‘एक साहित्यिक की डायरी’ के
इस पन्ने पर मुक्तिबोध एक करिश्माई किन्तु परम स्वार्थी प्रतिक्रियावादी व्यक्तित्व
की चर्चा करते हैं . लेकिन विश्लेषण उस व्यक्तित्व का नहीं , उस सामाजिक मनोविज्ञान
का करते हैं , जो ऐसे चमत्कारी व्यक्तियों और उनकी व्यक्ति-पूजा का पोषण करता है .
भारत में इन दिनों व्यक्ति-पूजा की यह प्रतिक्रियावादी राजनीति अपने चरम पर पहुंची
हुई प्रतीत होती है . यह किसी पार्टी-विशेष तक सीमित नहीं है .
मुक्तिबोध कहते हैं
– “श्रद्धेय की आलोचना करना भारतीय संस्कार के इतने विपरीत है कि कुछ मत पूछिए . हम
अपने मन की सज्जनता को भीतर के आलोचक से अधिक प्रतिष्ठित बनाए रखते हैं. यह कितनी
बड़ी आत्मवंचना है . इस आत्मवंचना का कोई पार नहीं .2 “ (‘ हाशिए पर कुछ नोट्स’,
डायरी ) प्रतिक्रियावादी राजनीति इसी आत्मवंचना से अपनी ख़ुराक पाती है.
नए की
जन्मकुंडली
सुंदरता क्या होती है ? सुंदर किसको कहते हैं ? ये सवाल जितने सीधे और सहज है ,
उतने ही उलझे हुए और भ्रामक भी . सदियों से बहस होती रही है कि सुंदरता की स्वतंत्र
सत्ता है या यह केवल देखने वाले की नजर में होती है .
उन्नीसवीं सदी में
मार्क्सवादी विचार ने सुझाया कि सुंदरता का एक वर्गीय परिप्रेक्ष्य होता है .
वर्गीय हितों का बोध सुंदरता की धारणाओं और उसके अहसास को प्रभावित करता हैं.
प्रेमचंद ने जब हुस्न के मेराज़ को उसके ऐशपरवराना अंदाज़ के बरक्श कशमकशे हयात यानी
ज़िन्दगी की ज़द्दोज़हद में देखने की सिफारिश की थी , तब वे सुन्दरता के इस वर्गीय
परिप्रेक्ष्य की ओर ध्यान खींच रहे थे .
प्रेमचन्द खुद उस रूसी बोल्शेविक क्रांति
से प्रभावित थे , जिसने यूरप में दो विश्वयुद्धों के बीच के वक्फे में सुंदरता की
इस बहस को तेज कर दिया था . कला और साहित्य की दुनिया ‘बुर्जुआ ‘ और ‘सर्वहारा’ के
बीच बंट चुकी थी. सर्वनाश की दुस्संभावना का सामना कर रही दुनिया अब यह सोच रही थी
कि दुनिया में सुंदरता जैसी कोई चीज होती भी है या नहीं . क्या सुंदरता महज़ एक
आर्थिक-सामाजिक पूर्वग्रह है , जैसा कि मार्क्सवादी बौद्धिक दायरों में समझा जा रहा
था ? क्या वह महज़ वर्चस्व कायम करने का जरिया है ? अथवा क्या वह ज़िन्दगी की कडवी
सच्चाई से मुंह चुराने का बहाना भर है, जैसा कि रोमैंटिक कवियों की दुनिया में होता
लग रहा था ?
ऐसे समय टी एस इलियट और एफ आर लिविस जैसे काव्य चिंतकों का उदय हुआ ,
जिन्होंने नई समीक्षा और आधुनिकतावादी सौन्दर्य दृष्टि की जमीन तैयार की .
आधुनिकतावादियों ने सुन्दरता और संवेदना के संकट के कारणों को सामाजिक –आर्थिक
संरचनाओं में ढूँढने की प्रवृत्ति का खंडन किया . संकट के स्रोत उन्हें आधुनिकता के
साथ सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों में दिखाई पड़े .
मनुष्य के भावबोध में
ही दरार 3(3- ‘द मेटाफिज़िकल पोएट्स’, इलियट , टी एस ; 1951) पड़ गई है . बुद्धि और
हृदय में विभाजन हो गया है . मास मीडिया और बाज़ारू संस्कृति के फैलाव ने भाषा की
अर्थ -सम्पन्नता और मार्मिकता को नष्ट कर दिया है . सिर्फ़ महान कविता सुंदरता के
अहसास की और मनुष्यता की रक्षा कर सकती है . लेकिन ऐसी कविता लिखना और उसका लुत्फ़
उठाना सबके वश की बात नहीं है . केवल गुणीजनों के एक अल्पसंख्यक समूह4 को सुंदरता
और संस्कृति की रक्षा की महती जिम्मेदारी उठानी होगी .
अंग्रेज़ी आलोचना में विकसित
हो रहे इन विचारों का असर सारी दुनिया पर हो रहा था . अंग्रेज़ी साम्राज्य का मुकुट
भारत कैसे बच सकता था . हिंदी में उन दिनों उपनिवेश विरोधी राष्ट्रीय आन्दोलन से
निकली दो साहित्यिक महाशक्तियों का प्रभाव था - प्रेमचन्द और निराला . दोनों ही
प्रगतिशील दृष्टि के हिमायती थे , जीवन के संघर्ष में सौन्दर्य देखने वाले .
राजनीतिक चेतना को सौन्दर्य-दृष्टि का अनिवार्य तत्व समझने वाले . अज्ञेय ने इन
दोनों के बर'-अक्स साहित्य की एक नई राह निकाली .
उन्होंने अपनी कविताओं और
कथा-साहित्य के जरिए सुंदरता की एक नई कल्पना पेश की . इस कल्पना में ताज़गी थी,
आज़ादी का अहसास था , निजता का स्पर्श था और आधुनिकतावादी अनास्था और अवसाद की
अनुगूंज थी. हिंदी में इसका जादुई प्रभाव हुआ . नई कविता और नई कहानी , दोनों के
दिग्विजय में अज्ञेय का बुनियादी योगदान है . कलाओं की ताक़त सुंदरता के नए अहसासों
की खोज में है . मनुष्य का व्यवहार , उसकी क्रियाशीलता और भविष्य में उसका
हस्तक्षेप सुंदरता के उसके अहसास पर निर्भर करता है . उसे क्या , क्यों और कैसे
सुंदर लगता है , यह उसके जीवन को संचालित करने वाली सबसे बड़ी प्रेरणा होती है .
विचार तो आते-जाते रहते हैं , लेकिन सौन्दर्यबोध अंगुली पकड़ कर साथ लिए चलता है .
‘एक
साहित्यिक की डायरी ‘ में संकलित निबन्धों में नई कविता के दायरे में अज्ञेय द्वारा
प्रस्तावित नई सौन्दर्य दृष्टि के साथ एक गहरी बहस की गई है . यह बहस वाद-विवाद के
रूप में नहीं की गई है . यह एक आत्मीय आंतरिक बातचीत है . इन निबंधों की शैली किसी
घनिष्ठ मित्र के साथ बातचीत की डायरी जैसी है .
बातचीत को डायरी के रूप में दर्ज
करने का लाभ यह है कि वाचक को अपने साथ बात करने का अवसर भी मिल जाता है . असल में
डायरी में संवाद कम से कम तीन स्तरों पर चलता है . पहले तो वाचक और उसके मित्र का .
दूसरे वाचक का संवाद स्वयं अपने साथ . और तीसरे पाठक के साथ . मुक्तिबोध ने इस शैली
की खोज सौन्दर्य सम्बन्धी प्रचलित अवधारणाओं के सभी पहलुओं की गहरी जांच-पड़ताल करने
के लिए की है .
एक विशेष अवधारणा किस तरह जनम लेती है , किस भूमिका का निर्वाह करती
है और अपने समय को किस तरह प्रभावित करती है , इन सब की बारीक़ खोज-बीन मुक्तिबोध
करते हैं . ख़ास बात यह कि इस त्रिस्तरीय संवाद में केवल तर्क –वितर्क नहीं है .
दोस्ताना तफरीहें हैं. रोजमर्रे की ज़िन्दगी के मार्मिक अवलोकन और उन पर सोचती-समझती
टिप्पणियाँ भी हैं. जीवन-जगत के दार्शनिक और राजनीतिक प्रश्नों से मुठभेड़ है .
सांझे हैं , सुबहें हैं. कविता है .
इन डायरियों को पढ़ते हुए पाठक को लगता है कि वो
अपने समय को और अपने आप को पहचानने लगा है . वह इस संवाद में शरीक हो जाता है . वो
अपने आप से बहस करने लगता है , और अपने आप के जरिए जमाने से . इस प्रक्रिया में एक
नए इंसान का जन्म होने लगता है . ‘नए की जन्मकुंडली’ शीर्षक से दो निबंध भी इस
संग्रह में हैं . एक और दो के नाम से .
नए इंसान का जन्म प्रचलित विचारों में छुपे
हुए प्रतिक्रियावाद को पहचानकर होता है . स्थापित , सुसज्जित , सम्मानित विचारों
में छुपे हुए छल और उसकी समूची ऐतिहासिक प्रक्रिया को समझ कर होता है .अपनी आलोचना
में अन्यत्र भी मुक्तिबोध ने विस्तार से इन चर्चाओं को उठाया है . लेकिन
संवाद-प्रतिसंवाद की इस शैली से इन अवधारणाओं का जितनी गहराई से परीक्षण हो सकता है
, शायद वह दूसरे तरीके से मुमकिन नहीं है .
मुक्तिबोध अपने समय के ‘आधुनिकतावादी’
विचारों में छुपी ‘बानर-सत्ता” 5(5 – ‘डायरी’ , सं-1989, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ,
पृष्ठ -42) को पहचान लेते हैं . वे उसे ‘लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता’ के रूप में
परिभाषित भी करते हैं. वे फासीवाद . बहुसंख्यकवाद .अंधराष्ट्रवाद आदि की चर्चा नहीं
करते . लेकिन समकालीन पाठक इस डायरी के जरिए सुंदरता की ‘आधुनिकतावादी’ और फासीवादी
अवधारणाओं के बीच की निकटता को पहचान सकता है .
आगे हम इस निकटता पर तनिक गहराई से
विचार करेंगे . हमारा उद्देश्य हिंदी की आधुनिकतावादी काव्य-दृष्टि में निहित
फासीवादी संभावनाओं के ख़िलाफ़ ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के संघर्ष को उद्घाटित करना
है . हम यहीं स्पष्ट कर दें कि हम नई कविता के व्यक्तिवादी स्कूल की कविता और
काव्य-चिन्तन को फ़ासिस्ट विचारधारा नहीं मानते . दोनों में बड़ा अंतर यह है कि नए
कवियों के लिए स्वतन्त्रता एक ऐसा सबसे बड़ा मूल्य है , जिसके साथ कोई समझौता नहीं
हो सकता , जबकि एक फ़ासिस्ट के लिए स्वतन्त्रता का कोई मूल्य ही नहीं है .
सौन्दर्य
प्रतीति का सम्बन्ध सृजन –प्रक्रिया से है . सुंदरता के बारे में एक नज़रिया यह है
कि यह कुछ गुणों , प्रतिमानों या मूल्यों पर निर्भर करती है . कोई वस्तु , दृश्य या
रचना सुंदर हो सकती है , अगर वो इन प्रतिमानों पर खरी उतरे . इन प्रतिमानों का
निरंतर विकास होता रहता है . अज्ञेय ने अपने निबंध ‘शिवत्व बोध और सौन्दर्य बोध’
में क्रमशः जटिल होते ऐसे मानकों की चर्चा की है – लय , वक्रता , स्थिरता, सन्तुलन;
परिचित और नव्यता; गाम्भीर्य, सूचकता, सार्वभौमता .6
इसी निबंध में वे आधुनिकता के
साथ साहित्यिक प्रतिमानों में आए विकास के कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं. आख्यान
साहित्य घटना-वर्णन से घटना-हेतु की खोज की तरफ बढ़ा है . नैतिक निर्णय से समझ और
सम्वेदना की ओर गया है . यह परिवर्तन , जिसे अज्ञेय संस्कार कहते हैं, आधुनिक
मानवतावादी चेतना की देन है . इन प्रतिमानों पर नई समीक्षा की छाप स्पष्ट है .
परिचित और नव्यता को परम्परा और मौलिकता के बराबर रखा जा सकता है . अज्ञेय ने इलियट
के निबंध ‘परम्परा और व्यक्तिगत प्रतिभा का’ अनुलेखन ‘रूढ़िवाद और मौलिकता’ शीर्षक
से किया था . गाम्भीर्य , सूचकता और सार्वभौमता आदि ‘नई समीक्षा’ द्वारा किए गए
प्रचलित किए गए पद हैं. अज्ञेय यह भी मानते हैं कि सुंदरता के इन प्रतिमानों का
अंतिम स्रोत मनुष्य का विवेक है , जो अनुभव पर आधारित और बुद्धि द्वारा परिमार्जित
होता है . समय के साथ मनुष्य के नौभाव , बुद्धि और विवेक का विस्तार होता चलता है .
इसे के साथ सुंदरता के प्रतिमान भी विकसित होते चलते हैं . लेकिन विकास पूर्ववर्ती
मानकों का खंडन नहीं करता , उसमें नया जोड़ भर देता है . क्योंकि नया अनुभव पुराने
को मिटा नहीं देता , केवल उसका एक नया संस्कार कर देता है . इसलिए सुंदरता के
प्रतिमान शाश्वत भले ही न हों , लेकिन वे स्थायी जरूर होते हैं.
अज्ञेय की दृष्टि में सुन्दरता के मूल्यों का नैतिक मूल्यों से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है. अगर ऐसा देखा जाता है कि सुंदर रचना नैतिक दृष्टि से भी उदात्त है, तो यह अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि सौन्दर्य बोध और नैतिक बोध दोनों का स्रोत मनुष्य का अनुभव और उसका विवेक है. लेकिन ऐसा होना एक संयोग मात्र है, क्योंकि सुंदर और शिव जीवन के दो भिन्न आयाम हैं. ये दो अलग अलग चलने वाली खोजें हैं. एक दूसरी पर निर्भर नहीं है.
दरअसल कला से, अज्ञेय के शब्दों में, 'शिवेतर-क्षय' की मांग करना एक अतिरिक्त मांग है. इतना ही नहीं, कला से असुंदर के क्षय या निषेध की मांग करना भी अनुचित है. सुन्दरता का विकास असुन्दर की पहचान या निषेध से नहीं होता , नए अनुभव और विवेक की प्रेरणा से सहज रूप से होता है. नैतिक बोध के विकास के लिए भी अनैतिक की पहचान करने और उसके विरुद्ध संघर्ष चलाने की अनिवार्यता नहीं है. उसका विकास भी सुन्दरता की तरह सहज रूप से होता है. द्वंद्व और संघर्ष की बात करना 'नाना प्रकार के वाद' चलाना है! इसका कला उर विवेक से कुछ लेना -देना नहीं .
अज्ञेय ने लिखा है -'... जो सुन्दर है वह अनैतिक नहीं होगा यह एक बात है, पर उससे शिवेतर-क्षय की माँग करना एक अतिरिक्त शक्ति या प्रभाव की माँग करना है।......
........
विश्लेषण को चरम अवस्था तक ले जाएँ तो मानना होगा कि नैतिक मूल्य यानी शिवत्व के मूल्य, और सौन्दर्य के मूल्य अलग-अलग हैं और अलग विचार माँगते हैं। विशुद्ध तर्क के क्षेत्र में यह भी मान लेना होगा कि ऐसा हो सकता है कि कोई कलाकृति सुन्दर हो और अशिव हो, या कम से कम शिव न हो।....
...........
कृतिकार सुन्दर का स्रष्टा होकर असुन्दर के सायास परित्याग के द्वारा सुन्दर की उपलब्धि नहीं करता, उसी प्रकार वह नैतिक द्रष्टा होकर सायास अनैतिक के विरोध द्वारा नैतिक को नहीं पाता; उसकी परिपुष्ट संवेदना सहज भाव से दोनों को पाती है-और देती है। इसीलिए कला हमें आनन्द भी देती है, हमारा उन्नयन भी करती है। आज का समालोचक इस बात को नाना वादों के आवरण में छिपा चाहे सकता है, इसे अमान्य नहीं कर सकता।"7
(बल मेरा )
सौन्दर्य की इस अवधारणा की धुरी है संघर्ष का निषेध और मनुष्य के 'सहज विवेक' पर अप्रश्नेय आस्था. यही अज्ञेय का मानवतावाद है. मानवतावादी अज्ञेय व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के अथक आग्रही हैं. लेकिन असुंदर और अशिव के विरुद्ध संघर्ष की अनिवार्यता से रहित सौन्दर्य-दृष्टि स्वतंत्रता के विरुद्ध भी जा सकती है, इस पर उनका ध्यान नहीं जाता.
मानवतावाद और
फ़ासीवाद विपरीत वैचारिक ध्रुवों पर स्थित प्रतीत होते हैं . लेकिन दोनों
विचारधाराएं मानवीय विवेक की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर आधारित हैं . ऐसे कयास लगाए
जाते रहे हैं कि हिटलर की वैचारिक प्रेरणाओं में दार्शनिक नीत्शे की ‘अतिमानव ‘
जैसी कल्पनाएँ भी शामिल थीं .8
अगर मानवीय विवेक इतना सहज होता तो उसके इतने रूप नहीं होते. शक्तिशाली सत्ता-सम्पन्न लोग हमेशा अपने ही विश्व बोध को मनुष्य के सहज विवेक के रूप में स्थापित कर सकते है. वे अपने ही हितों को सुन्दरता और नैतिकता के सार्वभौम और सार्वकालिक 'मानवीय मूल्यों' के रूप में प्रतिष्ठित कर सकते हैं.
मुक्तिबोध डायरी के
पहले निबंध ‘तीसरा क्षण’ में सुंदरता की मूल्य-आधारित परिकल्पना का खंडन करते हैं.
“मुझे गहरा संदेह है कि आजकल की सौन्दर्य परिभाषा केवल कविता , और वह भी आत्मपरक
कविता , की विशेषताओं के आधार पर बनाई जा रही है . सौन्दर्य संबंधी इन व्याख्याओं
का प्रकट या अप्रत्यक्ष उद्देश्य आज की काव्य-दृष्टि का डिफेन्स है ... किन्तु ये
व्याख्याएं कुछ इस प्रकार से , कुछ इस ठाठ से और शान से बनाई जाती हैं मानो वे
सार्वभौम सत्य की सार्वकालिक स्पन्दनाएं हों . इस पोज़ और पोश्चर की जरूरत नहीं . यह
अवैज्ञानिक दृष्टि है .”9
मूल्य- आधारित सौन्दर्य-बोध की जगह वे कला के तीन क्षणों
के जरिए प्रक्रिया-आधारित सौन्दर्यबोध की सिफ़ारिश करते हैं. इनमें पहला क्षण अनुभव
का , दूसरा अनुभव के वैयक्तिक अनुसंगों से मुक्त फैंटेसी में रूपांतरित होने का और
तीसरा इस फैंटेसी की शब्द-बद्ध होने का क्षण है . यह अनुभव के विस्तार की प्रक्रिया
है , जो लगातार चलती रहती है . अनुभव का वैयक्तिक अनुसंगों से मुक्त होना ही उसका
फैंटेसी में बदल जाना है . फैंटेसी अनुभव की कन्या है , किन्तु उसका स्वतंत्र
विकासशील व्यक्तित्व है . निजी दुख-ताप से छूटकर एक ख़ास अनुभव बहुत से दूसरे ( निजी
और सामाजिक ) अनुभवों से जुडकर एक नई सघनता पा जाता है . भाषाबद्ध होने की
प्रक्रिया में वह भाषा में संचित अनुभवों-आशयों से और अधिक समृद्ध होने लगता है .
यों कविता फैंटेसी से जन्म लेती है , लेकिन अंततः अपने स्वतंत्र प्रवाह का निर्माण
करती है . सुंदरता का अनुभव इस विस्तार और प्रवाह में है .
यह निरंतर गतिमान
प्रक्रिया मुक्तिबोध को छोटी कविताएँ नहीं लिखने देती .10 अनुभव का सौन्दर्यानुभव
में बदलना एक सृजनात्मक प्रक्रिया है . इसलिए सौन्दर्यानुभव की जांच केवल रचना
प्रक्रिया के आधार पर की जा सकती है , किन्ही स्थायी या शाश्वत मूल्यों के आधार पर
नहीं . अनुभव का सौन्दर्यानुभव में बदलना वैयक्तिक अनुभव का प्रातिनिधिक अनुभव में
बदलना भी है . मुक्तिबोध ‘प्रातिनिधिक’ शब्द का प्रयोग करते हैं , सार्वभौम या
सार्वकालिक नहीं . प्रातिनिधिक एक से अधिक का होता है , सबका नहीं . यह
प्रातिनिधिकता आती है “दृष्टि की स्थिति-मुक्त वैयक्तिकता और सम्वेदना की
स्थिति–बद्ध वैयक्तिकता के समन्वय” से . 11 “भोक्त्रित्व और दर्शकत्व का द्वंद्व एक
समन्वय में लीन होकर एक दूसरे के गुणों का आदान –प्रदान करता हुआ सृजन-प्रक्रिया
आगे बढ़ा देता है .”12
मुक्तिबोध की सौन्दर्य दृष्टि द्वन्द्वात्मक और गतिशील है ,
जबकि अज्ञेय की द्वंद्वरहित और स्थायित्वकामी ! अपने कालजयी उपन्यास ‘ शेखर :एक
जीवनी ‘ की भूमिका में लिखते हैं – “यह बात हिन्दी के कम लेखक समझते या मानते हैं
कि कल्पना और अनुभूति-सामर्थ्य (sensibility) के सहारे दूसरे के घटित में प्रवेश कर
सकना, और वैसा करते समय आत्म-घटित की पूर्व-धारणाओं और संस्कारों को स्थगित कर
सकना- objective हो सकना-ही लेखक की शक्ति का प्रमाण है। इसके विपरीत लेखको में ऐसे
अनेक मिल जाएँगे, जो ऐसी अनुभूति ......को परकीय, सेकण्ड-हैण्ड, अतएव घटिया और
असत्य कहेंगे।
ऐसे व्यक्तियों के लिए टी.एस. इलियट की उस उक्ति का कोई अर्थ नहीं
होगा, जो वास्तव में इसका एकमात्र उत्तर है : There is always a separation between
the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the
greater the separation. (भोगनेवाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार में सदा एक
अन्तर रहता है, और जितना बड़ा कलाकार होता है, उतना ही भारी यह अन्तर होता है।)” 13
मुक्तिबोध भोक्तृत्व और दर्शकत्व के बीच द्वन्द्वात्मक समन्वय करते हैं , जबकि
इलियट के हवाले से अज्ञेय दोनों को एकदम अलग कर देना चाहते हैं. उनके लेखे अंतर
जितना भारी हो , कला की दृष्टि से उतना ही अच्छा होगा . यह अलगाव कला को शुद्ध
बौद्धिक व्यापार बना देता है . कला जितनी बौद्धिक होगी , उसका नैतिक निर्णय उतना ही
प्रखर होगा . शेखर में , अज्ञेय स्वयं कहते हैं , यह ‘महान आदर्श’ निभ नहीं पाता.
शेखर के लेखक की यह ‘विफलता’ ही उपन्यास की श्रेष्ठता का बीज बन जाती है !
‘द्वंद्वात्मक समन्वय’ वदतोव्याघात लग सकता है , लेकिन है नहीं . ‘तीसरा क्षण’ में
केशव कहता है –“ केवल तटस्थ व्यक्ति ही तदाकार हो सकता है , समझे ?” 14
भोक्तृत्व
और दर्शकत्व के द्वन्द्वात्मक समन्वय के बिना निजी अनुभव प्रातिनिधिक अनुभव में
रूपांतरित नहीं हो सकता . यहाँ एक उदाहरण लिया जा सकता है . चाँद सुंदर लगता है ,
लेकिन उसे उसके तमाम सांस्कृतिक सन्दर्भों से काट कर देखा जाए तो वह एक चमकदार
धब्बा भर रह जाएगा . दूसरी तरफ , अगर वो सबको एक ही जैसा दिखाई दे तो ऊब पैदा करेगा
. चाँद को औरों की आँखों से देखते हुए अपनी भी आँखों से देखना एक नए अदेखे चाँद को
देखना है . यह सृजन प्रक्रिया ही सौन्दर्यानुभव है .
बुद्धिजीवी को जनता से अलग
करना प्रतिक्रियावाद है . मूल्य आधारित सौन्दर्यदृष्टि कलाकर्म के प्रति
कुलीनतावादी नजरिए में प्रतिफलित होती है . सुंदरता का निर्णय करने के लिए जैसे ही
कुछ प्रतिमान या मूल्य तय किए जाते हैं , वैसे ही दुनिया सुंदर और असुन्दर के बीच
बंट जाती है .
कुछ चीजें सुंदर मान ली जाती हैं और बाक़ी असुन्दर .
इसी तरह समाज में
कुछ लोग प्रतिभाशाली होते हैं , कवि-कलाकार होते हैं. शेष जनता - जन साधारण -भीड़ है
. कवि-कलाकार नदी का द्वीप है . उसके व्यक्तित्व की मौलिकता और स्वतन्त्रता ही उसे
कलाकार बनाती है . जनता नदी की धारा है . धारा में बहती बूंदों का अपना कोई वज़ूद
नहीं .
अपनी प्रसिद्ध कविता ‘ नदी के द्वीप ‘ 15 में अज्ञेय यह तो मानते हैं कि
धारा ने ही द्वीप को बनाया है और चाहे तो मिटा भी सकती है , लेकिन फिर भी सबसे अहम
बात यह है कि द्वीप द्वीप है , धारा नहीं है ! कुलीनातावादी नज़रिए के लिए यह मानना
जरूरी है कि असाधारण कार्य करनेवाले नायक अपनी असाधारण क्षमता किसी आंतरिक प्रेरणा
से प्राप्त करते हैं . उनका कर्तृत्व किसी सामाजिक कारक से प्रेरित नहीं होता .
‘शेखर’ में वाचक ने जन्मजात प्रतिभा के सिद्धांत पर बार- बार बल दिया है .
क्रांतिकारी पैदा होते हैं , बनाए नहीं जाते . अज्ञेय मानते हैं कि इस आंतरिक
कर्तृत्व को उद्घाटित करने की प्रवृति आधुनिक ‘मानवतावादी’ आख्यान -साहित्य की
प्रमुख विशेषता है . पुराना साहित्य नैतिक दृष्टि से नियतिबद्ध था . पात्र प्रायः
अच्छे और बुरे में बंटे होते थे , जिन्हें अपनी पूर्व-निर्धारित भूमिकाओं का
निर्वाह करना होता था . आधुनिक पात्र अपनी आंतरिक प्रेरणा से परिचालित होते हैं ,
इसलिए उन्हें किसी नैतिक खाँचें में फिट नहीं किया जा सकता .
अज्ञेय इस मानवतावादी
नज़रिए के बरक्श आधुनिक साहित्य की एक ख़ास प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं , जो उनके
लेखे आंतरिक कर्तृत्व के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करती और मनुष्य को उसकी
परिस्थितियों द्वारा संचालित मानती है . लिखते हैं –“ यह प्रवृत्ति कर्म-प्रेरणाओं
की पड़ताल को प्रवंचना कहती है, क्योंकि वह कर्ता के कर्तृत्व को, भावना और अनुभूति
की प्राथमिकता को अस्वीकार करती है। जिसे हम आभ्यन्तर कारण कहते हैं उसे वह
स्थितिजन्य परिणाम मानती है। एक प्रकार से वह साहित्य की अब तक की प्रवृत्ति को उलट
रही है: जहाँ अब तक साहित्य मानव को बँधी-बँधाई नैतिक लीकें से उबार कर कत्र्ता का
गौरवपूर्ण पद देने की ओर प्रवृत्त था, वहाँ यह नई प्रवृत्ति फिर से बँधी-बँधाई
लीकों लेकर उसमें मानव को डालने का उपक्रम कर रही है।“ 16
अज्ञेय इस नज़रिए को
द्वन्द्वात्मक , अवसरसेवी और विवेक की जगह तर्क को प्रतिष्ठित करनेवाला नज़रिया भी
करार देते हैं . नाम वे नहीं लेते , लेकिन स्पष्ट है कि उनका इशारा मार्क्सवादी
दृष्टिकोण की तरफ़ है . मानवतावाद और मार्क्सवाद की उनकी इन व्याख्याओं में निहित
सरलीकरण और भ्रम के विश्लेषण में न जाते हुए भी यह देखना कठिन नहीं है कि कुल
मिलाकर यह एक कुलीनतावादी दृष्टिकोण है . आखिर यह कर्मप्रेरक क्रांतिकारी आंतरिक
प्रेरणा गिने चुने लोगों को ही नसीब हो सकती है .
यों कविता में कठोर
निर्वैयक्तिकता और दर्शन में घोर व्यक्तिवाद का सह-अस्तित्व कायम हो जाता है . यह
स्वाभाविक भी है . नितांत निर्वैयक्तिक होने के लिए विशुद्ध बुद्धिवादी होना जरूरी
है , जिसकी अंतिम परिणति व्यक्तिवाद में ही हो सकती है .
आधुनिकतावादी
काव्य-सिद्धान्त से प्रभावित नयी कविता में निहित इस कुलीनतावाद का डायरी में अनेक
बार खंडन किया गया है . मुक्तिबोध बार बार दुहराते हैं कि यह एक प्रतिक्रियावादी
नज़रिया है . “अपने अंतिम निष्कर्ष में यह विचारधारा अत्यंत प्रतिक्रियावादी है , वह
जन के प्रति घृणा पर आधारित है , और बुद्धिजीवियों को जनता से अलग करके रखने का एक
उपाय है . ...सब नए कवि जनता को घृणा नहीं करते हैं . लेकिन कुछ ऐसे हैं जो इस
प्रतिक्रियावादी विचारधारा को अपनाते हैं. “ 17
बकौल मुक्तिबोध यह विचारधारा
पश्चिमी साम्राज्यवाद की देन है . यह विचारधारा प्रतिक्रियावादी इसलिए है कि यह
आर्थिक –राजनीतिक सत्ता पर एक छोटे कुलीन तबके के कब्ज़े को तर्कसंगत ठहराती है . यह
सत्ता में साधारण जन की हिस्सेदारी की लोकतांत्रिक मांग के विरुद्ध कुलीन वर्ग की
प्रतिक्रिया है . मध्यवर्ग के महत्वाकांक्षी लेखक सत्ता-केंद्र के करीबतर होने के
लालच में इस विचारधारा के शिकार हो कर अपनों से दूर हो जाते हैं. “ उन अपनों के
जीवन की बदरंग सूरतें उनमें, उनके विरुद्ध , एक तड़पती हुई प्रतिक्रिया पैदा कर देती
हैं. उन अपनों से हट कर वे अपने स्वामियों या उच्च सत्ताधारियों या लाभदायक प्रभाव
सम्पन्न व्यक्तियों की खुशामद करने में एक दूसरे की होड़ करने लगते हैं .” 18
प्रक्रिया-आधारित सौन्दर्य दृष्टि कुलीनातावाद की धज्जियां उड़ाती है . कला के दूसरे
क्षण में फैंटेसी का निर्माण सम्वेदना की स्थितिबद्ध वैयक्तिकता का दृष्टि की
स्थितिमुक्त वैयक्तिकता से समन्वय का प्रतिफल है . तीसरे क्षण में भाषा एक सामाजिक
शक्ति के रूप में हस्तक्षेप करती है . स्थितिमुक्त दृष्टि और भाषा में निहित
सामाजिकता के संयोग से व्यक्तिगत सम्वेदना एक नए रूप में ढल कर प्रातिनिधिक हो उठती
है .
सुंदरता इस प्रक्रिया से उत्पन्न होती है . वह किन्ही प्रतिमानों की मदद से
खोज लिए जाने के इंतज़ार में पहले-से किसी व्यक्ति , वस्तु या विचार में मौजूद नहीं
होती . अगर पहले से मौज़ूद हो तो इससे कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे ईश्वर में
खोजा जाता है या राजा में , नायिका में ढूंढा जाता है या प्रकृति में , काव्य में
तलाशा जाता है या राष्ट्र में ! मूल्य-आधारित सौन्दर्य दृष्टि फासीवाद के अनुकूल
जमीन मुहैया करा सकती है , जबकि प्रक्रिया आधारित दृष्टि हमेशा उसके प्रतिकूल सिद्ध
होगी .
अनुभूत सत्य का जितना अनादर आज है , उतना पहले कभी नहीं था . मुक्तिबोध कहते
हैं –“ असलियत यह है कि सौन्दर्य तब उत्पन्न होता है जब सृजनशील कल्पना के सहारे
संवेदित अनुभव ही का विस्तार हो जाए .” 19
सौन्दर्यानुभव के लिए सृजनशीलता ही काफी
नहीं है . सृजन की सार्थकता संवेदित अनुभव के विस्तार में है . फैंटेसी कल्पना की
दिशाहीन उड़ान नहीं है . अनुभव के विस्तार का आशय है निजी अनुभव के वेग से वृहत्तर ,
व्यापकतर और गहनतर सामाजिक सत्य तक पहुँचने का यत्न . मुक्तिबोध के लेखे नए लेखक की
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह अपने ही अनुभव को व्यक्त करने से बचता है .
विस्तार
देने की जगह उसे सेंसर कर देता है . ऐसा वह क्यों करता है ? यहाँ
सौन्दर्य-प्रक्रिया में सत्ता की दखलन्दाजी सामने आती है . “बड़े-बड़े आदर्शवादी आज
रावण के यहाँ पानी भरते हैं, और हाँ में हाँ मिलाते हैं....और रावण के राज्य का एक
मूल नियम यह है कि जो अपना अनुभूत वास्तव है , उस पर पर्दा डालो. इसलिए हमारे बहुत
से कवि और कथाकार , मारे डर के , उस वास्तव को नहीं लिखते हैं , जिसे ये भोग रहे
हैं ...अनुभूत वास्तव का जितना अनादर आज है उतना पहले कभी नहीं था .’’ 20
सत्ता जिस
लालच और भय को जन्म देती है , उसका सबसे आसान शिकार उच्चतर वर्ग होता है . “ उच्चतर
वर्ग अधिक जड़ और प्रतिगामी हो गया है . वह इस समय साहित्य में ऐसे विचारों का
प्रचार करना चाहता है जिनके द्वारा हमारा साहित्यिक व्यक्ति अनुभूत वास्तवों की
पाशविकता और मानवीयता पर पर्दा डाल दे , और वह जनता की ओर उन्मुख न हो
..............’’ 21
अनुभूत वास्तविकता जटिल होती है . उसमें मानवीय मार्मिकता और
पाशविक निर्ममता एक साथ पाई जाती है . मुक्तिबोध ने पाशविक शब्द का प्रयोग प्रचलित
अर्थ में किया है , हालांकि कहना कठिन है कि मनुष्य और पशु में अधिक निर्मम कौन है
! मूल्य-आधारित सौन्दर्य-सिद्धांत सत्ता का सिद्धांत है . मूल्यों का निर्धारण
सत्ताएँ करती हैं. इन मूल्यों को प्रचलित करने के लिए वे भय और लालच की शक्ति का
इस्तेमाल करती हैं. सृजन –प्रक्रिया आधारित सिद्धांत सत्ता को चुनौती देता है . संवेदित अनुभव के विस्तार के लिए वह हर कदम पर सत्ता का मुक़ाबला करता है.
डायरी
में एक बड़ी बहस ‘कलाकार की ईमानदारी’ की अवधारणा के बारे में है . यह नई कविता के
प्रवक्ताओं की प्रिय अवधारणा थी. अज्ञेय ने ‘आत्मनेपद’ और ‘त्रिशंकु’ में
‘स्वानुभूत’ लिखने का आग्रह किया है . वे मानते हैं कि अनुभूति की प्रामाणिकता कम
लिखवाएगी , लेकिन गलत नहीं लिखवाएगी . डायरी में मुक्तिबोध का सवाल है कि क्या
ईमानदारी को स्वानुभूत तक सीमित किया जा सकता है .
“ व्यक्तिगत ईमानदारी का नारा
देने वाले लोग असल में भाव या विचार के सिर्फ सब्जेक्टिव पहलू- केवल आत्मगत पक्ष -
के चित्रण को ही देकर उसे ‘भाव-सत्य’ या ‘आत्म-सत्य’ की उपाधि देते हैं. किन्तु भाव
या विचार का एक ऑब्जेक्टिव पहलू अर्थात् वस्तुपरक पक्ष भी होता है . आजकल लेखन में
आत्मपरक पक्ष को महत्व देकर वस्तुपरक पक्ष की उपेक्षा की जाती है .” 22
मध्यकालीन
हिंदी कविता में वस्तु-वर्णन की प्रधानता रही . छायावादी कविता में आत्माभिव्यक्ति
पर बल दिया गया . मुक्तिबोध का आग्रह है कि नई कविता में आत्मपरक और वस्तुपरक का
समन्वय होना चाहिए . कला के तीन सर्जनात्मक क्षणों में यही प्रक्रिया घटित होती है
. लेकिन यह अनायास नहीं होगा . इसके लिए कवि को दो तरह की आयास करने होंगे .
पहला
यह कि वस्तुजगत का अधिक से अधिक ज्ञान हासिल करने की चेष्टा होगी और इस ज्ञान के
आधार पर अपनी विश्व-दृष्टि को निरंतर विकसित करने का यत्न करना होगा . डायरी याद
दिलाती है कि “ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खडी है .यदि ज्ञान और बोध
की बुनियाद गलत हुई तो भावना की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी .उसका असर काव्य
शिल्प पर भी होगा .” (‘ कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी – एक ‘)
आज भावना की ऐसी
कितनी ही बेडौल इमारतें चारो तरफ खडी हैं. कहीं धर्म की इमारत है , कहीं देशभक्ति
की , कहीं परम्परा और संस्कृति की . इन बेडौल डरावनी इमारतों की पीछे एक ही
सौन्दर्य-सिद्धांत है , मूल्य-आधारित सिद्धांत . यह सिद्धांत भले ही विवेक को अंतिम
कसौटी घोषित करता हो , लेकिन यह नहीं बताता कि इस विवेक के तत्व क्या होंगे , इसके
विकास की प्रक्रिया क्या होगी . क्या कोई प्रदत्त विवेक होता है ?
प्रक्रिया के अभाव
विवेक किसी विशिष्ट नैतिक अभिरुचि की तानाशाही के सिवा और कुछ नहीं है . कवि-लेखक
का दूसरा संघर्ष अभिरुचि के परिष्कार का है .उसे अपनी ही अभिरुचि द्वारा निर्मित
अपने अंतर्निषेधों को सुधारना होगा . यह अंपनी ही अभिरुचि की दायरे को पार करने का
कठिन संघर्ष है . लेखक जिसे अपनी अभिरुचि समझता है उसके द्वारा सेंसर की गई
अनुभूतियों को ही स्वानुभूत सत्य मान लेता है . लेकिन यह अभिरुचि प्रत्यक्षतः अथवा
परोक्षतः सत्ता-निर्मित हो सकती है . लेखक अपने तईं प्रामाणिक लिख रहा होता है ,
लेकिन अभिरुचि उसे फ्रॉड में बदल देती है .
लेखकीय ईमानदारी कोई स्वतः सुलभ वस्तु
नहीं है . ईमानदारी मेहनत से कमानी पडती है .लेखक को अधिक से अधिक ईमानदार होने का
संघर्ष करना पड़ता है . यह एक निरंतर संघर्ष है . किसी दिए गए क्षण में ईमानदारी और
बेईमानी के दो उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक को चुन लेने जैसा आसान काम नहीं है .
और अधिक ईमानदारी , और बड़ी सच्चाई के लिए किया जानेवाला कठिन संघर्ष है .
विवेक की
तरह सत्य भी प्रदत्त , परिभाषित , निर्धारित और सनातन नहीं होता . सौन्दर्य की तरह
सत्य भी एक सृजनात्मक प्रक्रिया है . कहने का आशय ये नहीं कि सत्य एकदम अनिर्धारणीय
और अनिश्चित होता हो . अगर ऐसा होता तो वृहत्तर सत्य तक पहुँचने का कोई रास्ता ही न
होता . अगर सत्य ही कुछ नहीं , तो वृहत्तर सत्य कैसा ? वृहत्तर सत्य की खोज के लिए
सत्य में आस्था जरूरी है .
लेकिन यह भी जरूरी है कि जाने हुए सत्य पर निरंतर संदेह
किया जाए . पहचाना जाए कि मनुष्य की ज्ञान शक्ति की भी सीमाएं हैं. डायरी कहती है
,”हमें ज्ञान शक्ति की सीमाओं का गहरे से गहरा ज्ञान चाहिए , जिससे कि ग़लतियाँ टाल
सकें , अपने कार्यों को अधिक फलप्रद बना सकें .” 23 असीम संदेहरहित ज्ञान या तो
अपौरुषेय होता है या फ़ासिस्ट .
सन्दर्भ
1(हाशिए पर कुछ नोट्स , ‘एक साहित्यिक की
डायरी ‘)
2(‘ हाशिए पर कुछ नोट्स’, डायरी )
3- ‘द मेटाफिज़िकल पोएट्स’, इलियट , टी
एस ; 1951)
4- ‘मास सिविलाइज़ेशन एंड माइनोरिटी कल्चर’ – लीविस , एफ आर ; 1930 )
5
– ‘डायरी’ , सं-1989)
6 –‘सौन्दर्यबोध और शिवत्वबोध’ ; अज्ञेय , सच्चिदानंद ,
हीरानंद वात्स्यायन )
7 – वही )
8 - Nietzsche, Anti-Semitism, and the
Holocaust (1997), Steven Aschheim ) .
9- डायरी , सं-89, पृष्ठ 13)
10 -‘एक
लम्बी कविता का अंत’ , डायरी )
11 – डायरी , सं-89 , पृष्ठ -21 )
12 - वही )
13
भूमिका , शेखर:एक जीवनी , भाग -1
14 ( डायरी , पृष्ठ -15 )
15 - अज्ञेय, ‘हरी घास
पर क्षण भर’ )
16 - (अज्ञेय , ‘सौन्दर्य बोध और शिवत्व बोध’)
17-( ‘एक लम्बी कविता
का अंत’ , डायरी )
18-( वही )
19- ( ‘तीसरा क्षण’ , डायरी )
20- वही
21 - ( ‘एक लम्बी कविता
का अंत ‘ , डायरी )
22 ( ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी –एक’ , डायरी ) .
23(
कटुयान और काव्य सत्य‘, डायरी ).