Friday, August 14, 2020

भारत-विभाजन : राजनीति, ज्ञानमीमांसा और प्रतिरोध


  ('आलोचना'- 59: 'विभाजन के सत्तर साल' अंक का सम्पादकीय) 

 

एहसासे-ज़ियाँ
कराची के एक मुशायरे में हबीब जालिब अपना कलाम पढ़ रहे थे. दसियों हज़ार की भीड़ थी. गर्मी बहुत थी. समंदर क़रीब  होने के चलते उमस भी. लोग हाथपंखों और रूमालों से कुछ हवा पैदा करते मुशायरे का आनंद ले रहे थे. जालिब ने अपनी मशहूर ग़ज़ल पढ़नी शुरू की: 'सरे  मेंबर वो ख़्वाबों का महल तामीर करते हैं/ इलाज़े  म नहीं करते फ़क़त तक़रीर करते हैं'. पाकिस्तान के हाकिमों पर यह एक तीखा व्यंग्य था. लोग गर्मी भूलने लगे.  तभी  एक अप्रत्याशित शे’र पढ़ा गया. 

हँसीं आँखों मधुर गीतों के सुंदर देश को खोकर 

मैं हैराँ  हूँ वो ज़िक्रेवादिए कश्मीर करते हैं!

तालियों की विराट गड़गड़ाहट से शामियाना गूँज उठा. तालियों की यह गूँज आश्चर्यजनक थी, क्योंकि यह समझा जाता है कि पाकिस्तान की जनता कश्मीर को लेकर अत्यंत भावुक है. कश्मीर पाकिस्तान की सियासत की धुरी है. पाकिस्तान की राजनीति में चमकने के लिए कश्मीर पर ज़्यादा से ज़्यादा उग्रता  दिखाना ज़रूरी समझा जाता है.  इस शेर में पाकिस्तानी सियासत के इसी पाखंड की धज्जियां उड़ाई जा रही थीं. फिर भी  इस शे’र को बेहद पसंद किया गया. 

हसीं आँखों और मीठे गीतों वाली बुलबुलों के जिस चमन हिन्दोस्तान को खो देने  की  पीड़ा  इस शे’र में है, उसकी भरपाई धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर से भी नहीं हो सकती, अगर किसी तरह मिल भी जाए. यह उस अद्भुत देश को खो देने का अहसास है जो सारे जहां से अच्छा है, और जिसकी हस्ती, बकौल इक़बाल, दुनिया के मिटाए मिटाई नहीं जा सकी.

यूनान, मिश्र और रोम जैसी महान हस्तियाँ  मिट गईं, मगर हिन्दोस्तान नहीं. ज़ाहिर है, इकबाल पराधीन भारत के मुकाबले यूरोपीय सभ्यता के सभी महान उत्थानों की धज्जियां उड़ा रहे हैं. यूनान नाम का देश और रोम नाम का शहर धरती पर आज भी मौजूद हैं. इक़बाल के ज़माने में भी भारत से बेहतर हालत में ही रहे होंगे. लेकिन वहाँ उनकी प्राचीन सभ्यताओं की निरन्तरता मौजूद नहीं है.

अल्लामा का इशारा इसके सिवा कुछ और नहीं हो सकता कि हिन्दोस्तान की तहज़ीबी निरन्तरता आज भी क़ायम है. शायद यही चीज इक़बाल की नज़र में इस देश को सारे जहां से अच्छा बनाती थी. लेकिन क्या सचमुच यह कोई अच्छी चीज़ थी?

दो सदियों की बेमिसाल लोकप्रियता के बावज़ूद इस तराने के आख़िरी शेर पर कम ध्यान दिया गया है. जबकि यह सबसे काव्यात्मक और रहस्यमय शेर है:

'इक़बाल' कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में।
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा।।

यह हमारे किस छुपे हुए दर्द का इशारा है, जिसे समझने वाला जहाँ में कोई नहीं ?

हबीब जालिब के शेर में इक़बाल के उसी देश के खो जाने का दर्द है, जिसने वहाँ मौजूद हज़ारों श्रोताओं को एक साथ उद्वेलित कर दिया.

 

‘आलोचना’ का अंक विभाजन से उपजे इस विराट क्षति-बोध यानी एहसासे-ज़ियाँ या ‘सेंस ऑफ़ लॉस’ के बारे में है.

इस एहसासे-ज़ियाँ का ज़िक्र करने से बचा जाता है. इसे भुला देने या कम से कम धुंधला कर देने की कोशिशें की जाती रही हैं. भारत की आज़ादी या पाकिस्तान के निर्माण के जश्न में इसे गुम कर देने की कोशिश की जाती है. यह कोशिश क़ामयाब नहीं  हुई, क्योंकि साहित्य और कलाओं ने इस क्षति-बोध को खो जाने नहीं दिया. कविता ने, उपन्यास ने, संगीत ने, चित्रकला ने, नाटक ने, सिनेमा ने, सोशल मीडिया ने. उन्होंने इसे सहेजा. सम्हाल कर रखा. इसका सामना करने और इसे समझने के तरीक़े खोजे. और यह सब अनेक तरीक़ों से, अनेक रूपों में किया. यह काम आज भी लगातार जारी है. ‘आलोचना’ के दो अंकों में विभाजन के इसी क्षति-बोध को रेखांकित करने की कोशिश है.

बेशक इस काम के लिए इतिहास की गलियों में भी ताकझांक करनी पड़ती है. लेकिन इतिहास का असली ज़ोर विभाजन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उद्घाटित करने पर है. उन तात्कालिक कारकों की पहचान करने पर है, जिन्हे इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सके. अक्सर यह डिबेट जिन्ना, नेहरू, पटेल और माउंटबेटन के इर्दगिर्द घूमती रह जाती है, या मृतकों और विस्थापितों की संख्या तय करने में जुट जाती है. ये सारे काम ज़रूरी हैं, लेकिन साहित्य और कलाओं का काम इनसे आगे का है. उन गहनतर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं को उद्घाटित करने का है, जिन तक इतिहास और समाज विज्ञान के उपकरणों की पहुँच नहीं है. जहां जाने के लिए एक कवि की अंतर्दृष्टि चाहिए.

पिछले कुछ समय से इतिहास की शास्त्रीय सीमाओं के पार जाने की एक कोशिश मौखिक इतिहास के रूप में सामने आई है. इनके द्वारा जारी ढेर सारी ऐसी कहानियां सामने आईं हैं, जो अब तक ‘खामोशी के उस पार’ पड़ी हुई थीं. यह उर्वशीबुटालिया की 2002 में छपी एक चर्चित किताब का नाम है. ऐसी बहुत-सी कोशिशों ने उस ओढ़ी हुई खामोशी को तोड़ने और कहीं गहरे दफ़न दिए गए अनकहे दर्द को उजागर करने का काम किया है. ये मौखिक इतिहास-कथाएँ आंकड़ों में क़ैद यातनाओं को उद्घाटित करने का ज़रूरी काम करती हैं. हाल ही में भारत और पाकिस्तान के बीस-बाइस साल के युवाओं ने एक कमाल का काम किया है। उन्होंने मिलकर 'बोलती खिड़की' नाम का फेसबुक पेज बनाया है, जिससे विभाजन की बिछड़ी हज़ारों कहानियां आपस में बात कर रही हैं। इन मर्मस्पर्शी कहानियों को पढ़ना शुरू कीजिए। आप समझ जाएंगी कि विभाजन केवल नक्शे पर है, केवल सरहदों पर है, दिलों में न कोई विभाजन था, न कोई है। यह वही एहसासेज़ियाँ है, जो सरहद के दोनों तरफ़ दिलों को दर्द के एक तार से जोड़ रहा है .

विभाजन की युगव्यापी पीड़ा जिस शिद्दत से उर्दू कविता में उभर कर आई, उस तरह किसी और ज़बान में नहीं। शायद उर्दू ने ही सबसे अधिक सहा है, और इसीलिए सबसे अधिक कहा है. कहानी में भी, कविता में भी. उर्दू के विश्वप्रसिद्ध अफ़सानानिगार और शायर बुनियादी रूप से विभाजन के क्षतिबोध के छायाकार हैं. ये छायाएँ अनेक रूप बदल कर आती हैं. सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई, किशन चंदर, कुर्तुलैन हैदर, इब्ने इंशा, अब्दुल्ला हुसैन और इंतज़ार हुसैन जैसे गद्य-लेखकों में वह सामने से दिखाई देती है. फैज़, जोश, नासिर क़ाज़मी और अख्तर शीरानी जैसे शायरों के यहाँ कविता के स्वभाव के अनुरूप, मनुष्यता के और बहुत सारे दुखों के साथ घुल-मिल कर आती है. जॉन एलिया की यह ग़ज़ल एक उदाहरण है। यह एक ऐसी ग़ज़ल है, जिसके आँसू दिखाई नहीं देते, लेकिन भीतर कहीं धधकते रहते हैं ।

हम तो जैसे वहाँ के थे ही नहीं 
बे-अमाँ थे अमाँ के थे ही नहीं

हम कि हैं तेरी दास्ताँ यकसर 
हम तिरी दास्ताँ के थे ही नहीं

उन को आँधी में ही बिखरना था 
बाल ओ पर आशियाँ के थे ही नहीं

अब हमारा मकान किस का है 
हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं

हो तिरी ख़ाक-ए-आस्ताँपे सलाम 
हम तिरे आस्ताँ के थे ही नहीं

हम ने रंजिश में ये नहीं सोचा 
कुछ सुख़न तो ज़बाँ के थे ही नहीं

दिल ने डाला था दरमियाँ जिन को 
लोग वो दरमियाँ के थे ही नहीं

उस गली ने ये सुन के सब्र किया 
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं

 

नासिर क़ाज़मी की समूची शायरी उसी एहसासेज़ियाँ को सम्बोधित है जो विभाजन की देन था. अपनी जिस मशहूर ग़ज़ल में वे कहते हैं- ‘कुछ तो एहसासेज़ियाँ था पहले’, उसी में आगे फ़रमाते हैं:

डेरे डाले हैं बगुलों ने जहाँ
उस तरफ़ चश्म-ए-रवाँ था पहले

अब वो दरिया न बस्ती न वो लोग
क्या ख़बर कौन कहाँ था पहले

उर्दू शायरी को उदासी के आदाब सिखाने वाले नासिर काज़मी जिस खो गए चश्मे रवां, दरिया और बस्ती को खोज रहे हैं, उसी की खोज कुर्रतुलऐन हैदर ने अपने महा-आख्यान ‘आग का दरिया’ में किया है. उसी के गुम होने की कहानी अब्दुल्ला हुसैन ‘उदास नस्लें’ में कहते हैं. सन इकहत्तर की लड़ाई की पृष्ठभूमि में उसी ‘बस्ती’ की तलाश इंतज़ार हुसैन को भी रहती है. यशपाल ‘झूठा सच’ में उसी की बर्बादी की दास्ताँ लिखते हैं. भीष्म साहनी ‘तमस’ में उसी के ऊपर मंडलातीं चीलों का पीछा करते हैं.

फैज़ ने अपनी मशहूर नज़्म ‘सुब्हे आज़ादी में इस क्षति को कुछ अलग ढंग से देखा. उनके लिए वह अतीत के किसी स्वर्णद्वीप की क्षति न होकर भविष्य के स्वप्नलोक की क्षति थी. उस उजली सुबह की क्षति थी, जिसे आना था, लेकिन जो अभी नहीं आई. आई एक शबगज़ीदा सहर, जिसकी नाउम्मीदी खून के धब्बों की शक्ल में इकहत्तर की जंग के बाद इस शेर में प्रकट हुई:

कब नजर में आएगी बेदाग़ सब्जे की बहार

खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

जो बात फैज़ साहेब ने ‘सुब्हे आज़ादी’ में इशारों में कही, उसे इंकलाबी शायर जोश मलीहाबादी ने अपनी नज़्म ‘मातमे आज़ादी में साफ़ साफ़ बयान कर दिया. यह भी बता  दिया कि इस मातम के लिए पहला श्रेय किसको मिलना चाहिए.

शाखें हुईं दो-नीम जो ठंडी हवा चली

गुम हो गयी शमीम जो बादे-शबा चली

अंग्रेज ने वो चाल बा-जोरो-जफ़ा चली

बरपा हुई बरात के घर में चला-चली

अपना गला खरोशे-तरन्नुम से फट गया

तलवार से बचा तो रगे-गुल से कट गया

विभाजन के बाद हिंद-पाक ख़ित्ते में मेहंदी हसन और गुलाम अली जैसे दो महान ग़ज़ल गायकों का उभरना एक परिघटना है. दोनों गायकों ने जैसे ग़ज़ल गायकी का पुनराविष्कार किया और उसे अभूतपूर्व लोकप्रियता दिलाई. मेहदी हसन की आवाज़ में जो एक ख़ास तरह का दर्द है, क्या है वो? बहुत ठहरा हुआ-सा, सांद्र, सदियों की उदास अनुगूंजें समाए, ज़मीनी।

अबकि हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें ..

क्या यह बंटवारे का दर्द नहीं है?

जो मेहँदी हसन की जीवन कथा जानते हैं, उन्हें मालूम है कि उनका मन जोधपुर जिले के अपने जन्म-ग्राम लूणा के लिए किस क़दर तड़पता था.

पटियाला घराने के गायक ग़ुलाम अली ने, जिनके गुरु बड़े गुलाम अली खान साहेब, विभाजन के बाद अपने जन्म-ग्राम कसूर (लाहौर) जा कर भी जल्दी ही स्थायी रूप से रहने के लिए भारत लौट आए थे, अपनी गायकी से नासिर क़ाज़मी की ग़ज़लों को सबसे ज़्यादा लोकप्रियता दिलाई. वे उसी इलाके के रहने वाले थे, जो बाद में भी पाकिस्तान ही रहा, लेकिन एहसासेज़ियाँ के दर्द का रिश्ता किसी इलाक़े से नहीं एक तहज़ीब से है. यह दर्द छलकता है, जब ग़ुलाम अली उदासी में डूबे हुए स्वर में गाते हैं:

भरी दुनिया में जी नहीं लगता

जाने किस चीज की कमी है अभी .

 

उपनिवेश और देश  

कुछ  सवाल यहाँ लाज़िमी हैं.

क्या सचमुच ‘भारतीय सभ्यता’ जैसी कोई चीज थी? अनगिनत जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों में विभाजित इस देश में क्या सचमुच कोई ऐसी बात थी, जो इसकी एक सांझा पहचान बनाती हो?

क्या भारतीय सभ्यता की ‘निरन्तरता’ जाति, धर्म, जेंडर और वर्ग जैसी श्रेणियों पर आधारित शोषण के एक खूबसूरत बारीक मकड़जाल का ही दूसरा नाम नहीं है? यह अगर टूट बिखर जाए, यानी एक महाजाल की जगह उसके हल्के छोटे टुकड़े बचे रहें तो शोषित जनता के लिए इसमें मातम मनाने वाली बात क्या है?

क्या ‘भारतीय सभ्यता’ एक मिथक मात्र नहीं है, जिसे कथित राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान , ख़ास तौर पर, हिंदू भद्रवर्गीय बुद्धिजीवियों के द्वारा गढ़ा गया, ताकि उपनिवेश-विरोधी आन्दोलन के शामियाने में अपने लिए स्वायत्तता मांग रहे अल्पसंख्यक और दलित समुदायों को हाशियों तक महदूद रखा जा सके?

भारत, भारतवर्ष, हिंद, हिन्दोस्तान या इंडिया जैसी प्राचीन संज्ञाएँ क्या किसी एक ही सुपरिभाषित सभ्यता का संकेत करती हैं या अनेक सभ्यता-संस्कृतियों के एक ढीलेढाले समूह का?

राष्ट्र या नेशन आधुनिक अर्थ में, बकौल एंडरसन, आख़िरकार एक परिकल्पित समुदाय ही है तो क्या भारतीय राष्ट्रीयता की परिकल्पना एक इकाई के रूप में विकसित हो रही थी? या अनेक राष्ट्रीयताओं के समुच्चय के रूप में?

एंडरसन मानते हैं कि यूरोप में आधुनिक राष्ट्र का उदय औद्योगिक क्रांति, जनभाषाओं के प्रेस के प्रसार और प्रिंट पूंजीवाद के विकास के साथ हुआ. यूरोप में भाषा आधारित राष्ट्रीयताओं के संगठन का यह बड़ा कारण है. लेकिन भारत में यह प्रक्रिया भिन्न ढंग से घटित हुई. जनभाषा प्रेस के प्रसार के साथ भाषिक जातीयताओं का विकास हुआ, लेकिन उसी के साथ एक वृहत्तर भारतीय राष्ट्रीयता की परिकल्पना भी चलती रही. बंगाली जातीयता की चेतना से प्रेरित गीत ‘वंदेमातरम’ की अखिल भारतीय लोकप्रियता इस सचाई का एक रोचक उदाहरण है. स्वाधीनता-संग्राम की पूरी अवधि में संगठित और परिभाषित होने वाले किसी भी भाषिक-जातीय समूह ने स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में कल्पित नहीं किया. रवीन्द्रनाथ , अल्लामा इकबाल और  प्रेमचन्द से लेकर सुब्रह्मन्यम भारती तक राष्ट्र की कल्पना में समूचा भारत शामिल होता है.

हिंदी-पट्टी यानी ‘सूबा हिन्दुस्तान’ की हिन्दुस्तानी बोली दो स्वतंत्र भाषाओं – उर्दू और हिंदी – के रूप में आगे बढ़ी. इन दो भाषाओं का उत्थान एक स्तर पर बहुत सहज और स्वस्थ ढंग से हुआ. लेकिन एक दूसरे स्तर पर उसने साम्प्रदायिक रूप ले लिया.

एक ही व्यक्ति भारतेंदु के नाम से हिंदी में और रसा के नाम से उर्दू में लिख सकता था, और दोनों जगह स्वीकृत हो सकता था. इंशा अल्ला खां हिंदी और उर्दू  में एक साथ अपनी स्वतंत्र पहचान बना सकते थे. प्रेमचन्द हिंदी और उर्दू दोनों के महानतम अफ़सानानिगार तस्लीम किए जा सकते थे. कबीर, सूर, तुलसी, मीरा और कुछ हद तक छायावादी कवि भी उर्दूदां जमात के बीच पढ़े और सराहे जा सकते थे. मीर, ग़ालिब और फैज़ जैसे इंक़लाबी शायर हिंदी के पाठकों के बीच उतने ही मकबूल हो सकते थे. ये सभी उदाहरण दोनों की सहज सह-उपस्थिति के हैं.

लेकिन हिंदी और उर्दू हिंदू और मुसलमान की नई बनती राजनीतिक पहचानों से जुड़ गई. कुछ लोग मानते हैं कि हिंदी और उर्दू के सम्प्रदायीकरण ने ही देश के विभाजन की भूमिका बनाई. लेकिन यह एक तरह की प्रयोजनमूलक या टेलिअलॉजिकल व्याख्या है. न तो सावरकर हिंदी भाषी थे, न जिन्ना उर्दूभाषी. लेकिन दोनों ने क्रमशः हिंदी और उर्दू को अपने साम्प्रदायिक राजनीतिक अभियान की धुरी बनाया. लेकिन हिंदी और उर्दू के किसी बड़े लेखक या कवि ने ऐसा नहीं किया.

निराला पर हिंदू राजनीतिक अस्मिता का जितना प्रभाव है, उतना ही इक़बाल पर मुस्लिम राजनीतिक पहचान का. निराला को जितना हिंदू अतीत का अभिमान है, उतना ही इक़बाल को मुस्लिम इतिहास का. लेकिन दोनों न तो साम्प्रदायिक हैं और न ही द्विराष्ट्रवादी!

हिंदू और मुसलमान की धार्मिक पहचानें राजनीतिक पहचानों में कैसे बदलती गईं? रूपांतरण की इस प्रक्रिया में औपनिवेशिक राज्य की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता. यह भूमिका ‘फूट डालो और राज करो की उस बहुचर्चित रणनीति तक सीमित नहीं थी, जिसके उदाहरणों के रूप में बंग-भंग से लेकर कैबिनेट मिशन तक की बातें सामने रखी जाती हैं.

शायद इनसे कहीं अधिक प्रभावशाली थी, औपनिवेशिक ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया, भारतीय अतीत की हिंदू काल और मुस्लिम काल के रूप में पुनर्रचना, जिसे सबसे पहले जेम्स मिल के ‘हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया में सूत्रबद्ध किया गया. हिंदू और मुस्लिम गौरव की सारी प्रेरणाओं का स्रोत यही औपनिवेशिक इतिहास लेखन है.

इस इतिहास लेखन ने मध्यकाल के भारतीय इतिहासबोध को बदल दिया. इसने हिंदू और मुसलमान को दो शत्रु सेनाओं के रूप में एक दूसरे के सामने खड़ा कर दिया, जिनके बीच समय-समय पर संधि-वार्ताएं तो हो सकती थीं, लेकिन पूर्ण शांति कभी नहीं. यह भी कि मध्यकाल मुसलमान सेना से हिंदू सेना की पराजय का काल था. नतीजतन इस ऐतिहासिक पराजय का हिसाब बराबर करना हिंदू गौरव की स्थापना के लिए आवश्यक कार्यभार बन जाता है.

यह बोध हाली से लाकर इक़बाल तक को और मैथिलीशरण गुप्त से लेकर निराला तक को उद्वेलित तो करता है. लेकिन बहुलात्म समन्वय पर आधारित भारतीय अंतर्दृष्टि को विस्थापित नहीं कर पाता. लेकिन यह भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का आधारभूत सिद्धांत बन जाता है. आज के भारत का मन्दिर-मस्जिद विवाद इसी सिद्धांत की एक परिणति है.    

इस विकृत बोध को अनेकानेक तरीक़ों से जन-साधारण तक पंहुचाने के यत्न किए गए. लेकिन सब कुछ के बावजूद यह विभाजित इतिहासबोध जन-स्मृति को पूरी तरह विस्थापित न कर सका. विभाजन के एक दशक बाद आई फिल्म ‘मुगले आज़म’ उपमहाद्वीप की सफलतम फिल्मों में गिनी जाती है. इस फिल्म की  विपुल लोकप्रियता आज तक बनी हुई है. यह भारतीय अतीत की उस जन-स्मृति का जीवंत प्रमाण है, जिसमें मुगल आख्यान हर भारतीय घर की कहानी का हिस्सा है. फिल्म ‘मुगले आज़म’ विभाजन की राजनीति का कलात्मक प्रतिकार भी है .  

लेकिन हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य का सारा ठीकरा उपनिवेश के माथे पर ही नहीं फोड़ा जा सकता. इस वैमनस्य का एक शक्तिशाली देसी स्रोत था - भारतीय जाति-व्यवस्था. इस्लाम की वैचारिक उपस्थिति और मुसलमानों की भौतिक निकटता जाति-व्यवस्था के सामने एक जीवंत ख़तरे की तरह उभरती हैं.

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन मुसलमानों द्वारा पराजित हिन्दुओं की कातर प्रार्थना के रूप में दिखाई देता है. हिंदू-मुसलमान संघर्ष को मध्यकाल के मुख्य द्वंद्व के रूप में रेखांकित करना भारतीय इतिहास लेखन की औपनिवेशिक पद्धति को हिंदी साहित्य के इतिहास पर लागू करना है. यही प्रभाव ‘दूसरी परम्परा की खोज’ करने वाले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ऊपर भी है .

वे स्वयं भक्ति आन्दोलन को इस्लाम की चुनौती के समक्ष हिंदू कोंसिलिडेशन की कोशिश के रूप में देखते हैं. द्विवेदी जी अपनी पुस्तक ‘कबीर में साफ़-साफ़ कहते हैं कि इस्लाम भारतीय जाति-व्यवस्था को मिली पहली गम्भीर चुनौती थी, जिसने हिंदू समाज को झकझोर दिया था.

मुसलमान के प्रति सवर्ण हिंदू की असहजता का बड़ा  कारण यह है कि उसने भारत में प्रवेश करने वाले अन्य जातीय समुदायों की तरह हिंदू जाति-व्यवस्था में ख़ुद को समाहित नहीं किया. मध्यकाल के किसी हिंदू आचार्य या कवि ने इस चुनौती का उल्लेख नहीं किया. यह असहजता निश्चय ही उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के लेखकों की खोज है.

सवर्ण हिंदू की यह असहजता सवर्ण (अशराफ़) मुसलमान के मन में हिंदू वर्चस्व के भय में रुपान्तरित हो जाती है. जिन्ना का कथन, कि अगर हिन्दुओं के हाथ में सत्ता आई तो वे मुसलमानों को हमेशा के लिए शूद्र बना देंगे, इसी भय की अभिव्यक्ति है. यह भय कि जातिवादी सवर्ण हिंदू मुसलमान को म्लेच्छ समझते हैं. सहयोग और बराबरी की बातें तभी तक हैं जब तक वे सत्ता से वंचित हैं.

भारत की हिंदू-मुस्लिम समस्या एक स्तर पर सवर्ण हिन्दुओं और अशराफ़ मुसलमानों के बीच की सत्ता-प्रतियोगिता थी, जिसे राष्ट्रीय समस्या का रूप दे दिया गया.

 

 दर्दे-निहां हमारा 

१८७६ के आसपास रचे गए और १८८२ में ‘आनन्द मठ’ उपन्यास में शामिल कर प्रकाशित किए गए गीत ‘बंदे मातरम’ में भारतमाता की परिकल्पना देवी के रूप में की गयी थी. इस देवी की छवि बंगाल में प्रचलित दुर्गा या शक्ति से मिलती-जुलती है. उपन्यास में भारत माता को बंदिनी बनाने वाले आततायी अंग्रेज़ नहीं, मुसलमान जमींदार दिखाए गए थे! इन दो कारणों से इस गीत को मुसलमानों के लिए अनुपयुक्त समझा जाता रहा है.

लेखक ने स्वयं इस तथ्य का उल्लेख किया है कि यह उपन्यास संन्यासी विद्रोह पर आधारित था, जो बंगाल में अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हुआ था. उपन्यास में अंग्रेजों को निशाना न बनाने का कारण इसके सिवा कुछ और नहीं हो सकता कि सरकारी नौकर होने के नाते लेखक अंग्रेज़ी राज पर सीधा हमला करने से बचना चाहता हो.

उपन्यास का समूचा तेवर राजनीतिक है. धार्मिक या साम्प्रदायिक नहीं. उपन्यास और गीत की प्रचंड लोकप्रियता का कारण है शक्ति की मौलिक कल्पना. बंगालियों की कल्पना में दुर्गा की जगह भारत माता को बिठा देना असली सांस्कृतिक क्रांति थी. यह मुस्लिम-विरोधी न थी. इसका सबसे स्पष्ट प्रमाण यह है कि इसमें भारत माता की सात करोड़ संतानों को उनकी शक्ति के असली स्रोत के रूप में चित्रित किया गया है. उस समय बंगाल की समूची जनसंख्या सात करोड़ के आसपास थी. इसमें हिंदू मुसलमान दोनों शामिल थे. वंदेमातरम राजनीतिक संदेश और राष्ट्रीय काव्य के रूप में बहुत समय तक हिन्दुओं और मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय रहा.

कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि देवता की तरह देश की वन्दना करना मूर्तिपूजा का एक रूप है. कुछ मुसलमान इस कारण भी इस गीत से परहेज करते हैं. उधर देशभक्ति का मतलब ‘हिंदुत्व’ समझने वाले कहते हैं कि वंदेमातरम ही देशभक्ति की असली कसौटी है. आख़िर इसी कसौटी के बल पर कतिपय मुसलमानों की देशभक्ति को संदिग्ध ठहराया जा सकता है! साम्प्रदायिक विचारधारा अपनी बड़ाई से नहीं, दूसरे की बुराई से पहचानी जाती है.

इसी ज़बरदस्ती के कारण मुस्लिम लीग को यह कहने का मौक़ा मिलता था कि वंदेमातरम के बहाने मुसलमानों पर हिंदू मान्यताएं थोपी जा रही हैं. सन सैंतीस के बाद बनी कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने कहीं-कहीं स्कूलों और सरकारी दफ़्तरोंमें वंदेमातरम शुरू करवाया था. लीग इसे कांग्रेस सरकार के हिंदू सरकार होने का एक और सबूत मानती थी. लेकिन लीग के ध्यान में यह नहीं था कि उनके प्रेरणा पुरुष और अध्यक्ष मुहम्मद इक़बाल भी देश की मिट्टी की वन्दना देवता के रूप में कर चुके थे:

पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है/ ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है

१८७९ में सर सैयद अहमद खान की प्रेरणा से रचा गया मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली का ‘मुसद्दस’ प्रकाशित हुआ, जो भारतीय मुसलमानों के नवजागरण का आधारभूत ग्रन्थ बन  गया. लेकिन यह ग्रन्थ भारत की चिंताओं के बारे में न होकर दुनिया में इस्लाम के उत्कर्ष और पराभव के बारे में था. भारत में मुसलमानों की दुरवस्था को इस विश्वव्यापी मुस्लिम पराभव की एक कड़ी के रूप में देखा गया. घोषित रूप से मुस्लिम काव्य होने के बावज़ूद ग़ैर-मुस्लिमों, ख़ास कर हिन्दुओं पर इसका गहरा असर था. दिलचस्प है यह देखना कि किस तरह लोगों ने ‘मुसद्दस’ के धार्मिक-साम्प्रदायिक कथ्य की उपेक्षा करते हुए राष्ट्रीय और जातीय जागरण के उसके संदेश को पहचाना और अपनाया.

१९१२ में लिखा गया और १९१४ में प्रकाशित ‘भारत-भारती ‘मुसद्दस’ से प्रत्यक्षतः प्रेरित था. राष्ट्रकवि कहे गए मैथिलीशरण गुप्त ने इस रचना में ठीक ‘मुसद्दस’ के तर्ज़ पर हिन्दुओं के पराभव की कथा लिखी और उन्हें जगाने की भरपूर कोशिश की. राष्ट्रकवि ने अपने काव्य की भूमिका में स्वयं इस तथ्य का उल्लेख किया है, हाली के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है. इस रचना पर अंग्रेज़ इतिहासकारों के बनाए इतिहासबोध का किंचित असर है. मुस्लिम राजत्वकाल की भरपूर निंदा है, लेकिन इस्लाम या मुसलमान का विरोध नहीं है. मुसलमानों के योगदान को स्वीकार किया गया है. अकबर की तो अलग से भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है.   

‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा यानी ‘तराना-ए-हिंद’ की रचना इक़बाल ने सन १९०५ में की थी. इस रचना में ‘हिंदी शब्द हिन्दुस्तानियों के लिए आया है, जिनके मज़हब उनको आपस में बैर रखना नहीं सिखाते थे.

लेकिन कुछ ही समय बाद, १९०८ के आसपास इकबाल ने ही ‘तराना-ए-मिल्ली’ लिखा, जिसमें कहा गया था: ‘चीनो अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा / मुस्लिम हैं वतन है, सारा जहां हमारा’. कहते हैं, यह राष्ट्रवादी इक़बाल के इस्लामवादी हो जाने का घोषणापत्र है.

बाद में, सन १९५८ में, एक फिल्म आई, ‘फिर सुबह होगी. इस फिल्म में साहिर लुधियानवी ने एक गीत लिखा, जिसे ‘तराना-ए-हिंद‘ और ‘तराना-ए-मिल्ली’ – दोनों की यथार्थवादी पैरोडी कह सकते हैं. दोनों तरानों से ली गयी कुछ लाइनें इसमें शामिल हैं:

‘चीन ओ अरब हमारा, हिन्दोस्तान हमारा
रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा
चीन ओ अरब हमारा .… 

खोली भी छिन गयी है, बेंचें भी छिन गईं हैं
सड़कों पे घूमता है, अब कारवाँ हमारा
जेबें हैं अपनी खाली, क्यों देता वरना गाली
वो संतरी हमारा, वो पासबां हमारा
चीन ओ अरब हमारा


२९ दिसम्बर १९३० को इलाहाबाद में आल इंडिया मुस्लिम लीग के २५वें अधिवेशन में  सर मुहम्मद इक़बाल ने वह प्रसिद्ध अध्यक्षीय भाषण दिया जिसे पाकिस्तान की परिकल्पना का बीज वक्तव्य समझा जाता है. इसी भाषण में पहली बार यह धारणा पेश की गयी कि पश्चिमोत्तर के मुस्लिम बहुल प्रान्तों को मिलाकर एक स्वशासित राज्य का निर्माण करना, कम से कम पश्चिमोत्तर के, मुसलमानों की अंतिम नियति है.

इसी बिना पर कहा जाता है कि पाकिस्तान इकबाल का स्वप्न था, जिसे जिन्ना ने साकार किया.

अगर 1930 के लीग अधिवेशन में इकबाल द्वारा दिए गए अध्यक्षीय भाषण को देख लिया जाए तो इतिहास के कुछ भरम दूर हो सकते हैं.

इस अच्छे-खासे दार्शनिक भाषण में इक़बाल सबसे पहले इस्लाम और राष्ट्रवाद की चर्चा करते हैं. यूरोप का प्रान्तिक (टेरिटोरियल) राष्ट्रवाद एक खंडित चेतना है. यह ईसाई द्वैतवाद की उपज है, यह इस्लाम की अद्वैत दृष्टि और अखंड मानवीय चेतना के विरुद्ध हैं. राष्ट्र ज़मीन का टुकड़ा नहीं, बल्कि एक तरह की ‘नैतिक चेतना है. वे लगातार यूरोपीय ईसाई नज़रिए और इस्लाम के बीच के कंट्रास्ट को रेखांकित करते हैं. इस प्रसंग में वे हिंदू या भारतीय नज़रिए का उल्लेख नहीं करते. लेकिन अखंड मानवीय चेतना, अद्वैत और नैतिक चेतना के रूप में राष्ट्र की उनकी ये व्याख्याएं महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी और गुरुदेव की धारणाओं की संगति में हैं. यहाँ निराला के इस वाक्य को याद किया जा सकता है, ‘दीन इस्लाम अद्वैत की रौशनी लेकर फैला.’

लेकिन प्रान्तिक राष्ट्रवाद के खंडन का यह मतलब नहीं कि इक़बाल के भारत प्रेम में कोई कमी आ गयी है. वे अपने भाषण की शुरुआत में एक आश्चर्यजनक बात कहते हैं: ‘Indeed it is not an exaggeration to say that India is perhaps the only country in the world where Islam, as a people-building force, has worked at its best.’ (‘ऐसा कहने में सचमुच कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां एक जन-निर्मात्री शक्ति के रूप में इस्लाम ने श्रेष्ठतम कार्य किया है.’)

इक़बाल के सामने अरब देश भी हैं, फारस भी है, तुर्की भी है, अफगानिस्तान भी है. लेकिन इस्लाम उनके लेखे अपने श्रेष्ठतम रूप में प्रस्फुटित हुआ भारत में! भाषण के अंत में वे यह भी साफ़ कर देते हैं कि भारत के भीतर एक एकीकृत मुस्लिम राज्य की ज़रूरत इसलिए है कि भारतीय इस्लाम को अरबी साम्राज्यवाद के ठप्पे से बचाया जा सके: ‘...an opportunity to rid itself of the stamp that Arabian Imperialism was forced to give it....’

ज़ाहिर है, ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा लिखने वाले इकबाल 1930 में भी वही सोचते हैं. यह एक मिथ्या प्रचार है कि इक़बाल बदल गए, भारत-प्रेमी की जगह पाकिस्तान-परस्त हो गए. इस भाषण में इक़बाल ने मुसलमानों के किसी स्वतंत्र देश का विचार पेश नहीं किया था. ‘भारत के भीतर एक मुस्लिम भारत’ की बात कही थी. मूल विचार यह था कि पश्चिमोत्तर के मुस्लिम-बहुल प्रान्तों को एक संयुक्त प्रान्त या राज्य के रूप में पुनर्गठित करना चाहिए. इकबाल ने बंगाल का ज़िक्र नहीं किया था.

भारत के भीतर एकीकृत मुस्लिम राज्य की ज़रूरत क्या थी? भारत धीरे-धीरे लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा था. डर यह था कि आज़ाद भारत में संख्या बल के कारण हिन्दुओं का राजनीतिक वर्चस्व कायम हो जाएगा. इससे मुसलमानों की अपनी संस्कृति, उनका सामाजिक संगठन और सत्ता में उनकी हिस्सेदारी ख़तरे में पड़ सकती है. मुसलमानों का भारत के भीतर अपना एक विशाल राज्य  होगा, जहां वे बहुमत में होंगे, तो निर्द्वन्द्व भाव से अपने लिए अनुकूल जीवन शैली का निर्माण कर सकेंगे. 

लोकतांत्रिक भारत में बहुसंख्यक हिन्दुओं का वर्चस्व होगा, यह भय पाकिस्तान के समूचे आन्दोलन की जड़ था. क्या यह भय काल्पनिक था? इस भय के पीछे थी, ‘हिंदू’ और ‘मुसलमान’ की राजनीतिक पहचानों के निर्माण की प्रक्रिया. अंग्रेजों के पहले ये महज धार्मिक और साम्प्रदायिक पहचानें थीं. १८५७ के बाद  हिंदू और मुसलमान राजनीतिक श्रेणियों के रूप में ढलने लगे थे. ‘द्विराष्ट्रवाद’ का सिद्धांत इसी प्रक्रिया की वैचारिक परिणति थी, जिसे १९३७ में सावरकर ने और १९४० में जिन्ना ने सूत्रबद्ध किया. लेकिन इक़बाल के सन तीस के भाषण पर इस विचार की कोई छाया नहीं थी.

इस भाषण में इक़बाल यूरोपीय ढंग के एकाश्म राष्ट्रवाद का खंडन करते हुए भारतीय राष्ट्रीयता की मौलिक कल्पना पेश करते हैं: ‘The unity of an Indian nation, therefore, must be sought not in the negation, but in the mutual harmony and cooperation, of the many....If an effective principle of cooperation is discovered in India, it will bring peace and mutual goodwill to this ancient land which has suffered so long, more because of her situation in historic space than because of any inherent incapacity of her people. And it will at the same time solve the entire political problem of Asia.’ (इसलिए भारतीय राष्ट्र की एकता अनेक के निषेध में नहीं बल्कि परस्पर सामंजस्य और सहयोग में ढूँढनी चाहिए.... अगर भारत में सहयोग का कोई असरदार सिद्धांत तलाश लिया गया तो वह इस प्राचीन भूमि में शांति और पारस्परिक कल्याण-भाव को संभव करेगा, ऐसी प्राचीन भूमि जिसने लम्बे समय तक यातना सही है, अपने लोगों की किसी अन्तर्निहित अक्षमता के कारण उतना नहीं जितना ऐतिहासिक अवकाश में अपनी अवस्थिति के कारण. और वह [सहयोग का सिद्धांत] लगे हाथ एशिया की समग्र राजनीतिक समस्या को भी हल करेगा.’)

इन पंक्तियों को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे इक़बाल ‘सारे जहां से अच्छा की अपनी व्याख्या पेश कर रहे हों. समझा रहे हों कि सारे जहां से अच्छे हिन्दोस्तान की प्राचीन भूमि का ‘दर्देनिहां' – अलक्षित वेदना - क्या है.

भारत में संस्कृतियों, भाषाओं, परम्पराओं, जातियों, धर्मों और आस्थाओं की इतनी बहुलता है, और हर इकाई अपनी स्वकीयता को लेकर इतनी आग्रही है कि उन सबकी उन्नति, और सबके साथ भारतीय समग्र की उन्नति केवल पारस्परिक सामंजस्य और सहयोग से ही सम्भव है. यह विविधता में छुपी हुई किसी एकता की तलाश से नहीं, ‘अनेक के समन्वय से सम्भव है.

भारत में कभी श्रद्धा का कोई एक वर्चस्वमान केंद्र नहीं रहा. एकेश्वरवाद अपनी जगह, देवी देवताओं की अनन्त कतार अपनी जगह. तौफीक़ अपनी जगह, पीरों-फकीरों की बहार अपनी जगह. 

भारत की राष्ट्रीयता यूरोप की तरह एकात्म नहीं हो सकती, इसे बहुलात्म होना होगा. यह बहुलात्मता हमेशा से भारतीय जीवन शैली की एक मूलभूत विशेषता रही है. इक़बाल कहते हैं कि स्वयं हिंदू जनसमुदाय बहुलात्म है. यह कोई एक परम्परा नहीं, अनेक परम्पराओं का समन्वय है.

भारतीय मेधा जब कभी बहुलात्म समन्वय की दिशा में सक्रिय होती है, वह महानताओं की सृष्टि करती है. इसी समन्वय से हिन्दुस्तानी संगीत की सृष्टि हुई है, जो लगभग हज़ार वर्षों से भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर और भीतर संगीत-पिपासु आत्माओं को तृप्त करती रही है. अमीर खुसरो का युग-प्रवर्तक व्यक्तित्व इसी समन्वय की उपज है. कव्वाली उनके अनेक आविष्कारों में एक है, जो भारतीय संस्कृति की ख़ास पहचान है. कव्वाली के स्वर ही नहीं, भाव भी समन्वय के राग से उपजते हैं. मुगलों की चित्रकला से एम ऍफ़ हुसैन तक की कला परम्परा में इस समन्वय के अनोखे रंग हैं. ताजमहल की वास्तुकला इसी समन्वय से बना एक विश्व-आश्चर्य है. स्वयं हमारी हिंदी-उर्दू जबां, जिसके हिन्दवी, रेख्ता, दक़नी, गूजरी और हिन्दुस्तानी जैसे नाम-रूप भी अनेक हैं, इसी समन्वय की देन है.

जब एकल वर्चस्व की कोई प्रवृत्ति इस बहुलात्मता को दबाने की कोशिश करती है, विघटन और विनाश के रास्ते खुलने लगते हैं. क्या समन्वय और  वर्चस्व के दो उपक्रमों के बीच निरंतर जारी यह तनाव ही भारत की अलक्षित वेदना या दर्देनिहां है, जिसकी ओर ‘तराना-ए-हिंद में इशारा किया गया है?

इक़बाल ने इस भाषण में इस भारतीय कल्पना के जिन दो महान स्वप्नदर्शियों का उल्लेख किया है, वे हैं, कबीर और अकबर. यहीं यह दुःख भी प्रकट किया है कि हम उस स्वप्न को पूरी तरह साकार न कर सके. 

यह अकारण नहीं है कि इक़बाल ने कबीर का नाम लिया. तुलसीदास का नहीं लिया. समन्वय की चेष्टा का लोकनायक तो तुलसीदास को कहा गया है. कबीर तो सबको डांटने-फटकारने वाले माने जाते हैं. हमारे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तो साफ़ कहते थे कि हिन्दुओं और मुसलमानों के हृदयों को जोड़ने का काम कबीर से नहीं सधा.

लेकिन कबीर और तुलसीदास की समन्वय-चेष्टा में एक बहुत बड़ा फ़र्क है. तुलसी का समन्वय वर्णक्रम पर आधारित है, कबीर का बराबरी पर. सच्चा समन्वय बराबरी के आधार पर ही हो सकता है. कबीर जिस सहजता से अल्लाह और राम दोनों के नाम ले सकते हैं, तुलसीदास नहीं. तुलसी का समन्वय वर्चस्व की एक व्यवस्था पर आधारित है. सही मायने में, वह समन्वय नहीं, प्रतिपालन यानी ‘पैट्रनाइज़िंग’ है.

यह उनके समय की कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक तरफ़ गांधीजी हैं, दूसरी तरफ़ अल्लामा इक़बाल. दोनों ही समन्वय के महान स्वप्नद्रष्टा. लेकिन वे आपस में समन्वय क़ायम नहीं कर सके! यह भारतीय इतिहास की एक ऐसी गुत्थी है, जिसे हल किए बिना भारतीय उपमहाद्वीप की भविष्य-यात्रा शुरू नहीं हो सकती. विभाजन इस गुत्थी के अनसुलझे रह जाने का परिणाम था. और जब तक यह गुत्थी नहीं सुलझाती, हम विभाजन के निरंतर जारी विनाश-चक्र से मुक्त नहीं हो सकते .

इक़बाल अपने समन्वय-स्वप्न की पूर्ति के लिए भारत में ख़ास तरह के संघीय गणराज्य की कल्पना करते  है, जिसमें एक एकीकृत मुस्लिम-बहुल प्रांत होना चाहिए. इस कल्पना की व्यावहारिक झलक कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव में दिखाई देती है. इस प्रस्ताव में मुस्लिम-बहुल राज्य दो हो जाते हैं, तीसरा शेष भारत है. इन तीनों का एक परिसंघ बनना है, जिसमें केंद्र की शक्तियाँ रक्षा, विदेश नीति और संचार तक सीमित रहनी हैं. इस प्रस्ताव पर पाकिस्तान के लिए आन्दोलन करने वाली मुस्लिम लीग तो राज़ी हो जाती है, लेकिन कांग्रेस सहमति देने की बावज़ूद दुविधा से मुक्त नहीं हो पाती. दुविधा कुछ और नहीं, केन्द्रीयता और संघीयता के दो सिद्धांतों की है. कांग्रेस अंततः दुर्बल केंद्र के लिए तैयार नहीं हो पाती. वह समन्वय ज़रूर चाहती है, लेकिन केन्द्रीय सत्ता की कमज़ोरी नहीं. क्या इसका अर्थ यह है कि वह बहुलात्मसंघीय समन्वय के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है? क्या उसका झुकाव प्रतिपालक समन्वय की तरफ बना रहता है? इसका उत्तर हमारे इतिहासकारों को देना है. वे बड़ी शिद्दत से ढूंढ भी रहे हैं.

इतिहास के कुछ अनुत्तरित प्रश्न अल्लामा इक़बाल के लिए भी हैं. यह कैसे हुआ कि पांच सदियों तक मुसलमान शासकों के वर्चस्व के बावज़ूद भारत के अधिसंख्य मुसलमान भीषण ग़रीबी और जहालत की ज़िन्दगी जीने के लिए अभिशप्त बने रहे? इन ग़रीब मुसलमानों के लिए भविष्य के एकीकृत मुस्लिम-बहुल प्रांत में मुस्लिम लीग की क्या योजना थी? जिन किसानों की बदहाली पर ख़ुद इक़बाल साहेब का बयान यह था कि ‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर न हो रोटी/ उस खेत के हर गोश-ए-गंदुम को जला दो’, उनके लिए इस लंबे दार्शनिक राजनीतिक भाषण में दो शब्द भी क्यों नहीं थे? क्या भारत में लोक-निर्मात्री शक्ति के रूप में इस्लाम की सर्वश्रेष्ठ भूमिका नवाबों और ज़मींदारों के निर्माण और शोषित अवाम पर उनके शिकंजे को मज़बूत बनाने में देखी जा रही थी?

बराबरी का संदेश देने वाले इस्लाम ने भारत में अपनी एक स्वतंत्र वर्ण-व्यवस्था बना ली थी. निचली जातियों के मुसलमानों को, जिनकी संख्या अशराफ़ की तुलना में कई गुना ज़्यादा थी, एकीकृत मुस्लिम-बहुल प्रांत में क्या हासिल होने वाला था? क्या मुस्लिम बहुमत वाले उस विशाल प्रदेश में सैय्यद और अंसारी बराबर हो जाने वाले थे? लेकिन इक़बाल ने अपने उस ऐतिहासिक भाषण में इन बड़े बुनियादी सवालों को छुआ तक नहीं. 

संघीयता का सिद्दांत अच्छा है, लेकिन आधुनिक भारत धार्मिक-साम्प्रदायिक समूहों का संघ क्यों बने? अगर पश्चिमोत्तर सरहदी प्रांत के पठान पंजाबी मुसलमानों की तुलना में बंगाली हिन्दुओं से अधिक निकटता महसूस करते हों तो उन्हें एक पंजाबी वर्चस्व वाले मुस्लिम-बहुल प्रांत में रहने के लिए क्यों बाध्य किया जाए? कैबिनेट मिशन के अनिवार्य समूहीकरण के प्रस्ताव के विरोध के पीछे कांग्रेस का यही सवाल था.

इक़बाल अगर सामने होते तो इनमें से कुछ सवालों के जवाब दे सकते थे. जैसे सन तैंतीस में पंडित नेहरू को दिया था. वे कहते कि भारत के आठ करोड़ मुसलमान अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए कुछ न्यूनतम संवैधानिक उपाय चाहते हैं. वे चाहते हैं कि इसकी बात की संवैधानिक गारंटी की जाए कि लोकतांत्रिक भारत में एक विराट अल्पसंखयक समुदाय के रूप में उन्हें अपनी क्षमताओं के विकास के बराबर अवसर मिलेंगे. इसमें किंचित भी कमी नहीं होने दी जाएगी. लेकिन कांग्रेस का हिंदू नेतृत्व इन्हें लागू करने की जगह टालमटोल करता क्यों दिखाई दे रहा है?

इक़बाल कहते कि कांग्रेस नेतृत्व वर्णाश्रमी विचारधारा से मुक्त नहीं है. जब वे अपने समुदाय के लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं कर सकते, तो उनसे यह आशा कैसे की जा सकती है कि वे मुसलमानों के साथ बराबरी का व्यवहार करेंगे? जब सत्ता से वंचित होते हुए वे अपनी जाति-पहचानों और अपने धार्मिक प्रतीकों पर ज़ोर देते हैं, तो सत्ता मिल जाने के बाद वे ऐसा नहीं करेंगे, इसकी उम्मीद कैसे की जाए?

जब स्वघोषित हिंदू नेतागण देश भर में ‘शुद्धि अभियान के नाम पर मुसलमानों की घर -वापसी का अभियान चलाने में जुटे हुए हों, और इन नेताओं की कांग्रेस में भी आवाजाही लगी रहती हो, तब ये कैसे कहा जा सकता है कि आज़ादी के बाद ये लोग मुसलमानों के साथ म्लेच्छों जैसा व्यवहार नहीं करेंगे? 

जब वे अपने स्वराज को भी ‘राम राज्य’ के रूप में परिभाषित करते हैं, तब यह यकीन किस बिना पर हो कि वे अपने राज्य की चाभियाँ किसी राम मन्दिर में नहीं छोड़ आएँगे? यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन राम और कृष्ण जैसे देवताओं के लिए मुसलमानों ने हिन्दुओं से भी बेहतर गीत रचे और गाए हों, उन्हें एक दिन उनके समक्ष शत्रुतापूर्ण चुनौती की तरह पेश नहीं कर दिया जाएगा?

इक़बाल कहते कि अगर बहुसंख्यक हिन्दुओं ने अपने को एक राजनीतिक श्रेणी के रूप में संगठित करने के उत्तेजक अभियान न चलाए होते तो मुसलमानों के मन में उनके वर्चस्व का भय पैदा ही नहीं होता. अगर हिन्दुओं ने भारतीय राष्ट्रीयता को हिंदू रंग देने की कोशिश न की होती तो शायद मुसलमानों को यह फ़िक्र न होती कि इसमें उनका रंग कहाँ है! वे कहते कि अल्पसंखयक के मन में बहुसंख्यक का भय स्वाभाविक और तर्कसंगत है, जिसे दूर करने की ज़िम्मेदारी बहुसंख्यक की है, और इसका विलोम संभव नहीं.

आज अगर इक़बाल होते, तब तो उनके पास कहने को और भी बहुत कुछ होता. उनके हाथ में सच्चर कमीशन की रिपोर्ट होती. उनके पास आज़ादी के बाद हुए दंगों का इतिहास होता. उनके पास अख़लाक़ और जुनैद की सत्य-कथाएँ होतीं. बल्कि आज अगर वे होते तो कहते कि तुम पूछ किस मुंह से रहे हो मिंया!

पलट कर आप भी पूछ सकते थे कि वैसे मुसलमानों के नाम पर बने दुनिया के पहले मुल्क पाकिस्तान में मुसलमानों के क्या हाल है!


पाकिस्तान प्रस्ताव?  

१९४० में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पारित प्रस्ताव को ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ कहा जाता है. इस प्रस्ताव में भी पाकिस्तान का नाम नहीं था. कहा यह गया था कि मुस्लिम लीग को ऐसी कोई संवैधानिक व्यवस्था मंजूर नहीं होगी, जिसमें पश्चिमोत्तर और पूर्व के मुस्लिम-बहुल इलाक़ों को स्वतंत्र ‘राज्यों’ के रूप में पुनर्गठित न किया  गया हो. इस प्रस्ताव में भी यह बिलकुल स्पष्ट नहीं था कि ये राज्य भारत के बाहर ही होंगे. मुस्लिम लीग ने अपने रिकॉर्ड में इसे ‘लाहौर प्रस्ताव के नाम से दर्ज किया है, पाकिस्तान प्रस्ताव के नाम से नहीं. शुरुआत में इसे पाकिस्तान-प्रस्ताव विरोधियों द्वारा कहा गया. मज़ाक उड़ाने के लिए. इसका अवमूल्यन करने के लिए. बाद में लीग ने इसे सगर्व अपना लिया, एक मुस्लिम यूटोपिया के रूप में पाकिस्तान की चर्चा के जड़ जमाने के साथ.

इस अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय भीषण में जिन्ना ने घोषित किया कि भारत के हिंदू और मुसलमान दो स्वतंत्र राष्ट्र हैं. दोनों नितांत भिन्न सामाजिक व्यवस्थाएं हैं. दोनों की संस्कृति, इतिहास और जीवन दृष्टियाँ भिन्न हैं. हज़ार वर्षों से एक साथ रहते हुए भी उन्होंने कोई समान जीवन शैली विकसित नहीं की है. इसलिए उन्हें एक ही राज्य के अंतर्गत इस तरह समायोजित करना कि बहुसंख्यक समुदाय का वर्चस्व स्थायी हो जाए, सभी के लिए विनाशकारी होगा. 

ये वही जिन्ना थे, जिन्होंने धर्म और राजनीति का घालमेल करने के लिए गांधीजी की अगुआई में चले खिलाफ़त आन्दोलन की आलोचना की थी!

पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल के रूप में ख़ुद मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने पहले ही इस भाषण में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ा दीं. ११ अगस्त १९४७ के इस मशहूर भाषण में उन्होंने फ़रमाया कि अब जबकि पाकिस्तान बन गया है, हिंदू और मुसलमान राजनीतिक अर्थों में हिंदू और मुसलमान नहीं रह जाएँगे. पाकिस्तान मुस्लिम बहुल तो होगा, लेकिन इस्लामी राज्य नहीं होगा, धर्मनिरपेक्ष होगा.

इसका मतलब यह हुआ कि हिंदू और मुसलमान तभी तक दो राष्ट्र थे, जब तक भारत एक था!

‘द सोल स्पोक्समैन; जिन्ना, द मुस्लिम लीग एंड द डिमांड फॉर पाकिस्तान नामक पुस्तक में पाकिस्तानी इतिहासकार आएशा जलाल का तर्क है कि पाकिस्तान की मांग महज़ सौदेबाज़ी के लिए थी. जिन्ना का असली मक़सद स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक सत्ता संरचना में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की समान भागीदारी सुनिश्चित करना था. यह सुनिश्चित करना था कि हिंदू अपनी बहुसंख्या के आधार पर मुसलमानों को दूसरे दर्जे की नागरिकता में न ढकेल दें.

यही कारण था कि उन्होंने कैबिनेट मिशन के उस प्रस्ताव के लिए मुस्लिम लीग को राज़ी कर लिया था, जिसमें त्रिस्तरीय परिसंघ की कल्पना की गयी थी. पूर्व और पश्चिम के मुस्लिमबहुल प्रान्तों और शेष हिंदूबहुल प्रान्तों को लेकर तीन समूह बनाए जाने थे. केंद्र के पास रक्षा, संचार और विदेश विभाग छोड़कर बाकी का बंटवारा समूहों और प्रान्तों के बीच होना था.

दस वर्षों के लिए निर्धारित समूहों के साथ प्रान्तों की सदस्यता अनिवार्य थी. उसके बाद प्रांत अपनी सदस्यता पर पुनर्विचार कर सकते थे. यह व्यवस्था मुसलमानों के लिए उनके बहुमत वाले इलाक़ों में अधिकतम स्वायत्तता की गारंटी करती थी. भारत की एकता को बनाए रखते हुए मुस्लिम अल्पसंख्यकों की चिंताओं को सुलझाने का यह सबसे बेहतर इंतज़ाम था.

गांधीजी और जिन्ना दोनों ने साफ़-साफ़ कबूल किया उस वक़्त के हालात में अंग्रेजों से इससे बेहतर कुछ पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी. लीग के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने भी, भीषण अंदरूनी वाद-विवाद के बाद, भारी बहुमत से इसे मंजूर कर लिया. यह एक ऐसा क्षण था, जो टिका रह जाता तो भारतीय अवाम की सारी जद्दोज़हद और कुर्बानियों को सार्थकता मिल जाती. एशिया में एकजुट आज़ाद भारत का उदय होता तो मनुष्यता की नियति कुछ और होती. लेकिन नियति के साथ जो हमारा समझौता था, उसमें ये शर्त शामिल नहीं थी.

7 जुलाई को कांग्रेस कमेटी की बैठक के बाद 10 जुलाई को जवाहरलाल नेहरू ने एक प्रेस कांफ्रेंस की. इस कांफ्रेंस में दिया गया नेहरू जी का वक्तव्य विभाजन और आज़ादी के इतिहास का सबसे विवादास्पद वक्तव्य साबित हुआ. नेहरू ने कहा कि कैबिनेट मिशन प्रस्ताव को मंजूर कर संविधान-सभा में जाने के फ़ैसले का यह मतलब नहीं कि कांग्रेस ने उसकी सम्पूर्ण योजना को अंतिम रूप से स्वीकार कर लिया है.

यह एक रहस्य है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के स्पष्ट फ़ैसले के बाद संशय उपजाने वाला यह वक्तव्य किसके दबाव में और क्यों जारी किया गया. जो भी हो, इस बयान से कांग्रेस के भीतर चल रही भारी दुविधा जगजाहिर हो गयी. इस वक्तव्य के बाद कांग्रेस के इरादों को संदिग्ध घोषित करते हुए लीग ने भी कैबिनेट मिशन के लिए अपनी मंजूरी वापिस ले ली. इसी के साथ आज़ाद भारत के एकजुट रहने की उम्मीद लगभग खत्म हो गई थी. हालांकि कोशिशें अंत-अंत तक चलती रहीं.

विभाजन के दस्तावेजों को देखने से पता चलता है कि लीग और कांग्रेस के बीच सबसे बड़ी फांस प्रान्तों के अनिवार्य समूहीकरण के बारे में थी. कांग्रेस को लगता था कि यह प्रांतीय स्वायत्तता का निषेध है. प्रान्तों के पास अपना समूह चुनने का विकल्प होना चाहिए. उसे उम्मीद थी कि अब्दुल गफ्फार खान का उत्तर पश्चिम सरहदी प्रांत किसी मुस्लिम समूह का हिस्सा नहीं बनना चाहेगा. असम से भी यही उम्मीद थी.

उधर लीग कांग्रेस से यह गारंटी चाहती थी कि अनिवार्य समूहीकरण से छेड़छाड़ न की जाए. उसे डर था कि प्रांतीय स्वायत्तता का नारा मुस्लिम बहुमत के इलाकों में मुस्लिम स्वायत्तता को कमज़ोर करने के लिए लगाया जा रहा है .

समय की दूरी का लाभ उठाकर आज कोई कह सकता है कि अगर लीग ने स्वतंत्र पाकिस्तान की मांग से पीछे हटने का साहस दिखाया तो कांग्रेस भी समूहीकरण के मुद्दे पर कुछ लचीलापन दिखा सकती थी. आख़िर दस साल बाद समूची व्यवस्था पर पुनर्विचार होना ही था. जो प्रांत अपने समूह से अलग होना चाहते, दस साल बाद हो जाते. देश का बंटवारा तो न होता.

उन्माद के उस दौर के निकल जाने के बाद शायद विभाजन की बात टल ही जाती. आख़िर जिस कलकत्ते ने ‘सीधी कार्रवाई’ के दिन उस दौर का सबसे वीभत्स जनसंहार देखा था, वहीं एक साल बाद शान्ति के फूल खिल रहे थे. वह भी ऐन विभाजन के दिन, जब समूचे उत्तर भारत में हिंसा की आग तेज़ हो गयी थी, जब सीधी कार्रवाई दिवस के और भी भयानक दुहराव की पूरी आशंका थी! इसी को ‘कलकत्ते का चमत्कार कहते हैं.

इस चमत्कार के प्रणेता महात्मा गांधी थे. और इस काम में उनके सहयोगी थे, बंगाल के ‘प्रधानमंत्री’ सुहरावर्दी. वही सुहरावर्दी, जिन्हें पिछले साल की हिंसा का सूत्रधार समझा जाता था. कलकत्ते में, और उसके बाद दिल्ली में, जो चमत्कार हुआ, वह राष्ट्रीय स्तर पर न होता, यह कौन कह सकता है!

कम-से-कम गांधीजी को यह उम्मीद थी. विभाजन को विफल करने का उनका यही तरीक़ा था. दिल्ली में शान्ति-स्थापना के लिए किए गए मृत्युपर्यन्त उपवास के समापन के दिन  उन्होंने पंजाब और फिर लाहौर जाने की घोषणा कर दी थी. अगर हिंदू मुसलमान एक-दूसरे को मारना बंद कर देते, तो विभाजन अपने आप अप्रासंगिक हो जाता. दिलों का बंटवारा ख़त्म हो जाए तो नक़्शे पर कब तक टिका रहेगा! गांधीजी का बाकी मिशन यही था.

गांधी जी को मारी गई गोली उनके इसी मिशन पर चलाई गयी थी! हत्यारी गोली के सिवा कोई और ताक़त उन्हें रोक न सकती थी. गोली ने अपना काम किया. दिलों का बंटवारा ख़त्म करने का गांधीजी का मिशन वहीं रुक गया. विभाजन की राजनीति धीरे-धीरे आगे बढ़ती गयी.

 

 

भारत का विभाजन अवश्यम्भावी हरगिज नहीं था. लेकिन यह दो-एक वर्षों के साम्प्रदायिक उन्माद का नतीजा भी नहीं था. विभाजन की त्रासदी के बारे में केवल एक बात बिना किंतु-परंतु के की जा सकती है. स्वाधीनता संग्राम के सभी नेतागण इस विषय में या तो गहरी दुविधा के या अंतर्विरोधी विचारों के शिकार थे.

इस दुविधा की सबसे हैरतअंगेज़ झलक ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ के प्रसिद्ध लेखक लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लापियर द्वारा लिए गए लार्डमाउंटबेटन के एक इंटरव्यू से मिलती है. इस इंटरव्यू में माउंटबेटन ने विभाजन का ठीकरा सबसे ज़्यादा जिन्ना और फिर सरदार पटेल के माथे फोड़ने की कोशिश की है.

माउंटबेटन ने कहा है कि उन्होंने आख़िरी दम तक भारत को एक रखने के लिए जिन्ना को मनाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. आख़िर में उन्होंने कहा कि पाकिस्तान अगर बना तो बंटवारा पंजाब और बंगाल का भी होगा. इन प्रान्तों के हिंदूबहुल इलाक़े पाकिस्तान को नहीं दिए जा सकते. जिन्ना शुरुआत में इस ‘घुन खाए पाकिस्तान के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन उन्हें बता दिया गया कि और कोई विकल्प नहीं है. माउंटबेटन कहते हैं कि इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार को, कांग्रेस को और सिखों को विभाजन की अपनी योजना के लिए राज़ी किया. सबके राजी हो जाने के बाद उन्होंने फिर जिन्ना से पूछा. लेकिन जिन्ना  ने साफ़ मना कर दिया: ‘मुझे मुस्लिम लीग की कौंसिल में बात रखनी होगी. उनकी इजाज़त के बगैर मैं हामी नहीं भर सकता. इसमें कम से कम एक हफ़्ता लगेगा.’

माउंटबेटन सकते में आ गए. पटेल, नेहरू और गांधी को विभाजन के लिए राजी करने में उन्होंने बहुत मेहनत की थी. बहुत दिमाग लड़ाया था. और जब हर कोई जिन्ना की मांग पर राज़ी हो गया था, यह शख्स टालमटोल कर रहा था.

माउंटबेटन ने बहुत दबाव बनाया. ललचाया. डराया. धमकाया. आपको हद से हद कल सुबह आठ बजे तक का वक्त मिल सकता है. अगर आपने देरी की, कांग्रेस नेता बिदक जाएंगे. फिर कभी आपको पाकिस्तान नहीं मिलेगा. पर जिन्ना टस से मस नहीं हुए. जो होना है, होने दीजिए. लेकिन इस तरह औचक कोई फैसला नहीं होगा. जो भी होगा एक उचित और वैध प्रक्रिया के तहत होगा,

आख़िर माउंटबेटन ने एक प्रस्ताव रखा. कल एक मीटिंग होगी, जिसमें मैं सबको बताऊंगा कि कांग्रेस पार्टी और सिख विभाजन की मेरी योजना के लिए राज़ी हो गए हैं. कल रात जिन्ना साहेब से भी मेरी बातचीत तफ़सील से हुई है. उन्हें भी लगता है कि यह एक पूर्ण स्वीकार्य योजना है. इतना कह कर मैं आपकी तरफ देखूंगा. आप बस अपना सर सहमति में हिला देना. आपको कुछ बोलना नहीं है. सिर्फ़ सर हिला देना है. अगर आपने इनकार में सर हिलाया, तो फिर पाकिस्तान को भूल जाना. और मेरी तरफ से चूल्हे भांड में जाना.

माउंटबेटन ने कहा कि ज़िंदगी में कभी भी उन्होंने ऐसा तनाव नहीं महसूस किया था. कल इस जिद्दी इंसान का सर ऊपर-नीचे हिलेगा या दाएं-बाएँ. उस सर की इतनी-सी हरकत से, बकौल माउंटबेटन, इस महादेश की किस्मत तय होनेवाली थी.

अगले दिन मीटिंग शुरू हुई. योजनानुसार सारी बातें कह चुकने के बाद आख़िरी वायसराय  ने तयशुदा मौके पर जिन्ना की तरफ़ देखा. जिन्ना का चेहरा बिलकुल भावशून्य था. उनका सर हिला ज़रूर, लेकिन इस तरह कि न उसे सहमति कह सकते थे, न असहमति!

चूंकि यह स्पष्ट इनकार नहीं था, इसलिए इसे सहमति मान लिया गया. यों हिन्दुतान की नियति के साथ समझौता सम्पन्न हुआ!

माउंटबेटन का दावा है कि सर की इस अबूझ सी हरकत ने करोड़ों हिन्दुस्तानियों-पाकिस्तानियों के सर पर अनंत काल के लिए विभाजन की त्रासदी का बोझ डाल दिया.

क्या इस विवरण के आधार पर माना जा सकता है कि वायसराय का यह दावा सही है कि विभाजन के लिए मुख्य रूप से जिन्ना ही ज़िम्मेदार थे?

कोई कुछ भी माने, लेकिन इस विवरण से ख़ुद माउंटबेटन की भूमिका बहुत साफ़ हो जाती है. विभाजन के लिए सबको राज़ी करने का काम ख़ुद वायसराय ने किया. इस काम में उन्होंने अपनी सारी शक्ति और मेधा, जितनी उनके पास थी, झोंक दी. इसी इंटरव्यू में वे अपनी इस प्रतिभा की प्रशंसा करने से भी नहीं चूकते. प्रतिभा से ज़्यादा उनके पास ‘राज’ का बल था. भारत के बंटवारे का मुख्य श्रेय उन्हें और उनके ब्रिटिश राज के सिवा किसी और को दिया जाए, यह इतिहास के साथ नाइंसाफ़ी होगी.

आख़िरी वायसराय का एक ही मक़सद था. भारत से निकल भागना, जितनी जल्दी हो सके. ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने तो सत्ता-हस्तांतरण के लिए 30 जून 1948 तक समय तय किया था. इसे लगभग साल भर पहले ही, 15 अगस्त 1947 तक, निपटा देने का फ़ैसला पूरी तरह वायसराय का था.

विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की आर्थिक कमर टूट चुकी थी. लेकिन दो सदियों से ब्रिटिश साम्राज्य की ऊर्जा का अक्षय स्रोत भारत अचानक एक असह्य बोझ क्यों बन गया? इसलिए कि बगावतें समन्दर से सड़क तक फ़ैल गयी थीं. मुश्किल यह थी कि सेना, पुलिस, रेल और डाक जैसे साम्राज्य को थाम कर रखने वाले सभी मज़बूत स्तम्भ इस बगावत में शामिल हो गए थे. उन्हें सड़क पर मजदूरों और नौजवानों का भरपूर सक्रिय समर्थन मिल रहा था. इसलिए इस विद्रोह को सम्भालना असम्भव हो चुका था.

भलाई जल्दी-से-जल्दी भाग लेने में ही थी. सत्ता हस्तांतरण के लिए कोई एकल केंद्र मिल जाए तो अच्छा, नहीं तो दो, तीन या सैकड़ों टुकड़े सही. बीस लाख दहशतनाक मौतें और दो करोड़ लोगों की बेघरबारी सही. आपराधिक औपनिवेशिक लापरवाही और क्रूरता की ऐसी दूसरी मिसाल खोजना मुश्किल है.

अगर भारत को ब्रिटिश मुकुट की प्रभाव-छाया में रहना मंजूर हो तो भले एकजुट रहे, लेकिन अगर उसके कम्युनिज्म के रास्ते पर चल पड़ने का ख़तरा हो तो उसका टूट-फूट जाना ही अच्छा. युद्धोत्तर विश्व में सोवियत संघ के बगल में एक और शक्तिशाली समाजवादी देश कैसे सहन किया जा सकता था!

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत से पलायन करते समय ब्रिटिश साम्राज्य ने हद दर्जे के स्वार्थीपन और अकल्पनीय क्षुद्रता का परिचय दिया. ब्रिटेन ने सब कुछ भारत का दोहन करके ही पाया था. वह औद्योगिक क्रांति, जो इंग्लैण्ड से शुरू हुई और जिसने पश्चिम को ‘विकास की चोटी पर पहुंचा दिया, भारत के उत्कृष्ट कपास की देन थी. इस कपास को खपाने के लिए ही सूती मिलों की खोज हुई. भारतीय किसानों के खून पसीने से चमक रही बरतानवी सूती मिलों का मुक़ाबला करने के लिए ही गांधी जी ने अपने चरखे की खोज की थी.

लीग और कांग्रेस के समझौते में ऐसी भी कोई असम्भव बाधा नहीं थी. अगर कुछ और समय मिलता तो कामगारों, मज़दूरों और नौजवानों के आंदोलनों के दबाव में उन्हें समझौता करना ही पड़ता. लेकिन इस सूरत में कांग्रेस और लीग के नवपूंजीवादी और सामन्ती तत्वों को राष्ट्रीय नेतृत्व में मजदूरों-कामगारों को भी जगह देनी पड़ती. यही वह सम्भावना थी जिससे उपनिवेशियों के साथ-साथ कांग्रेस और लीग का नेतृत्व भी भयभीत था. पाकिस्तानी इतिहासकार लाल खान ने अपनी पुस्तक “पार्टीशन: कैन इट बी अनडन?’’ में इस थियरी को विस्तृत सबूतों और मज़बूत तर्कों के साथ पेश किया है.

साम्राज्य के थके हुए सिपाही हांगकांग से मिश्र तक बेहतर मुआवज़े के लिए आन्दोलन और हड़ताल पर उतारू थे. इधर सन पैंतालिस के नवम्बर-दिसम्बर में भारत में आज़ाद हिंद फौज के सेनानियों के ख़िलाफ़ लाल किले में चले कोर्ट मार्शल के मुक़दमे ने समूचे उपमहाद्वीप को बगावत के जज़्बे से भर दिया था. ‘लाल किले से आई आवाज़/ सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज’ - यह नारा भारतीय युवाओं के दिलों की धड़कन बन चुका था. संयोगवश कोर्ट मार्शल का सामना कर रहे पहले तीन सेनानियों में एक हिंदू था, एक सिख और एक मुसलमान. अगले दौर में कोर्ट मार्शल का सामना करने वालों में अब्दुल राशिद, सिंघारा सिंह, फ़तेह खान और कैप्टन मुनव्वर खान थे.

इन मुक़दमों और उनके विरोध की गूँज देश में ही नहीं, दुनिया भर में सुनाई पड़ी. इन्ही मुक़दमों के दौरान यह सिद्धांत स्थापित हुआ कि देश की आज़ादी के लिए लड़ना गुलाम देशों के नागरिकों का वैध और ज़रूरी अधिकार है. आज़ादी, एकता और इंक़लाब के इसी माहौल में फरवरी के आते-आते भारतीय नौसेना में बगावत फूट पड़ी. यही बगावत मुंबई से शुरू हुई, लेकिन ४८ घंटों के भीतर कलकत्ता, कराची, मद्रास, कोचीन और विशाखापत्तनम तक फ़ैल गयी. नौसैनिक जहाज़ों से यूनियन जैक उतार फेंका गया.

नौसैनिकों के इस अपूर्व विद्रोह में कई अनोखी बातें हुईं. कम्युनिस्ट पार्टी के आह्वान पर मुंबई के मज़दूर और नौजवान हज़ारों की तादात में नौसैनिकों के समर्थन में सड़कों पर उतर आए. नौसैनिकों ने जहाज़ों पर एक साथ तीन झंडे लहराए. कांग्रेस का, मुस्लिम लीग का और कम्युनिस्ट पार्टी का लाल झंडा. उन्होंने नौसैनिक एम एस खान को अध्यक्ष और मदन सिंह को उपाध्यक्ष के रूप में चुना.

सरकार की दमनकारी कार्रवाई में मुंबई की सड़कों पर मज़दूरों और सैनिकों का खून साथ-साथ बहा. सिर्फ़ २२ और २३ फरवरी को शहीद होने वाले मज़दूरों और सैनिकों की संख्या 250 तक पहुँच गई. एम एस खान ने एक यादगार भाषण में कहा: ‘हमारी हड़ताल हमारे राष्ट्रीय जीवन की एक ऐतिहासिक घटना है. पहली बार एक सामान उद्देश्य के लिए सैनिकों और नागरिकों का खून एक साथ बहा है. हम इसे कभी नहीं भूलेंगे. जय हिंद!’

बगावतों का सिलसिला बढ़ता गया. मार्च-अप्रैल में देश भर में पुलिसकर्मियों की व्यापक हड़तालें शुरू हो गईं. मई में उत्तर पश्चिमी रेलवे के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए. जुलाई में एक लाख डाक कर्मचारी हड़ताल पर थे. देश भर में बगावतों, हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों का दौर-दौरा शुरू हो गया. इन बगावतों में कहीं कोई साम्प्रदायिक दरार नहीं थी. 1857 में जिस तरह हिंदू मुसलमान एक साथ लड़े थे, उसी तरह 1946 में भी एक साथ सड़कों पर थे.

इन बगावतों को संगठित करने और कर्मचारियों के समर्थन में किसानों और मज़दूरों को लामबंद करने में कम्युनिस्ट पार्टी की अग्रणी भूमिका थी. कांग्रेस और लीग के अग्रणी नेताओं ने इन आंदोलनों का समर्थन करने से इंकार कर दिया.

विभाजन के प्रचलित आख्यानों में इस इतिहास को याद नहीं रखा जाता. इसे न अँगरेज़ याद करना  चाहते हैं, न भारत और पाकिस्तान के ‘राष्ट्रवादी’ इतिहासकार. न कांग्रेस याद रखना चाहती है, न मुस्लिम लीग. इस इतिहास को याद रखने पर यह थियरी भरभराकर कर गिर न जाएगी कि अंग्रेज़ी राज के आख़िरी वर्षों में हिंदू मुसलमान एक दूसरे के खून के इस क़दर प्यासे हो रहे थे कि बंटवारे को मंजूर करने के सिवा कोई चारा ही न था!

यह सच है कि विभाजन और उसके आगे-पीछे के वर्षों में साम्प्रदायिक हिंसा उन्माद और बर्बरता की सारी सीमाएं पार कर गई. लेकिन नए शोध से पता चल रहा है कि इनमें अधिकतर मामले ऐसे नहीं थे, जिन्हें भीड़ की स्वतःस्फूर्त हिंसा के दायरे में रखा जा सके. अक्सर संगठित और प्रशिक्षित सशस्त्र समूह इन हिंसक गतिविधियों में शामिल रहे. ये समूह  सीधे तौर पर साम्प्रदायिक राजनीतिक पार्टियों और संगठनों से जुड़े हुए थे. उनके बग़ैर यह हिंसा इतनी व्यापक और दीर्घजीवी न हो सकती थी.

एक दूसरा पहलू यह था कि ब्रिटिश सरकार हिंसा को नियंत्रित करने के लिए सेना का उपयोग करने से बच रही थी. देश को विभाजन की आग में झोंक देने के बाद लोगों की जान-माल की रक्षा करना सरकार की प्राथमिकता नहीं रह गई थी. उन्हें सबसे ज़्यादा फ़िक्र ख़ुद सेना को साम्प्रदायिक तनाव से बचाने, सैनिक संसाधनों की रक्षा करने, टुकड़ियों का बंटवारा करने और उन्हें स्थानांतरित करने की थी.  

यह भी मालूम है कि साम्प्रदायिक पार्टियों और समूहों द्वारा अक्सर युद्ध से लौटे और घरों पर बेकार बैठे प्रशिक्षित सैनिकों की मदद भी ली गई. सन 1939 में हिन्दुस्तानियों से सलाह मशविरा किए बग़ैर भारत को युद्ध में झोंक देने के ब्रिटिश सरकार के फ़ैसले के विरोध में कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने अपने इस्तीफ़े सौंप दिए थे.

इस अवसर का लाभ उठाते हुए बंगाल, सिंध और पश्चिमोत्तर सरहदी प्रांत में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने गंठबंधन सरकारें बनाईं. युद्ध में सरकार का भरपूर सहयोग किया. इस सहयोग का एक रूप सेना में भारी संख्या में अपने समर्थकों की भर्ती कराना भी था.  सावरकर ने तो घोषित कर दिया था कि युद्ध हिंदू लड़ाकों के लिए सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने का उत्तम  अवसर है, जिसका लाभ उठाया जाना चाहिए. यह आह्वान सावरकर ने 25 मई 1941 के अपने जन्मदिन संदेश में किया था. इसी संदेश में उन्होंने ‘राजनीति के हिन्दूकरण’ और ‘हिन्दुओं के सैन्यीकरण’ का प्रसिद्ध नारा भी दिया था. मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा द्वारा लाखों की संख्या में भर्ती किए गए इन सैनिकों की विभाजन के दंगों में क्या भूमिका थी, इस पर विस्तृत शोध की आवश्यकता है. 

 

 

सन छियालीस के इन आंदोलनों और जन-विद्रोहों में एक नए तरह की जुझारू राष्ट्रीयता, मज़बूत हिंदू-मुस्लिम एकता, कामगार-नागरिक सहयोग और वास्तविक आज़ादी की आकांक्षा उभर कर सामने आई. इस समग्र परिदृश्य को ध्यान में रखे बग़ैर सत्ता-हस्तान्तरण में अंग्रेजों के साथ साथ कांग्रेस और लीग की उस ऐतिहासिक हड़बड़ी की कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, जिसने विभाजन को अपरिहार्य बना दिया था. यह सिर्फ़ ‘सत्ता का लालच’ नहीं था, जैसा कि अक्सर मान लिया जाता है. लगभग चौथाई सदी से जूझ रहे नेतागण क्या दो-चार साल और इंतज़ार न कर सकते थे? असली डर नेतृत्व के मज़दूर वर्ग की तरफ़ खिसक जाने का था.   

पटेल विभाजन के माउंटबेटन-प्रस्ताव पर राज़ी होने वाले पहले भारतीय नेता थे. वे इस प्रस्ताव की घोषणा के समय भी माउंटबेटन के साथ थे. 14 जून 1947 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की उस बैठक की अध्यक्षता भी पटेल ने ही की थी जिसमें विभाजन की योजना को मंजूरी दी गई थी. माउंटबेटन पटेल की उपमा अखरोट से दिया करते थे, जिसका छिलका बहुत कठोर होता है, गरी मुलायम होती है. 

यही सरदार पटेल पहले विभाजन को नामंजूर करने वाली कैबिनेट मिशन योजना के लिए भी सबसे अधिक उत्साहित थे. माना जाता है कि अंतरिम सरकार के गृहमंत्री  के रूप में पटेल लीगी वित्तमंत्री लियाक़त अली खान की अड़ंगेबाज़ियों के कारण इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि कांग्रेस और लीग का मिलजुल कर काम करना नामुमकिन है .

यह वक्तव्य अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की उस बैठक में दिया गया था, जिसमें विभाजन के प्रस्ताव को मंजूर किया गया. इस बैठक की अध्यक्षता सरदार पटेल ने की थी .


अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा: ‘यह बात हमें पसंद हो या नापसंद, लेकिन पंजाब और बंगाल में वास्तव में – डिफैक्टो - पाकिस्तान मौजूद है. इस सूरत में मैं एक क़ानूनी - दे जूरे - पाकिस्तान अधिक पसंद करूंगा, जो लीग को अधिक ज़िम्मेदार बनाएगा. आज़ादी आ रही है. ७५ से ८० प्रतिशत भारत हमारे पास है. इसे हम अपनी मेधा से मजबूत बनाएंगे. लीग देश के बचे हुए हिस्से का विकास कर सकती है.’


यह देखना कम हैरतअंगेज़ नहीं है कि सरदार केवल पाकिस्तान के प्रस्ताव को ही नहीं, एक तरह से  उसके पीछे की ‘टू नेशन थियरी’ को भी मंजूर करते लग रहे हैं. और भी हैरतअंगेज़ यह देखना है कि बंटवारे की बात इस तरह की जा रही है  जैसे मातृभूमि नहीं, कोई जागीर बंट रही हो. हम अपने अस्सी फीसद को सम्हालेंगे, बाकी का जो करना हो, लीग करे!


एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कुल चार सौ सदस्य थे, जिनमें उस दिन की ऐतिहासिक मीटिंग में केवल 218 मौजूद थे. इनमें से 29 सदस्यों ने विभाजन के प्रस्ताव का विरोध किया. 30 सदस्यों ने ‘ऐब्स्टेन’ किया. और 159 ने प्रस्ताव का समर्थन किया. यानी कुल सदस्यों के केवल 40 प्रतिशत के समर्थन से देश बंट गया.


प्रस्ताव के समर्थन में महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के वोट भी थे, जिन्हें मनाने का काम, जैसा कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कहते हैं, सरदार ने किया था. मौलाना ख़ुद ‘ऐब्स्टेन’ करने वालों में थे, जबकि ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान ने विरोध में वोट डाला था!

 

हज़ार वर्षों से एक साथ रहकर हिन्दुओं और मुसलमानों ने भारत में एक बहुआयामी बहुस्तरीय सभ्यता का निर्माण किया था. फिर भी सन चालीस में जिन्ना महसूस करने लगे थे कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते. सन सैंतालिस में सरदार पटेल भी ऐसा ही महसूस करने लगे थे. लेकिन मजदूरों, किसानों और विद्रोही सिपाहियों ने ऐसा कभी महसूस नहीं किया.

 

ज़ाहिर है कि अगर कभी इस महाद्वीप की राजनीति पर मज़दूरों और किसानों का नेतृत्व क़ायम हुआ तो विभाजन की राजनीति और उसके ज्ञान-शास्त्र के अंत की शुरुआत हो जाएगी. 

 

वो सुबह कभी तो आएगी 

आज विभाजन को याद करने का मतलब क्या है?

क्या दस से बीस लाख अनुमानित मौतों को याद करना? यह याद करना कि यह संख्या १८५७ के महाविद्रोह के या वियतनाम युद्ध के दौरान हुई कुल मौतों के लगभग दोगुनी है? और फ्रांसीसी क्रांति के दौरान हुई मौतों के लगभग बराबर है? क्या यह लगभग एक लाख महिलाओं के साथ हुए जघन्यतम यौन अत्याचारों को याद करना है?

क्या यह त्रिशूलों पर नचाए गए दुधमुंहे बच्चों और तलवारों से चीरे गए गर्भों को याद करना है? क्या यह लाशों से भरी रेलगाड़ियों को याद करना है? क्या यह सब कुछ गँवा कर देश-देशान्तर भटकते घायल, भूखे, असहाय लोगों के विराट काफ़िलों को याद करना है, जिनमें सबसे बड़े काफ़िले में लगभग चार लाख लोग शामिल थे

क्या यह तीन भारत-पकिस्तान युद्धों, कारगिल संघर्ष, बांग्लादेश युद्ध और सीमा पर लगातार जारी झड़पों को याद करना है? क्या यह कश्मीर की अंतहीन समस्या और एक लाख से अधिक नागरिक-सैनिक मौतों को याद करना है? क्या यह बेरहम साम्प्रदायिक दंगों में हुई लाखों मौतों को याद करना है? क्या यह पाकिस्तान में हिंदू अल्प-संख्यकों के सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक उन्मूलन को याद करना है?

क्या यह भारत के मुसलमान अल्पसंख्यकों के हाशियाकरण और कथित गोरक्षकों के आतंक को याद करना है? क्या यह इस बात को याद करना है कि विभाजन की सभ्यता-परिवर्तनकारी हिंसा में कमी आना तो दूर, यह निरंतर और अधिक भीषण आयाम ग्रहण करती जा रही है?

क्या यह इस बात को याद करना है कि विभाजन की प्रक्रिया न केवल जारी है, बल्कि वह आगे और रफ़्तार पकड़ती जा रही है? और यह कि अगर इसे थामा न गया तो यह भारतीय सभ्यता के सम्पूर्ण विनाश से कम पर रुकने वाली नहीं है?

दरअसल, विभाजन को याद करने का मतलब इससे कहीं अधिक गहरा है. हम जिस क्षति और क्षति-बोध की बात कर रहे है, उसकी साफ़ पहचान भारत और पाकिस्तान के अतीत, वर्तमान और उसकी नियति से मिलती है.

भारत और पाकिस्तान दोनों विभाजन की आधी रात की संतानें हैं.

हम भारत के लोगों को यह खुशफ़हमी रहती आई है कि भारत की नियति कभी पाकिस्तान जैसी नहीं हो सकती. भारत उस भारतीय संस्कृति या हिन्दुस्तानी तहज़ीब का सीधा वारिस है. अलग होकर पाकिस्तान इस तहज़ीब से छिटक गया. इस अलगाव के सब दुष्परिणाम अकेले पाकिस्तान को झेलने हैं. आज का भारत मूल भारत है. इसकी सभ्यता और संस्कृति विभाजन के बावजूद अक्षुण्ण है. हमारे साथ कोई सभ्यतामूलक संकट नहीं है.  

लेकिन पिछले कुछ वर्षों और दशकों की घटनाओं ने इस विश्वास को गहरा झटका दिया है. धीरी-धीरे भारत के राजनीतिक परिदृश्य में पाकिस्तानी सियासत का पसमंज़र दिखाई देने लगा है. धर्म और राजनीति का वही घालमेल यहाँ भी बनने लगा है. वहाँ इस्लाम ख़तरे में रहता आया है, यहाँ हिंदुत्व संकट में पड़ गया है. वहाँ फ़ौजी हुकूमतें क़ाबिज़ रही हैं, यहाँ फ़ौज अचानक राजनीति का केंद्रबिंदु बन चली है. आतंरिक मामलों में भी सेना को खुली छूट देने का विचार न केवल स्वीकार कर लिया गया है, बल्कि वह सबसे लोकप्रिय शासन-सिद्धांत बन गया है.  

न्यायपालिका, चुनाव आयोग और दीगर संवैधानिक संस्थाओं की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं. मीडिया के पालतूकरण के मामले में भारत पकिस्तान से आगे निकल चुका है. जिस तरह वहाँ ज्ञान-विज्ञान का इस्लामीकरण हुआ है, उसी तरह यहाँ भी शिक्षा और विज्ञान का हिन्दूकरण करने का प्रयत्न जारी है.

पाकिस्तान के बारे में एकमत से यह बात कही जाती है कि वह पहचान के संकट का शिकार देश है. बाहर के ही नहीं, पाकिस्तान के लेखक भी यही कहते हैं.

भारत के सांस्कृतिक परिवेश का हिस्सा होने के नाते पाकिस्तान की सांस्कृतिक पहचान भारतीय संस्कृति से भिन्न नहीं हो सकती. मगर यह बात पाकिस्तान के अस्तित्व के मूल तर्क के विपरीत है. मजबूरन पाकिस्तानी हुकूमत को इस्लामी पहचान का सहारा लेना पड़ा. जिन्ना के तसव्वुर के सेक्युलर पाकिस्तान को धीरे-धीरे इस्लामिक रिपब्लिक का चोला धारण करना पड़ा. यह इस्लामिक चोला आज पाकिस्तान में लोकतंत्र और सेक्युलर आधुनिकता की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन चुका है .  

पहचान के इस सभ्यतामूलक संकट का गहरा साया भारत के ऊपर भी मंडलाता रहा है, भले ही हम उसे देखने से इनकार करते रहे हों.

विभाजन का सम्भव होना ही भारत की प्रसिद्ध गंगा-जमुनी तहजीब और बहुलात्म संस्कृति पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली घटना थी. भारतीय सभ्यता की बहुलात्मता का विध्वंस उसके सभी वारिसों की साझा क्षति है, किसी एक हिस्से की नहीं. 

विभाजित भारत हमेशा इस प्रश्न से जूझता रहा है कि क्या अब भी वह अपनी सांझी विरासत का दावा कर सकता है अथवा अब उसे मुस्लिम पाकिस्तान की तर्ज़ पर एक हिन्दू भारत हो जाना चाहिए? पिछले सत्तर वर्षों में भारतीय राजनीति इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूमती रही है.

पिछले कुछ दशकों में इस प्रश्न के पूर्वपक्ष को उत्तरपक्ष के सामने क्रमशः समर्पण करते देखा गया है. बाबरी मस्जिद के विध्वंस से शुरू हुई यह प्रक्रिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के पूर्ण बहुमत सत्तारोहण के साथ अपना एक चरण पूरा कर चुकी है.

लेकिन हिन्दू भारत का बनना मुस्लिम पाकिस्तान के बनने की तरह ही भारतीयता के मूल तर्क का अन्यथाकरण है. हिन्दू भारत का बनना कठिन तो है ही, अगर किसी तरह वो बन भी जाए तो उसे भारतीयता की विरासत का दावा उसी तरह छोड़ देना पड़ेगा, जैसे पाकिस्तान को छोड़ना पड़ा है.

भारतीयता की इस विरासत की क्षति का अर्थ है समन्वय और सहजीवन के सबसे अनूठे प्रयोग का अंत. उस सृजनात्मक सभ्यतागत प्रक्रिया का अंत जिसने भारतीय चमत्कार का निर्माण किया. 

जैसे पाकिस्तान मुसलमान बन कर अस्मिता और अस्तित्व  के अपने संकट को हल नहीं कर पाया, भारत भी हिंदू बनकर नहीं कर पाएगा.

इस संकट से पार पाने का इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं कि विभाजन और उसकी ऐतिहासिक परिणतियों की तरफ़ से आँखें मूंदे कर रखने की शुतुरमुर्गी चाल छोड़ी जाए. विभाजन के क्षतिबोध को याद किया जाए और क्षतिपूर्ति की दिशा में क़दम उठाये जाएँ.

 

( पत्रिका में प्रकाशित सम्पादकीय को यहाँ प्रस्तुत करते समय शीर्षक में बदलाव किया गया है, नए उपशीर्षक जोड़े गए हैं और एक -दो अप्रासंगिक वाक्यों को हटा दिया गया है.)

 


'इसी दुनिया में' दोबारा

यह लेख वीरेन दा के पहले संग्रह के पुनर्प्रकाशन के मौके पर लिखा था। 'इसी दुनिया में' दोबारा ----------- “शहतूत के पेड़ में उग आ...