति का नेतृत्व करना जिस वर्ग के हाथों में होता है , वह समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी भावधारा और अपनी जीवन -दृष्टि का इतना अधिक प्रचार करता है कि  उसकी एक परम्परा बन जाती है।  यह परम्परा भी इतनी पुष्ट , इतनी भावोन्मेषपूर्ण और विश्वदृष्टि -समन्वित होती  है कि  समाज का प्रत्येक वर्ग आच्छन्न  हो जाता है। यहां तक की जब अनेक सामाजिक -राजनीतिक कारणों से निम्न जन श्रेणियाँ उद्बुद्ध हो कर , सचेत और सक्रिय हो कर अपने आप को प्रस्थापित करने लगती हैं , तब वे उन पुराने चले आ रहे भावों -प्रभावों   को इस प्रकार संपादित और संशोधित कर लेती हैं , कि  जिससे वे अपनी ज्ञान की परिधि में ज्ञान की ज्वाला प्रदीप्त  कर सकें।  … किन्तु अंततः संस्कृति का नेतृत्व करने वाले पुराने विधाताओं से हारना ही पड़ता है। मेरा मतलब निर्गुणवादी संतों और उस श्रेणी में आने वाले लोगों  से है।समाज के भीतर निम्न जन श्रेणियों का वह विद्रोह था , , जिसने धार्मिक -सामाजिक धरातल पर स्वयं को प्रस्थापित किया था।  आगे चलकर , सगुण भक्ति और पौराणिक धर्म की विजय हुई , तब निम्न जन श्रेणियों को पीछे  हटना पड़ा।  यह आवश्यक नहीं है कि  आगे चल कर ये निम्न जन श्रेणियाँ चुपचाप बैठीं रहें।  शायद वह ज़माना आ  रहा है , जब वे स्वयं संस्कृति का नेतृत्व करेंगी , और वर्तमान नेतृत्व अधः पतित हो कर धराशायी हो जाएगा।  इस बात से वे डरें  जो  समाज  उत्पीड़क हैं या उनके साथ हैं , हम नहीं , क्योंकि हम पददलित हैं , और अविनाशी हैं - हम  चाहे  जहां उग आते हैं।  गरीब , उत्पीड़ित , शोषित मध्यवर्ग को ध्यान  में रख कर मैं यह बात कह रहा हूँ। " [११ ] (बल मेरा ) 

'पुनर्विचार' के अखीर में आया  यह विश्लेषण  ' सांस्कृतिक वर्चस्व ' की अंतोनियो ग्राम्शी की अवधारणा से कितना मिलता- जुलता है! मुक्तिबोध  ने कहीं ग्राम्शी का उल्लेख नहीं किया है। इस बात की संभावना नहीं के बराबर है कि  उन्हें ग्राम्शी को पढने का अवसर मिला होगा।  वे एक विकट अध्येता थे  , लेकिन उनके समय तक ग्राम्शी की पुस्तकें भारत में सुलभ न थीं।  यह देखना  दिलचस्प है कि मुक्तिबोध का चिन्तन अनेक आयामों में ग्राम्शी के समानांतर चलता है। यह संयोग नहीं है।  सामाजिक -राजनैतिक परिवर्तन  के जिन प्रश्नों ने  ग्राम्शी के चिंतन को प्रेरित किया था  , मुक्तिबोध ने भी अपने समय में उनका सामना किया।  अन्याय और उत्पीड़न के  शिकार  विशाल जनसमूह  उत्पीड़कों के एक छोटे से समूह के सामने असहाय क्यों दिखाई देते हैं  ? संगठित हो कर क्रांतिकारी कार्रवाइयों  के जरिए वे तख्तापलट क्यों नहीं कर देते ? क्या उन्हें महज  सैन्य शक्ति और राज्य मशीनरी के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है ? समय -समय पर  उठने वाले व्यवस्था- विरोधी  आंदोलन और विचार धीरे -धीरे नाकाम क्यों हो जाते हैं ? व्यवस्था अपने भीतर कोई बुनियादी बदलाव किये बगैर उन्हें समायोजित  कैसे कर लेती हैं ? जनता की दुश्मन सत्ताएं और पार्टियां जनता का समर्थन और सहयोग  कैसे हासिल कर लेती हैं ? ग्राम्शी ने अपनी आँखों के सामने मुसोलिनी के नेतृत्व में फासीवाद के बढ़ते हुए प्रभाव कोदेखा था।  मुक्तिबोध आज़ाद भारत में व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र को फूलते -फलते देख रहे थे , लोकतंत्र के भीतर से फासीवादी  दमन के फैलते  हुए पंजों को महसूस कर रहे थे।  यह सब भारत की आज़ादी के लिए हुए राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत के बावजूद हो रहा था।  उन्होंने मध्यकाल में भी निर्गुण भक्त कवियों के वैचारिक विप्लव को तुलसीदास की मर्यादावादी यथास्थितिवादी  विचारधारा के हाथों निष्प्रभावी होते देखा था।  उनका प्रसिद्ध लेख ' मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू ' इन्ही चिंताओं से प्रेरित था।  


ग्राम्शी की तरह मुक्तिबोध भी महसूस करते थे कि सांस्कृतिक वर्चस्व सामाजिक -राजनीतिक वर्चस्व को बनाए रखने का मुख्य  उपकरण है। सांस्कृतिक वर्चस्व के जरिए ही उत्पीड़ित जनता से यथास्थिति के पक्ष में सहमति हासिल की जाती है।  यह सहमति  ही आर्थिक -सामाजिक -राजनीतिक वर्चस्व का मुख्य आधार होती है , भौतिक शक्ति नहीं।   सांस्कृतिक वर्चस्व के कारण  उत्पीड़ित- जन प्रभु वर्गों के विचारों से आच्छन्न होते हैं।   मुक्ति अभियान के लिए  इन्ही विचारों में  संशोधित -संपादित कर के अपने अनुकूल बनाना पड़ता है। प्रभु वर्ग पहले तो इन संशोधनों को नकारने और निरस्त करने की कोशिश करता है।  इसके बावजूद अगर वे लोकप्रियता हासिल कर लेते हैं तो उनके कुछ तत्वों को  सिद्धांत के स्तर  मान्यता देते हुए उन्हें एक नया रूप दे दिया जाता है। उसमें नए तत्व जोड़ दिए जाते हैं , ताकि उसकी विद्रोही अंतर्वस्तु निरस्त हो जाए।  निर्गुण कवियों ने जिस भक्ति को वर्णाश्रम के विरुद्ध विद्रोह का साधन बनाया था , सगुण  भक्त कवियों ने अंततः उसे   वर्णाश्रम को पुनर्स्थापित करने का साधन बना लिया!


इसलिए सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक -बौद्धिक -वैचारिक संघर्ष प्राथमिक महत्व की वस्तु है।  इसके बिना राजनैतिक संघर्ष का विफल होना अपरिहार्य है।  ग्राम्शी  की तरह मुक्तिबोध भी सामाजिक परिवर्तन में बुद्धिजीवी की  भूमिका के निर्णायक महत्व को महसूस करते थे।  सामाजिक परिवर्तन  में बौद्धिक की भूमिका उनकी बहुत सारी कविताओं की मुख्य थीम यों  ही नहीं है।  आधुनिक छायावादी बौद्धिकता - जिसने   एक समय  उत्तर भारत में सांस्कृतिक वर्चस्व  हासिल किया था - सामंती संस्कारों की विरासत के खिलाफ  आमूलपरिवर्तनकारी  संघर्ष नहीं कर पाई।  इसने स्वाधीनता , वैयक्तिकता और विश्वमानवतावाद के सिद्धांतों का गुणगान तो किया ,  लेकिन समता  और संघर्ष को प्राथमिक मूल्य बोध के रूप  में स्थापित किये बिना।  नतीजतन अराजक व्यक्तिवाद , खोखली करुणाशीलता , अतिशय भावुकता , कृत्रिम समरसता और पलायनवादी कायरता  जैसी प्रवृत्तियों  को बढ़ावा मिला।  इन प्रवृत्तियों ने आगे चलकर लोकतंत्र के भीतर लोकतांत्रिक मूल्यबोध को नष्ट करने में भूमिका निभाई और फासीवाद केलिए रास्ता हमवार किया।  यों  यह  ऐतिहासिक बौद्धिक भूल -गलती जनता के दीर्घकालीन दमन और उत्पीड़न  का एक आधारभूत कारण थी। 
मुक्तिबोध अकेले कवि हैं , जिन्होंने इसका साक्षात्कार करने , इसे  समझने , अनेक स्तरों पर इससे जम कर जूझने और इसके पार  जाने  का उद्यम कविता में किया। 


'ब्रह्मराक्षस ' एक और प्रसिद्द कविता है , जिसमें एक और तरह की बौद्धिक विफलता चित्रित है।  यह भी आधुनिकता की भारतीय परियोजना से जुडी हुई विफलता है , लेकिन यह उस तरह की बौद्धिक बेईमानी नहीं है , जैसी 'भूल -गलती ' में चित्रित है। 'कामायनी ' में मुक्तिबोध ने जिस बौद्धिक पाखण्ड को लक्षित किया था , यह उससे भी अलग है।  यह असल में एक त्रासदी है।  एक नीच त्रासदी।  

पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच 
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!

इस कविता के विषय में  आलोचकीय आम सहमति  है कि यह जनसमाज से दूर जा पड़े  बौद्धिक का चित्र है।  वह ज्ञान की एकांत साधना में  लीन है। उसका  जीवन-कर्म अध्ययन और शोध तक सीमित है।  कविता की फैंटेसी में इस तथ्य को शहर से दूर  किसी खंडहर के किनारे  बावड़ी में उसके रहने से सूचित किया गया है।  वह गहन संदेह में है।  पाप की छाया से ग्रस्त है।लगातार   अपने को स्वच्छ करने की कोशिश  करता है , लेकिन कुछ न कुछ मैल बचा ही रह जाता  है।  कौन है यह ब्रह्म -राक्षस ? बहुत सारे  अनुमानों में एक यह भी है कि यह मुक्तिबोध का आत्म- चित्र भी हो सकता है।[१२]यानी यह उनके अपने व्यक्तित्व के दो हिस्सों के बीच का संवाद हो  सकता है।कविता में कवि को खोजने की आलोचना -पद्धति भ्रामक हो सकती है।  बेहतर है , उस जीवन -समस्या की खोज की जाए , जिसके दबाव में वह काव्य -फैंटेसी रची गई है। और उसे निजी समस्या के रूप में न देख कर युग -विशेष की जीवन -गुत्थी के रूप में देखा जाए. 
 'भूल  -गलती '  के आलम -फ़ाज़िल लोगोंसे ब्रह्म -राक्षस इस मायने में अलग है कि उसने अपने   ईमान का सौदा नहीं किया है।  वह एक शुद्ध 'ज्ञान -साधक' है। वह ज्ञान  के लिए ज्ञान की साधना करता है ,जीवन के लिए नहीं।  जीवन की हलचल को अपनी ज्ञान -साधना के लिए बाधा समझ  उस से   दूर रहना चाहता है।  आधुनिक युग में ज्ञान का विशेषीकरण एक सामान्य प्रवृत्ति है।  जीवन से पैदा होने वाली समस्याओं का हल तलाशते हुए जिस ज्ञान का उत्पादन होता है , वह जीवनोपयोगी होता है।  जब ज्ञान का क्षेत्र अनेक शाखाओं -प्रशाखाओं में विभक्त होने लगता है , तब  विशेषीकरण का दौर शुरू होता है।  अलग अलग शाखाओं के विशेषज्ञ अपने अपने  अध्ययन और शोध की समस्याओं के हल तलाशते हुए आगे बढ़ते जाते हैं।  यहां शुद्ध बौद्धिक  प्रेरणा    इतनी प्रबल होती है कि  अक्सर  सामाजिक सार्थकता की चिंता नहीं की जाती।  इस तरह की ज्ञान -साधना जनविरोधी सत्ताओं द्वारा अपने हित  में इस्तेमाल की जा सकती है।   

बीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन का जीवन इसका उदाहरण है।  उनकी युगांतरकारी खोजों का इस्तेमाल एटम बम बनाने के लिए किया गया।  यह उनका उद्देश्य नहीं  था।  लेकिन विश्व -युद्ध की परिस्थितियों में उन्हें इसके लिए सहमत होना पड़ा।[१३]  आज दुनिया परमाणु -विनाश का जो खतरा झेल  रही है , क्या उसके लिए किसी रूप में आइंस्टीन की ज्ञान -साधना को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ?  और कोई ऐसा माने , न माने लेकिन खुद आइंस्टीन इस पाप की  छाया  से कभी मुक्त न हो सके।  उन्होंने अपना सारा शेष जीवन शांति और अहिंसा के प्रचार में लगाया , लेकिन क्या उन्हें इस पाप -छाया से पूर्ण मुक्ति मिल सकी होगी ?


गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने -
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!

आइंस्टीन ही इस कविता के  चरित -नायक हैं , ऐसा कहना जाहिरा तौर पर हास्यास्पद होगा।  लेकिन वे आधुनिक बौद्धिकता की एक प्रवृत्ति के प्रतिनिधि जरूर हैं। यह कविता ऐसी समाज - निरपेक्ष बौद्धिकता और उसके आंतरिक पापबोध को को मार्मिक ढंग से उजागर करने की कारण अविस्मरणीय है।  आइंस्टीन और ब्रह्मराक्षस में मूलभूत अंतर यह है कि  महान वैज्ञानिक को सांसारिक यश और सराहना की कमी न थी।  लेकिन ब्रह्मराक्षस बाहरी दुनिया में भी मिसफिट था।  न उसे आंतरिक संतोष मिला , न सांसारिक सफलता।  वह बाहरी और भीतरी दोनों पाटों के बीच पिस  कर मारा  गया।  ब्रह्मराक्षस की ट्रेजेडी किसी महान उद्देश्य के लिए संघर्ष करते घटित नहीं हुई , इसलिए नीच ट्रेजेडी कही गई।  शायद यह भी उसके  उसके पापबोध  का एक कारण है।  तथापि काव्य -वाचक इसे एक मार्मिक विडंबना के रूप में देखता है ,अपराध के रूप में नहीं। ब्रह्मराक्षस का गहन पापबोध ही उसकी मुक्ति का उपकरण है। ग्राम्शी का कथन है - 'ग्लानि-बोध एक क्रांतिकारी भावना है।' ग्राम्शी का आशय यह है कि   ग्लानिबोध से ही परिवर्तन की वास्तविक प्रेरणा जन्म ले सकती है। [१४] इस ग्लानिबोध के अनेक  रूप मुक्तिबोध की कविताओं में देखे जाते रहे हैं. 

ग्राम्शी के वर्गीकरण के अनुसार देखेंगे तो लगेगा कि  ब्रह्मराक्षस एक 'परम्परागत बौद्धिक' है। वह ज्ञानोदय के युग में उभरी तर्कणा का प्रतिनिधि है।  उसका समर्पण केवल ज्ञान और तर्कणा के प्रति है।  ग्राम्शी ने लक्षित किया था कि  यह आधुनिक  बौद्धिक राज्य की संस्थाओं और संस्थानोंसे जुड़ा होता है , यहीं पलता  -बढ़ता है.  वह चाहे - न चाहे ,राजसत्ता अपने हित  में उसकी उपलब्धियों का इस्तेमाल करती  है।  अगर अपनी ज्ञानसाधना  के ऐसे इस्तेमाल से उसे ग्लानि महसूस होती है। उसमें  उसे पाप की छाया  दिखाई देती हैं।  तब उसे अपनी भूमिका में एक क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए तैयार होना चाहिए।  उसे 'आंगिक बौद्धिक' की भूमिका में आना चाहिए। ' आंगिक बौद्धिक ' सचेत रूप से स्वयं को अपने वर्ग -समाज यानी सर्वहारा के वर्ग -समाज से प्रतिबद्ध करता  है  .  उसका बौद्धिक उद्यम विशुद्ध ज्ञान के लिए नहीं , बल्कि सर्वहारा के क्रांतिकारी  अभियान  की जरूरतों  से निर्देशित होता है।  इतना ही नहीं , वह स्वयं उस वर्ग से अंगांगि भाव से जुड़ा होता है।    . इस तरह उसकी चिंताएं , प्रेरणाएं , उलझनें , कशमकश और उपलब्धियां सब उस वर्ग के लिए होती हैं।  उनका श्रेय भी  उस वर्ग को ही होता है।  

मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में ' एक 'परम्परागत बौद्धिक ' के ' आंगिक बौद्धिक ' में रूपांतरित होने की कथा है। कविता के शुरुआत में काव्य वाचक , जो  अँधेरे  कमरों में  लगातार चक्कर काटता हुआ दिखाई देता है , जिसका गहरा असंतोष  'शब्दाभिव्यक्ति अभाव का संकेत' है , 'रंगीन काव्य -चमत्कार ' भी जिसे ठंढा दिखाई देता है , जिसके 'मस्तक -कुण्ड में जलती / सत -चित वेदना -सचाई और गलती ' है , 'मस्तक -शिराओं में  में तनाव दिन -रात' है , वही जब ' अभिव्यक्ति के सारे खतरे  उठाने के लिए तैयार हो जाता'  है , तब वह  सबसे पहले परम्परागत बौद्धिकता के स्थापित मठों और गढ़ों को तोड़ने के लिए प्रस्तुत  होता है , और स्वयं को उभरती हुई जनक्रांति से सम्बद्ध करता है।  क्या ये  गढ़  और मठ वही   नहीं हैं , जिनकी  गहरी अंधेरी बावड़ियों में 'ब्रह्म -राक्षस ' अपनी नीच त्रासदी का शिकार हुआ था ? शहर से दूर स्थित खंडहरों से निकल कर ,शहर के  भीतर मार्च कर रही कतारों में शामिल होकर , उसे अपनी ' परम -अभिव्यक्ति ' रूपी मुक्ति  मिलती है।  यह एक आंगिक बुद्धिजीवी का उदय है। उस बुद्धिजीवी का , जिसे गहरा ग्लानिबोध है कि दमनकारी सर्वनियन्ता (फासीवादी )सत्ता के प्रभावी होने की कुछ जिम्मेदारी उसकी अपनी ' भूल -गलतियों '  पर भी है!  

इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
खोजता हूँ पठार... पहाड़... समुंदर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-संभवा।

                                                                     
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                   समय में झरता तिमिर 
                                        
मुक्तिबोध की कविताओं के साथ आलोचकीय संवाद  की शुरुआत नामवर सिंह के लेख ' अँधेरे में :परम अभिव्यक्ति  की खोज ' से हुई।  यह लेख उनकी प्रसिद्ध पुस्तक " कविता के नए प्रतिमान ' के परिशिष्ट में शामिल किया गया था।  इस लेख में प्रस्तावित किया गया था कि इस कविता का मूल कथ्य अस्मिता की खोज है , जो आधुनिक मानव की सब से ज्वलंत समस्या है।[१५]  लेकिन वहीं यह भी जोड़ा गया था कि यह अस्मिता की कोई व्यक्तिवादी खोज नहीं है।  यह आधुनिक मनुष्य की मानवीय अस्मिता की सामाजिक खोज है।  आधुनिक मनुष्य  आत्मनिर्वासन का शिकार है। पुस्तक के दूसरे संस्करण एक नया लेख जोड़ा गया - ' अँधेरे में :पुनश्च '.  इस लेख  में इस आत्मनिर्वासन और उसके कारणों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया।  इनकी व्याख्या युवा मार्क्स की रचना ' १८४४ की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां ' में उल्लिखित अलगाव / आत्म -निर्वासन तथा 'रै-करण' (री -इ फिकेशन ) केआधार पर की गयी है।  

नामवर सिंह की  इन व्याख्याओं पर तब से आज तक बहस जारी है।  लेकिन वे आज भी प्रासंगिक बनी हुई हैं।  इन व्याख्याओं में सचाई का अंश मौजूद है।  इसमें संदेह नहीं कि  ' अँधेरे में ' का काव्य -नायक अपनी खोई हुई ' परम अभिव्यक्ति ' की खोज में है। इस परम अभिव्यक्ति को मनुष्य की   मानवीय अस्मिता का रूपक मान  लेने में विशेष कठिनाई नहीं है।  दू सरे संस्करण में रामविलास शर्मा द्वारा की गयी मुक्तिबोध की कविताओं की   अस्तित्ववादी व्याख्याओं का  खंडन किया गया . यह  इतना तर्कसंगत और विश्वसनीय है कि  हिन्दी में यह सर्वानुमति बन गयी  है कि  मुक्तिबोध के मामले में रामविलास जी से चूक हुई।  

तो भी मैं मुक्तिबोध के पाठकों -आलोचकों के सामने एक छोटा-सा प्रश्न रखना चाहता हूँ।  'अँधेरे में ' कविता में  चित्रित  आत्म -निर्वासन क्या एक सामान्य सार्वभौमिक आत्म निर्वासन है  , जो   पूंजीवादी समाज में प्रत्येक व्यक्ति की अपरिहार्य नियति है ? अथवा  वह,  विशेष रूप से ,  एक बौद्धिक का आत्मनिर्वासन है ? इस छोटे -से प्रश्न के उत्तर पर इस कविता की , और मुक्तिबोध की अनेक महत्वपूर्ण कविताओं की , व्याख्या निर्भर करती है।  उत्तर अलग होने पर व्याख्या की दिशा में गंभीर  अंतर पड़  सकता है। अगर इस एक  सामान्य मध्यवर्गीय आत्म निर्वासन समझा जाए तो यह एक हताश मध्यवर्गीय व्यक्ति की अस्मिता की खोज कीकविता के रूप में पढ़ी  जा सकती है।  लेकिन अगर यह एक बौद्धिक का आत्मनिर्वासन है तो इस कविता को आधुनिकता की भारतीय परियोजना और उसमें आधुनिक भारतीय बौद्धकिता की भूमिका की पड़ताल के रूप में पढ़ना होगा।  और तब इस कविता के अभिप्राय महत्वपूर्ण अर्थों में बदल जाएंगे।  

पहले यह देख लिया जाए कि स्वयं नामवर सिंह की व्याख्या में स्पस्ट संकेत हैं कि  मुक्तिबोध  कविताओं का 'मैं ' एक बौद्धिक है।  यह बात अलग है कि  उन्होंने इस संकेत  का तर्कसंगत  विकास नहीं किया। उनकी व्याख्या की धुरी यही है की यह 'मैं' सम्पूर्ण मध्यवर्ग का प्रतिनिधि है।  ऊपर दिए गए उनके उद्धरण में यही बात कही गयी है।  लेकिन  इसी लेख ' अँधेरे में:पुनश्च " में उन्होंने यह भी कहा है - " क्रान्ति निश्चय  जनता  करेगी , किन्तु जैसा कि  'मेरे लोग' शीर्षक कविता में मुक्तिबोध ने कहा है , 'किसी की  खोज है उनको / किसी नेतृत्व की ' .… परम्परा से अग्रगामी बुद्धिजीवी ही यह नेतृत्व प्रदान करते आये हैं।  किन्तु मुक्तिबोध देखते हैं कि  बहुत से बुद्धिजीवी सत्ता के हाथो बिक गए हैं। .......  फिर भी कुछ लोग अभी ज़िंदा हैं और ये अपने वर्ग के पूर्वोक्त सभी लोगों से भिन्न हैं।  इनकी ' आत्मा  की एकता में दुई' है. ये न तो सत्ता से समझौता  करना चाहते हैं , न असंगता  अपनाना चाहते। हैं  मुक्तिबोध के शब्दों में ये ' आत्मचेतस ' भी हैं और ' विश्वचेतस '  भी।  इसी लिए इनमें भयानक आत्म -संघर्ष चलता रहता है।  … इनमें आत्मसमीक्षा इतनी तीव्र है कि ये वर्तमान व्यवस्था के बने रहने के लिए अपने आप को जिम्मेदार ठहराते हैं।   उस व्यवस्था को तोड़ने के लिए स्वयं भी टूटने को तैयार। मुक्तिबोध के कविताओं का काव्य नायक - मैं - सामान्यतः इन्ही लोगों का प्रतिनिधि है। … " [१६]   

' अँधेरे में ' का काव्य नायक एक बौद्धिक है , इसके संकेत  कविता में भी खूब हैं।  शुरुआत में ही , जब गुंजान  जंगलों से आती  हवा मशाल  बुझा देती है , नायक यह महसूस करता है कि उसे अँधेरे में पकड कर मौत की सजा दे दी गयी है .
......
किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही
आँखों में बँध गयी,
किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,
किसी शून्य बिंदु के अँधियारे खड्डे में
       गिरा दिया गया मैं
       अचेतन स्थिति में !...

लिपिचिह्नों से जुड़े हुए ये प्रतीक क्या स्पस्ट संकेत नहीं देते कि यह एक लेखक की  अभिव्यक्ति है ? उसकी आत्मा में भीषण सत-चित- वेदना  दहकती है . विचार उसके विचरण -सहचर हैं . वह अपनी 'पूर्णतम परम अभिव्यक्ति' कीखोज कर रहा है . वह रात के अँधेरे में उन सचाइयों का जुलूस देख लेता है , जो दिन के उजाले में छुपी रहती हैं . उसे सितारों के बीच ताल्स्तॉय-नुमा कोई व्यक्ति घूमता दिखाई देता है . एक सिरफिरा पागल भी उसके ही व्यक्तित्व का हिस्सा है . अपने आत्मोद्बोधन  में वह अपने को सिद्धांतवादी और आदर्शवादी कहता है . लेकिन यह भी  कहता है कि उसने 
"लोक-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियर कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य - त्याग दिये,
हृदय के मंतव्य - मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये !!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये !"
लोकहित उसके पिता हैं . जनमन- करुणा मां हैं . क्या यह एक बुद्धिजीवी की साफ़ शिनाख्त नहीं है ? उसे प्राकृत गुहा में विचारों के रक्तिम मणि मिलते हैं . लेकिन उसने 'उन्हें गुहा-वास दे दिया/लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित/जनोपयोग से वर्जित किया और/निषिद्ध कर दिया' .अन्यथा ' बच्चे भीख मांगते '! इतना ही नहीं जब उसे अँधेरे कमरे में ले जाया जाता है , स्टूल पर बिठा कर उसकी सीस की हड्डी तोडी जाती है .मस्तक- यंत्र का परीक्षण किया जाता है . उस प्रिंटिंग प्रेस  का पता लगाया जाता है , जहां ख्यालों के पर्चे छपते हैं . रिहा हो जाने के बादभी  वह महसूस करता है अपने   'मस्तक-कुण्ड में जलती/ सत्-चित्-वेदना-सचाई व ग़लती-/मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात' ! इस नतीजे पर पहुंचता  है कि अब /अभिव्यक्ति  के/खतरे उठाने ही होंगे '. इस संकल्प केसाथ जब वह जनसाधारण के बीच पहुंचता है , तब देखता  है कि 'मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिये वे, /मेरे ही विवेक-रत्नों को लेकर, /बढ़ रहे लोग अँधेरे में सोत्साह। /किन्तु मैं अकेला। /बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।' अंततः जब वह जनयूथ  में शामिल हो जाता है , तभी उसके मन में  अपनी ' परम अभिव्यक्ति अनिवार ' को वापिस पा लेने की उम्मीद जगती है . 
अंतोनियो ग्राम्शी से मुक्तिबोध का परिचय  रहा हो या न रहा हो , ' अँधेरे में ' कविता ग्राम्शीय  अर्थों में एक 'परम्परागत बुद्धिजीवी ' के ' आंगिक  बुद्धिजीवी ' में रूपांतरित होने की गाथा है . साथ ही वह भारतीय लोकतंत्र के भीतर से फासीवाद के प्रकट  होने की फैंटेसी है . और इस प्रक्रिया में भारतीय बौद्धिक की विभिन्न विडम्बना- भरी विभिन्न भूमिकाओं की  सत्यकथा  है . कविता साफ़ संकेत करती है कि भारतीय बौद्धिक का अवसरवाद , अपनी ही बौद्धिकता के साथ उसका विश्वासघात , भारतीय लोकतंत्र के फासीकरण का एक आधारभूत कारण है . लेकिन फासीवाद का यह आपात संकट  उसे अपनी भूमिका  की गम्भीर पुनर्समीक्षा करने  केलिए विवश करता है . इसी क्रम में वह  ग्राम्शीय ग्लानिबोध से गुजरता है और साधारण जन के पक्ष में अपनी क्रांतिकारी भूमिका के लिए स्वयं को तैयार करता है . 

कविता में एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था चित्रित है , जिसका पूर्ण सैन्यीकरण हो चुका है . मार्शल लॉ सिविल लॉ को विस्थापित कर चुका है . सैनिक  शासन एकअपवाद नहीं ,  स्थायी व्यवस्था प्रतीत होती है . कविता के आरम्भिक हिस्से में ही चित्रित ' मृत्युदल की शोभायात्रा' इस विषय में कोई संशय नहीं रहने देती . यह चित्र दिखाता है कि जो हुआ है , वह कोई सैनिक- विद्रोह नहीं है . ऐसा नहीं है कि किसी फौजी जनरल ने बगावत कर के सत्ता हथिया ली हो .  दिन के वक़्त सब कुछ सामान्य दिखाई देता है . अपनी अपनी जगहों पर मंत्री , उद्योगपति  , पत्रकार , विद्वान् , कवि , आलोचक , विचारक और डोमा जी उस्ताद जैसे लोकल मवाली अपना अपना काम  करते , षड्यंत्र रचते , दिखाई देते हैं . लेकिन जैसे ही रात घिरती है , वे एक ऐसे जुलूस में शरीक हो जाते हैं , जो पूरी तरह  एक सैनिक मार्च है .फौजी संगीतबैंड  है , गैस लाइटें हैं , कैवलरी है , कठोर फौजी अनुशासन है , खिंचे हुए चेहरे हैं . यह फैंटेसी क्या यह नहीं दिखाती कि जो व्यवस्था दिन में लोकतांत्रिक प्रतीत होती है , जिसमें मंत्री -पत्रकार -विद्वान् -मवाली सबके लिये जगह है , वही व्यवस्था रात के अँधेरे में फौजी जुलूस में बदल जाती है . ऊपर से जो लोकतंत्र जैसा दिखता है , वह भीतर से सैन्य तंत्र  में बदल चुका है . एक ऐसे सैन्य तन्त्र में , जिसमें किसी भी असहमति की गुंजाइश नहीं है . जिसमें स्वतंत्र चेतना रखने वाले कलाकारों और नागरिकों के लिए हत्या , गिरफ्तारी और यातना की निश्चित व्यवस्था है . जिसमें लोगों की बाहरी गतिविधियों पर ही  नहीं , उनके लिखने -पढने पर ही नहीं , उनके  सोच-विचार की प्रक्रिया को भी नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है .  व्यवस्था के वे सभी पाए , जिन पर लोकतांत्रिक आजादियों की रक्षा करने की जिम्मेदारी है , इस दमन तंत्र के साथ एकजुट हैं . अगर किसी को उनकी इस एकजुटता की भनक लग जाए तो , उसका ज़िंदा बच कर निकल जाना नामुमकिन है .  यह निहायत जरूरी है कि सचाई पर पर्दा डाला जाए . यह जरूरी है कि लोकतंत्र का वहम बना कर रखा  जाए. जरूरी  है कि व्यवस्था के प्रति जनता का समर्थन और सहयोग बना रहे . क्या ये सारी विशेषताएं फासीवादी राज्य की सुपरिचित विशेषताएं नहीं  हैं ?सैनिक शासन और फासीवाद में बुनियादी फर्क यही है कि फासीवाद लोकतंत्र के ढाँचे के भीतर से आता है , लोकतंत्र के सारतत्व को नष्ट कर के उसके बाहरी रूप को बनाए रखता है , जबकि सैनिक शासन लोकतंत्र को निरस्त या स्थगित करता हुआ आता है . ' अँधेरे में ' कविता इसी फासीवाद को चित्रित करती है . यह इशारा करते हुए लोकतंत्र की मान्यताप्राप्त एजेंसियों ने ही इसे साकार किया है .

अगर हम इस कविता को महज मध्यमवर्गीय अस्मिता की खोज की कविता के रूप में पढेंगे , तो पूंजीवाद तो हमें दिख जाएगा , लेकिन लोकत्रंत्र के फासीकरण की यह पूरी  ऐतिहासिक प्रक्रिया कुछ ओझल हो जायेगी . इस प्रक्रिया में बौद्धिक वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका ओझल हो जायेगी . यह ओझल हो जाएगा कि बौद्धिक वर्ग के निर्णायक सहयोग के बिना यह प्रक्रिया सफल नहीं हो सकती . और यह भी कि बौद्धिक वर्ग की नयी क्रांतिकारी भूमिका के बगैर , विद्रोही जनसाधारण के साथ उनके एकजुट हुए बगैर , जनक्रांति की कोशिशें  अधूरी रहेंगी. 

' अँधेरे में ' कविता में  तिलक और गांधीजी के आगमन पर बहुत कुछ कहा गया है . मुक्तिबोध की प्रगतिशीलता पर भी सवाल उठाये जाते हैं .  उग्रराष्ट्रवाद ,  सामाजिक सुधारों के विषय में  उदासीनता और धार्मिक प्रतीकों के आग्रह के चलते तिलक को दक्षिणपंथी ठहराने की कोशिश भी की जाती है . गांधी जी भी संदेह से बरी नहीं हैं . वर्णाश्रम के लिए  सहनशीलता , अहिंसा के लिए धार्मिक जूनून , उद्योगीकरण के बारे में उनके संशय , ब्रह्मचर्य आदि से जुड़े अतिवादी विचार  - इन सब के चलते उनकी आलोचना होती रही है . कविता में इन दोनों विभूतियों को जिस आदर और प्रेम से याद किया गया है , उस बारे में उलझन महसूस करने वालों की कमी नहीं है . 
तिलक और गांधीजी का चयन मानीखेज है . ये दो लोग , एक के बाद एक , स्वतन्त्रता संग्राम के दो ऐतिहासिक दौरों के नायक रहे हैं . एक तरह से आज़ादी और आधुनिकता की भारतीय परियोजना के दो सब से महत्वपूर्ण नायक रहे हैं . यह कहने का आशय भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को कमतर बताना  कतई नहीं है . अलग -अलग समयों में  इन दोनों की केन्द्रीयता की तरफ इशारा करना है . 
सवाल है , तिलक इतने तनाव में क्यों हैं कि उनकी मूर्ति के मस्तक कोष फूट पड़ते हैं , नासिका से दिमाग का खून बहने लगता है ? कविता में जो सन्दर्भ आया है , उससे स्पस्ट है कि चौराहों पर सैनिक बन्दूकों और तोपों का दृश्य ही इस तनाव का वास्तविक कारण है . यह दृश्य आज़ादी के स्वप्न की मुकम्मल विफलता है . आधुनिकता  की परियोजना का भी . चौराहे पर तिलक की  मूर्ति लगाई इसलिए गयी है कि उन्होंने सब के लिए आज़ादी का सपना देखा था . उनकी घोषणा  थी कि आज़ादी प्रत्येक व्यक्ति का जन्म -सिद्ध अधिकार है . लेकिन उनकी ही आँखों के सामने इस सपने का मज़ाक  उड़ाया जा रहा है . मुक्तिबोध के समय तक अफ्स्पा आज की तरह  स्थायी व्यवस्था न समझी जाती होगी . यूएपीए या पोटा जैसे  काले क़ानूनों  का आज जैसा जलवा न रहा होगा . लेकिन लोकतंत्र के फासीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी . यह तिलक जैसे आज़ादी के सिद्धान्तकारों के मस्तक कोषों  के फूट जाने का पर्याप्त कारण है. क्या इस तनाव में  में पश्चाताप की छाया भी है ?क्या कहीं यह अहसास भी है कि जो परिणति सामने आई है , उस के लिए किसी रूप में  वे खुद भी जिम्मेदार हो सकते हैं ? 
गांधी जी के प्रसंग में यह बात अधिक स्पस्ट है . 
....
वे कह रहे हैं -
"दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुरगा
यदि बाँग दे उठे जोरदार
बन जाये मसीहा"
वे कह रहे हैं -
''मिट्टी के लोंदे में किरणीले  कण-कण
गुण हैं,
जनता के गुणों से ही संभव
भावी का उद्भव...''
गंभीर शब्द वे और आगे बढ़ गये,
जाने क्या कह गये!!
मैं अति उद्विग्न!
......

निशाना दिन रात बांग देने वाले नेताओं पर है . वे कचरे के ढेर पर दाने चुगने के लिए चढ़ते हैं . लेकिन बांग लगाते- लगाते खुद को मसीहा समझने लगते हैं . लेकिन क्या इसमें यह भी निहित नहीं है कि भावी का उद्भव किसी 'मसीहा' के बस के बात नहीं है ? कि पिछले  दौर ने भी मसीहा तो बहुत पैदा किये लेकिन जनता के गुणों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सका ? लोकतंत्र की जो जिम्मेदारी जनता के हाथों में आनी चाहिए थी , वह मसीहाओं / महापुरुषों  की मुट्ठियों में ही सिमटी रह गई ? क्या इसी के चलते लोकतंत्र का फासीकरण इतनी आसानी से और इतनी जल्दी किया जा सका ? क्या यह इसलिए हुआ कि सामंती मूल्य व्यवस्था को ध्वस्त कर लोकतांत्रिक चेतना को स्थापित करने का काम जिन बौद्धिकों और समाज -नेताओं को करना था , उन्होंने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई ? वे या  तो सत्ताधारी वर्ग के साथ नाभिनालबद्ध हो  कर मृतदल की शोभायात्रा में शामिल हो गए या असंग  हो कर अपनी विचार-मणियों को गुहवास दे दिया ?

ऐसे बहुत सारे सवाल सामने खड़े हो जायेंगे , अगर हम ' अँधेरे में ' को आधुनिकता की भारतीय परियोजना की विफलता और उसमें भारतीय बौद्धिक  की भूमिका की  काव्यात्मक  जांच -पड़ताल  के रूप में देखें . मानव -अस्मिता -विमर्श का ढांचा , तत्वतः गलत न  होते हुए भी , इस व्यापक परिप्रेक्ष्य को पाठक की आँखों से ओझल कर देता है . इस ढाँचे में वर्तमान तो सामने रहता है , लेकिन अतीत  से भविष्य तक की ऐतिहासिक प्रक्रियाएं नहीं .   यह  तिमिर में झरते समय को  दिखा देता  है , लेकिन समय में झरते तिमिर को नहीं . [१७] 
                            


                                                                                                                      कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या ?[१८]
                              

मुक्तिबोध के पाठक जानते हैं कि उनकी कविताओं में प्रश्न -चिह्नों की बहुतायत  रहती है . लेकिन जहां ये चिह्न न हों , प्रश्न वहाँ भी मौजूद रहते हैं . उनकी कविता सवाल पैदा करने वाली कविता है . बेचैन करने वाली,  चिंता में डालने वाली कविता है . लेकिन सवाल और सवाल में भी  फर्क होता है . छलमय प्रश्न छलमय उत्तरों  तक ले जाते हैं .  मुक्तिबोध की कविता वे सवाल पूछती है , जिनसे ये सब छलनाएँ उजागर हो जाएं . वे अपनी कविताओं में मनुष्यता के इतिहास और उसकी नियति के चित्र खींचते हैं . इन चित्रों में गति और आवेग होता है . इतिहास की टेढ़ीमेढ़ी चालें होती हैं . बारीक से बारीक अवलोकन होते हैं . जटिलताओं की बढ़ती हुई भीड़ होती है . इन्ही सब के बीच से सब से बुनियादी सवाल पैदा होते हैं . पढने वाले के पास ज़रा -सा धीरज हो तो ये सवाल उसे घेर लेते हैं . 

कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्‍नोत्‍तरी की तुंग प्रतिमाएं
गिराकर तोड़ देता हूं हथौड़े से
कि वे सब प्रश्‍न कृत्रिम और
उत्‍तर और भी छलमय,

समस्‍या एक-
मेरे सभ्‍य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी,सुन्‍दर व शोषण-मुक्‍त
कब होंगे?[१९]

मुक्तिबोध इस अर्थ में आधुनिक , गैर- रोमानी , कवि हैं कि वे प्रश्नोत्तरी  नहीं बनाते .  कृत्रिम  उत्तरों के लिए कृत्रिम  प्रश्न नहीं उठाते . बल्कि ऐसे सभी प्रश्नोत्तरियो को कविता के हथौड़े से तोड़ देते हैं . अज्ञेय की प्रसिद्द कविता 'असाध्य वीणा ' में प्रश्न उठाया गया है - 'वीणा सचमुच क्या है असाध्य?' वीणा को साध लेने वाले कलाकार के मुख से उत्तर दिलवाया गया  -'श्रेय नहीं कुछ मेरा :/मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-/वीणा के माध्यम से अपने को मैंने/सब कुछ को सौंप दिया था'. इस रहस्यवादी उत्तर तक पहुँचने के लिए  प्रश्न भी ख़ास तरह से, रहस्यवादी ढब में ,  गढा गया . रहस्य का उत्तर रहस्य ! कविता में जो कथा कही गयी है , उसमें अंतर्निहित असली सवाल कुछ और था . पूछा यह भी जा सकता था - वीणा क्यों है असाध्य ? तब शायद  बात यहां तक जाती कि जंगलों -गाँवों में स्वतः गूंजने वाली वीणा  दरबारों में आकर खामोश या 'मौन' क्यों हो जाती है !
 अज्ञेय  की कविता में जो प्रश्नोत्तरी है , उसकी तुलना इस प्रश्न से कीजिए -' कि बेबीलोन सचमुच नष्ट होगा क्या ?' . या इस से -'मेरे सभ्‍य नगरों और ग्रामों में/सभी मानव सुखी,सुन्‍दर व शोषण-मुक्‍त/कब होंगे' . ये ऐसे प्रश्न नहीं हैं , जिनके उत्तर आसानी से खोजे जा सकें . ये  और और प्रश्न पैदा करने वाले हैं . अज्ञेय और मुक्तिबोध का अंतर इतने से ही  प्रकट हो जाता है . इसके बावजूद पिछले कुछ  समय से यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि आज़ादी के बाद अज्ञेय हिन्दी के सब से बड़े कवि हैं . विडम्बना यह कि और  तो और  , स्वयं नामवर सिंह भी इस आयत को दुहराने लगे हैं . [२०] वही नामवर सिंह , जिन्हें नई कविता के केंद्र से अज्ञेय को विस्थापित कर मुक्तिबोध को स्थापित करने का श्रेय प्राप्त है .

' अँधेरे में 'कविता के अंत को ले कर सवाल उठाये  जाते रहे हैं . नामवर सिंह ने ' अँधेरे में :पुनश्च ' में इसका ज़िक्र किया गया है . कहा जाता है कि इस कविता का अंत रोमानी है . शायद क्रांतिकारी जनयूथ के दृश्य के कारण . जिस से जुड़ कर काव्यनायक के मन में  अपनी खोयी हुई अभिव्यक्ति को दुबारा पा लेने की उम्मीद पैदा होती है . नामवर सिंह '  इस  दृश्य का का बचाव करते हैं . यह कहते हुए कि यह युग की विकासमान शक्तियों के वैज्ञानिक बोध पर आधारित है . यह भी कहा जाता है  कि यह अंत कविता के समूचे प्रवाह से अनुस्यूत नहीं होता . जबरन जोड़ा गया जान पड़ता है .  मुक्तिबोध के मार्क्सवादी आशावाद का नमूना  है . दोनों आपत्तियां इस कविता को ' अस्मिता की खोज ' की कविता के रूप में पढने से पैदा होती  हैं .अगर हम इसे  ' परम्परागत बुद्धिजीवी ' के ' आंगिक बुद्धिजीवी ' में रूपांतरित होने की गाथा की तरह पढ़ें , तो यह अंत न केवल अप्रत्याशित नहीं लगेगा , बल्कि स्वाभाविक और अनिवार्य प्रतीत होगा . फासीवादी दमन का त्रासद अनुभव इस रूपांतरण का आधारभूत कारण है .  उस अनुभव के बाद  रूपांतरण का घटित न होना अधिक अस्वाभाविक है . 

समग्रता में पढ़ी जाए तो  ' अँधेरे में ' कविता में  कोई  बना- बनाया उत्तर नहीं मिलेगा . यह एक विराट प्रश्न चिह्न है भारत की आज़ादी के बाद के समूचे इतिहास पर .  ऐसा क्योंकर हुआ कि आज़ादी और लोकतंत्र का स्वप्न शुरुआत से ही फासीवाद के दुस्स्वप्न में  बदलता चला गया ? कौन-सी ऐतिहासिक भूल -गलतियाँ इसकेलिए जिम्मेदार थीं ? कविता इस समग्र इतिहास को एक फैंटेसी में बदलती है . कुछ इस तरह कि उसमें छुपे हुए भयानक प्रश्न उभर कर सामने  आ जाएं . यह एक साथ अतीत , वर्तमान और भविष्य के साथ आलोचनात्मक सम्वाद करती है . मुक्तिबोध की कविता कम से कम छः आयामों वाली कविता है . देश के तीन और काल के तीन .

 काल के तीन  आयामों में  इतिहास के साथ आलोचनात्मक संवाद करने वाले मुक्तिबोध हिन्दी-उर्दू के पहले कवि नहीं हैं . निराला , जयशंकर प्रसाद , तुलसीदास  ने ऐसा किया है . कबीर , फैज़ , फ़िराक , इकबाल , ग़ालिब और मीर ने भी , कुछ अलग तरह से , ऐसा किया है . निराला , प्रसाद और तुलसीदास ने मुक्तिबोध की तरह ही फैंटेसी के जरिये इतिहास से मुठभेड़ करते हैं . ये सभी मुक्तिबोध के पूर्वज कवि हैं . कविता का उत्तराधिकार भाषा और शैली तक सीमित नहीं होता . भाषा और  शैली की समानताएं प्रभाव दिखाती हैं , उत्तराधिकार नहीं . उत्तराधिकार  रचना- प्रक्रिया का मामला है . ये तीन कवि इतिहास के साथ संवाद की प्रक्रिया में फैंटेसी का निर्माण  करते हैं . ये अलग बात है कि तीनों एक ही तरह से फैंटेसी का निर्माण नहीं करते . 

 तुलसीदास , जयशंकर प्रसाद और मुक्तिबोध में एक महत्वपूर्ण समानता और है . तीनों इतिहास की निर्माण - प्रक्रिया में शासन - सत्ता की धुरी पर ध्यान केन्द्रित करते हैं .  शासन- सत्ता  इतिहास की गति और दिशा को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है . तीनों कवियों को इसका गहरा बोध है . तीनों इस अर्थ में राजनीतिक कवि हैं . तुलसीदास इसे बुरी  और अच्छी  सत्ता , लंका और रामराज्य  के रूप में ग्रहण करते हैं . लंका का विध्वंस करने के लिए रामराज्य की परिकल्पना सामने रखते हैं . कोई इस परिकल्पना से सहमत हो या असहमत , लेकिन तुलसीदास को इस बात का श्रेय जरूर है कि उन्होंने मनुष्य के जीवन में सत्ता की भूमिका के महत्व को समझा . और उसके स्वरूप पर विचार किया . 

जयशंकर प्रसाद को इस बात का बेहतर बोध है कि सत्ता का एक आतंककारी दमनकारी स्वभाव होता है . उसे अच्छी या बुरी सत्ता के खांचे में फिट करना मुश्किल है . मुक्तिबोध ने कामायनी की तीखी  आलोचना करते हुए भी प्रसाद जी की इस महत्ता को स्वीकार किया है - " प्रसाद जी की महत्ता इसी में है कि उन्होंने व्यक्तिवाद , राष्ट्रवाद , पूंजीवाद के उपस्थित स्वरुप को ध्यान में रख कर व्यक्तिवाद को शासन - सत्ता से सम्बद्ध कर दिया ."[२१] स्पस्ट करने के लिए उन्होंने कामायनी से अनेक उदाहरण दिए हैं . जैसे - 

भाव राष्ट्र के नियम यहाँ पर 
दंड बने हैं , सब कराहते .
करते हैं , संतोष नहीं है 
जैसे कशाघात प्रेरित से --
प्रतिक्षण करते ही जाते हैं 
भीति- विवश ये सब कम्पित -से. 
यहा  शासनादेश घोषणा 
विजयों की हुंकार  सुनाती 
यहाँ भूख से विकल दलित को 
पद- तल में फिर -फिर गिरवाती ![२२]

निराला भी ' राम की शक्तिपूजा ' में शक्ति और  अन्याय के समीकरण का उद्घाटन करते हैं - ' अन्याय जिधर है , उधर शक्ति ' ! लेकिन वे इस समीकरण को स्थायी नहीं मानते . न्याय का पक्ष भी कोशिश करे तो शक्ति को अपनी ओर खींच  सकता है .  जयशंकर प्रसाद की दृष्टि , अगर निराला के ही  शब्दों को कुछ बदल कर कहें  तो ,यह है कि  है शक्ति जिधर , अन्याय उधर ! मुक्तिबोध इस काव्य- राजनीतिक दृष्टि के साथ अधिक आत्मीयता महसूस करते हैं . वे प्रसाद की  आलोचना इस बात के लिए करते हैं कि सत्ता-शक्ति के इस अन्याय को पहचान कर भी प्रसाद जी  वास्तविक समाधान की दिशा में नहीं बढ़ते , एक तरह की काल्पनिक समरसता में पलायन कर जाते हैं . क्या ऐसा नहीं लगता कि अपनी कविता में अपनी तरह से मुक्तिबोध ने प्रसाद जी के इस अधूरे कार्य को उसके संगत पूर्ण निष्कर्षों तक पहुंचाने की कोशिश की है ?

मुक्तिबोध ने अपनी कविता और  आलोचना  में नयी कविता की राजनीति- विमुख , व्यक्ति -स्वातंत्र्य-केन्द्रित ,जड़ीभूत सौन्दर्य- दृष्टि की कठोर आलोचना की . उन्होंने राजनीतिक दृष्टि को , शक्ति -समीकरणों की चेतना को , कविता के केंद्र में स्थापित किया . लेकिन वे प्रगतिशील कविता की इकहरी राजनीतिक दृष्टि के भी कायल न थे . उन्हें ऐसी कविता की तलाश थी , जिसमें व्यक्ति -जीवन की आन्तरिकता और उसके सामाजिक यथार्थ में फांक न हो . वे कवि और आलोचक दोनों केलिए भीतर से बाहर और बाहर से भीतर की दोहरी यात्रा पर जोर देते थे . मुक्तिबोध के बाद की हिन्दी कविता उनके दिखाए इस तीसरे रास्ते की खोज करती दिखाई देती है . वह नयी कविता की एकान्तिक निजता और प्रगतिवाद की इकहरी सामाजिकता  से बचते हुए  अधिक  आत्मीय काव्य-राजनीतिक दृष्टि का विकास करती है, जिसमें मनुष्य के आतंरिक  जीवन की यातनाओं और  उल्लास  की अनदेखी नहींकी जाती . इसे यों भी कह सकते हैं कि वह निजी यातनाओं के राजनीतिक अभिप्राय खोजती हुई कविता है . रघुवीर सहाय इस काव्य -प्रवृत्ति की श्रेष्ठ उपलब्धि हैं . उनकी सब से प्रसिद्ध कविता ' रामदास ' मुक्तिबोध की  ' अँधेरे में ' के एक दृश्य की तरह पढ़ी जा सकती है , भले ही यह दृश्य एक  अलग काव्य-कालखंड में घटित होता है .   मृत्यु दल की शोभा यात्रा का एक दर्शक रामदास भी हो सकता है , जिसे भीड़ के सामने मार डाला जाता है और भीड़  मूक दर्शक बनी रहती है . यह सच है कि मुक्तिबोध की कविता में साधारण लोगों की भीड़ का ऐसा तटस्थ व्यवहार कभी न होता . जनता के गुणों पर मुक्तिबोध को जितना अगाध विश्वास है , उतना रघुवीर सहाय को नहीं है . लोकतंत्र की जिस त्रासदी के लिए मुक्तिबोध मुख्यतः नाभिनालबद्ध बौद्धिक वर्ग को जिम्मेदार  समझते हैं ,   रघुवीर सहाय उसकी जिम्मेदारी से साधारण जन को भी पूरी तरह बरी नहीं करते . इसे लोकतंत्र के फासीकरण की अगली अवस्था के रूप में भी देखा जा सकता है , जिसमें सत्ता का आतंक अधिक  व्यापक और आतंरिक हुआ है . दोनों कवियों में इस अंतर के बावजूद लोकतंत्र के फासीकरण की मूल चिंता साझा है . रामदास का हत्यारा उन्ही गलियों से निकल कर बाहर आता है , जहां लोगों की घनी आबादी है . इसमें साफ़ इशारा है कि फासीवाद कहीं बाहर से नहीं , लोकतांत्रिक निजाम के भीतर से ही निकल कर आता है . यह इशारा ' अँधेरे में ' कविता के अभिप्राय के एकदम मेल में है .

रघुवीर सहाय के साथ कवियों की एक पूरी पीढी , और बाद की कई पीढियां , कमोबेश कविता के इसी तीसरे रास्ते का अनुकरण करती हैं . यह तीसरा रास्ता मुक्तिबोध का दिखाया हुआ है . वे आज़ादी के बाद की  हिन्दी कविता के सबसे महत्वपूर्ण प्रस्थान विन्दु हैं . ऐसे में अशोक वाजपेयी की यह स्थापना आश्चर्यजनक ही कही जायेगी कि मुक्तिबोध एक ऐसे कवि  हैं , जिनका न कोई पूर्वज है , न वंशज . उनके लेखे '....इस बीहड़ भूगोल में ऊंचे तापमान के साथ मुक्तिबोध ने अपनी राह बनाने की कोशिश की . न वह राह ऐसी थी , जिस पर किसी पहले के पदचिह्न हों , न वह ऐसी बन पाई जिस पर बाद का कोई चलने की हिम्मत कर सके . "[२३]

अशोक वाजपेयी को मुक्तिबोध की कविता 'दुस्साहसपूर्ण विफलता  की गाथा' लगती है .[२४] रामविलास शर्मा को भी कुछ ऐसा ही  लगता था. कुछ लोग केवल वायलिन के मधुर संगीत से आनंदित हो सकते हैं. कुछ दूसरे लोग केवल तड़ित झंझा से प्रभावित हो पाते हैं. मुक्तिबोध की तड़िन्मय वायलिन बाकी लोगों के लिए है .




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[१]नेमीचन्द्र जैन सम्पादित , मुक्तिबोध रचनावली , भाग -२, राजकमल प्रकाशन , दिल्ली , १९८५  , पृ ३८६-३९० 
[२] "मुक्तिबोध के सामने एक भविष्य है और उस तक पहुँचने के निश्चित तरीके हैं।  इनसे उनके विचारों या कथ्य की कुछ  निश्चित सीमाएं बनती हैं , पर उनकी कविताओं के स्वरूप की सीमाएं नहीं बनतीं क्योंकि वे ज़्यादातर स्वतंत्र रूप से विकसित होती लगती हैं। "
-कुँअर नारायण , ' मुक्तिबोध की कविता की बनावट' , राजेन्द्र मिश्र संपादित ' तिमिर में झरता समय ' (२०१४. वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली ) में संकलित  
[३ ]" सब से बड़ी विडंबना यह थी कि  जिस मार्क्सवाद में मुक्तिबोध ने मानव मुक्ति का स्वप्न देखा था  -स्वयं उसका दर्शन आधुनिक सभ्यता के उन भौतिक मूल्यों का घोर समर्थक था - जो उस स्वप्न को इतने निर्मम ढंग से विकृत करते थे। "
- निर्मल वर्मा , 'मुक्तिबोध की गद्य कथा ', वही 
[४] "....  उनकी मार्क्सवादी उम्मीद के भोलेपन के बावजूद उनकी कविता अंतःकरण का दस्तावेज़ बनी रहती है। "
-अशोक वाजपेयी , " सूर्य को छूने उड़ा पक्षी :दुस्साहस और विफलता की गाथा ", वही 
[५]'

​"​
सब चुप
साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक् 
चिन्तकशिल्पकारनर्तक चुप हैं 
उनके ख़याल से यह सब गप है 
मात्र किंवदन्ती। 
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग 
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे। 
​"​

--- मुक्तिबोध  की कविता 'अँधेरे में ' से 
[६]शर्मा , रामविलास - ' नयी कविता और अस्तित्ववाद ' ( राजकमल  प्रकाशन , नई दिल्ली।  आवृति -२००३ , पृष्ठ -१३८ )  
[७] विनीता रघुवंशी , वर्तमान साहित्य , अगस्त २००६ 
[८] गोपाल प्रधान , ' भाष्य : भूल गलती " , समालोचन (ब्लॉग) , १४.०४.२०११ 
[९]  देखिये ' कामायनी : एक पुनर्विचार " का 'प्रथमतः "
[१०] सिंह , नामवर ; ' अँधेरे में ':पुनश्च ', कविता के नए प्रतिमान , राजकमल प्रकाशन , दिल्ले , १९८२ , पृष्ठ २३१ 
[११] मुक्तिबोध , ' कामायनी : एक पुनर्विचार '  (नेमिचन्द्र जैन संपादित ' मुक्तिबोध रचनावली -४ ' , राजकमल पेपरबैक , १९८५ , पृष्ठ ३३० ) 
[१२] जोशी , राजेश ;वास्तव  की विस्फारित प्रतिमाएं  ( 'एक कवि की नोटबुक ',राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली , २००४ ) , पृष्ठ -१४ 
[१३] आइंस्टीन , अल्बर्ट : on my participation in atomic bomb project ,http://www.atomicarchive.com/Docs/Hiroshima/EinsteinResponse.shtml

[१४]
​ डबराल , मंगलेश ; 'भविष्य की ओर जाती कविता ' ( पहल , जुलाई , २०१३ )​

[१५] सिंह , नामवर: कविता के नये प्रतिमान , राजकमल प्रकाशन , दिल्ली , प्रथम संस्करण -१९६८। 
[१६] सिंह , नामवर: कविता के नये प्रतिमान , राजकमल प्रकाशन , दिल्ली ,
​१९८२ , पृष्ठ २२२. ​
[१७] 'तिमिर में झरता समय ' राजेन्द्र मिश्र द्वारा सम्पादित और वाणी प्रकाशन , दिल्ली द्वारा प्रकाशित 'मु,क्तिबोध विमर्श संचयन ' है . प्रथम संस्करण -२०१४. इस संचयन में नामवर सिंह का लेख  'अँधेरे में :पुनश्च' भी संकलित है . 
​[१८] मुक्तिबोध , 'अन्तःकरण​  का आयतन ' (नेमीचन्द्र जैन सम्पादित , मुक्तिबोध रचनावली , भाग -२, राजकमल प्रकाशन , दिल्ली , १९८५ , पृष्ठ १४६ )
[१९] मुक्तिबोध , ' चकमक की चिंगारियां ' (नेमीचन्द्र जैन सम्पादित , मुक्तिबोध रचनावली , भाग -२, राजकमल प्रकाशन , दिल्ली , १९८५ , पृष्ठ २४३)
[२०] सिंह , नामवर ;' अज्ञेय : संकलित कवितायेँ ' (भूमिका देखिये ), नेशनल बुक ट्रस्ट , दिल्ली , २०१४ 
[२१ ]मुक्तिबोध , ' कामायनी :एक पुनर्विचार '(नेमीचन्द्र जैन सम्पादित , मुक्तिबोध रचनावली , भाग -४ , राजकमल प्रकाशन , दिल्ली , १९८५ )  पृष्ठ २५३
[२२ ]वही , पृष्ठ २५३ 
[२३]वाजपेयी , अशोक ; 'सूर्य को छूने उड़ा पक्षी : दुस्साहस और विफलता की गाथा ', राजेन्द्र मिश्र संपादित ' तिमिर में झरता समय ' (२०१४. वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली ) में संकलित , पृष्ठ २७९ 
[२४] वही , पृष्ठ २७६  




(आलोचना', जुलाई-सितम्बर 2015) में प्रकाशित)

'इसी दुनिया में' दोबारा

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