(संतोष चतुर्वेदी संपादित ' अनहद ' के पहले अंक में प्रकाशित. समीक्षा के बहाने हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना की नयी बहसों का एक जायजा.)
''प्रतिबद्धता के बावजूद '' आठवें नवें दशक में मार्क्सवादी आलोचना के भीतरी तनावों, अंतर्विरोधों और संघर्ष रेखाओं का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. यह पुस्तक राजेन्द्र कुमार के सन अस्सी से लेकर अब तक लिखे गए आलोचनात्मक निबंधों का संग्रह है. दो खंडो वाले इस संकलन के पहले खंड में ' अभिप्राय' पत्रिका के लिए लिखे गए सम्पादकीय संकलित हैं , जब कि दूसरे खंड में कुछ अन्य निबंध हैं. 'अभिप्राय ' का पूरा दौर हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना के लिए गहरे आतंरिक तनावों और दूरगामी बहसों का दौर है. इस उथल पुथल से निकल कर मार्क्सवादी आलोचना कहाँ पहुँची , और आज वह कहाँ और क्यों खड़ी है, इन सवालों में जिन की दिलचस्पी हो उन के लिए यह एक जरूरी किताब है.
आठवां दशक हिंदी साहित्य में कुछ बुनियादी बदलावों के लिए जाना जाता है. 'नयी कविता' - 'नयी कहानी' की व्यक्तिवाचक अंतरंगता और 'अकविता'- 'वाम कविता' की उद्धत बहिरंगता को छोड़ कर हिंदी ने समकालीनता के नए सामाजिक अन्तःकरण का आविष्कार किया. आलोचना के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण समय था , क्योंकि नयी रचनाशीलता उस के बने बनाए चौखटों से बाहर निकल रही थी.ऐसे में मार्क्सवादी आलोचना की परम्परागत पद्धतियाँ और कसौटियां भी बहस के घेरे में आ रहीं थीं. मुक्तिबोध नयी कविता के दौर में ही आलोचना की जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुची पर कशाघात कर चुके थे.उन्होंने अपने निबंधों में नयी मार्क्सवादी सौन्दर्य दृष्टि की मजबूत बुनियाद रखी थी , लेकिन व्यवहार में एक सुसंगत सैद्धांतिकी के रूप में उस का संगठित होना बाकी था , और शायद अब तक बाकी है.
विचारधारा , वर्गदृष्टि और प्रतिबद्धता मार्क्सवादी आलोचना की सर्वमान्य कसौटियां थी . लेकिन उन पर सवाल उठने लगे थे.स्वातंत्रयोत्तर के मोहभंग से जन्मी ' नयी कविता' - ' नयी कहानी ' की एकांतिकता और अनास्था से मुकाबला करने में तो वे कारगर रहीं, लेकिन साठोत्तरी के भूखी नंगी पीढी के सर्वनिषेधवादी विद्रोह की काट उन के पास न थी.इन विद्रोहियों की प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं थी . कमी थी अनुभव के तपाव में , जिसे आक्रोश के ताप से भरा जा रहा था.आठवें दशक में हिंदी की रचनाशीलता ने इसी विसंगति का निदान ढूँढते हुए एक नया मोड़ लिया. उस ने प्रतिबद्धता के ख़याल को नए अंदाज़ में समझने और बरतने की कोशिश की. प्रतिबद्धता किस के लिए ? वर्ग के लिए, विचारधारा के लिए ?या जीवन और उस की साहित्यिक कलात्मक पुनर्रचना के लिए भी? क्या प्रतिबद्धता पर्याप्त है ? अनिवार्य है?या वह महज़ एक राजनीति वैचारिक संकीर्णता है ?
पुस्तक का पहला ही लेख इस सवाल से टकराता है . बाकी लेखों में भी किसी न किसी कोण से इसी बुनियादी सवाल के साथ जोर आजमाइश की गयी है. राजेन्द्र कुमार सम्पादकीय लिख रहें हैं. सीधे पाठकों से मुखातिब हैं, आलोचकों और विद्वानों से नहीं . इस नाते उन की शैली संवादधर्मी और 'सुरझावनहारी ' है, उलझाऊ और लड़ाकू नहीं. सम्पादन और आलोचन के संयोग ने उन की शैली को वह सयंम और शालीनता बख्शी है , जो हिंदी में कभी- कभी संदेह की निगाह से देखी जाती है , जैसे इन 'दुर्गुणों' से आलोचना की प्रतिबद्धता में कुछ कमी आ जाती हो!
राजेन्द्र कुमार असंतोष को लेखक की आस्था का वास्तविक आधार घोषित करते हुए स्पस्ट निर्णय देते हैं कि लेखक को 'इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता कि यदि वह किसी सैद्धांतिक मतवाद से असंतुष्ट होता है तो उसे राजनीति अभिव्यक्ति भी दे सके.' इस अधिकार के बिना वह 'स्वस्थ परिवर्तनकामी प्रगतिशील शक्तियों' को अपना रचनात्मक सहयोग नहीं दे सकेगा. सांचेढली सुडौल कृतियों का निरर्थक ढेर भले ही खडा कर ले. लेकिन इस का मतलब यह नहीं
कि वे ' अछ्छी कुन्ठा रहित इकाई सांचे ढले समाज से ' के सिद्धांत या मतवाद के खोखलेपन को नहीं पहचानते. '' सांचे ढला समाज तो फिर भी संभव है लेकिन समाज से कटी किसी भी कुंठा रहित इकाई की तो कल्पना ही हवाई है. कुंठारहित समाज न हो तो सामान्यतया कुंठारहित इकाई कैसे रह सकती है ?'' इस लिए किसी राजनीतिक विचार के प्रति प्रतिबद्धता मात्र अपने आप में न तो सांचापन है न संकीर्णता. असलियत यह है
कि '' प्रतिबद्धता के दायरे में हमारी प्रगतिशीलता का सही पता यह देखने से चलेगा कि हम किधर बढ़ रहें हैं, - एक नितांत सांचे ढले समाज की ओर या एक सर्वथा जीवंत समाज की ओर . .. ..हमारी चिंता का मूल विषय यह होना चाहिए कि रचना में अनुभव और विचारधारा की अविछिन्न एकात्मता को कैसे उपलब्ध किया जाए .'' यह एकात्मता विचारधारा से अनुभव का काम लेने या उसे अनुभव का स्थानापन्न बना लेने की प्रवृत्तियों का जवाब है .
कोई पूछ सकता है कि अनुभव और विचार की यह एकात्मता किसी रचना में किस हद तक उपलब्ध हुयी है , इस का फैसला कैसे हो . एक अन्य लेख ' साहित्य में संघर्ष की स्थिति' में इस के कुछ ठोस संकेत मिलते हैं. 'कविता का प्रयोग करना' एक बात है. 'कविता को कविता बनाने का प्रयोग करना' एक दूसरी बात है.राजेन्द्र कुमार के विवेचन में यह दूसरी स्थिति ही विचार से अनुभव का काम लेने का उदाहरण है.अपनी बात स्पस्ट करने के लिए वे एक स्थापित कवि का उदाहरण देते हैं. .हिंदी में नाम लेकर स्थापित कवियों की ऐसी दो टूक आलोचना कम ही देखनो को मिलाती है. निर्भ्रान्त आलोचकीय निष्ठा और साहस का यह नमूना ध्यान देने लायक है.
'' घबराये हुए शब्द ' की शुरुआत में जगूड़ी रचना से अपनी वांछा को इन शब्दों में प्रकट करतें हैं-' अनुभव में तात्कालिक, स्वभाव में तत्व दर्शी , शैली से सभी विधाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली , कथ्य में सब की आवाज़ लिए हुए, विन्यास में सर्वाधिक नाटकीय और असर में एकदम धर्म सरीखी मैं हर बार एक कविता लिखना चाहता हूँ. 'लेकिन जगूड़ी जब लिख चुकतें हैं तब हम पातें हैं कि अपनी वांछा के केवल एक ही पक्ष की पूर्ति वे कर सके. यानी ' विन्यास में सर्वाधिक नाटकीयता की' की. बाकी जो बची उन की कविता , वह अधिकांशतः अनुभव में काव्यातिरेकी, स्वभाव में चौकनी, शैली से सभी विधाओं का 'कविताकरण ' करने वाली . कथ्य में सिर्फ 'भाषा' लिए हुए और असर में कुल मिला कर एक कविता-सरीखी कविता ही बची !''
उदाहरण के लिए जगूड़ी का चुनाव मानीखेज है. जगूड़ी अकविता के दौर की उपज हैं , जिन्होंने अपनी कविता को समकालीन बनाने के लिए सतत कठिन उद्यम किया है. लेकिन प्रतिबद्धता के बावजूद समकालीनता उन्हें कितनी नसीब हो पायी, यह कुमार के विश्लेषण से स्पस्ट है.
कविता अगर प्रतिबद्धता और रचनात्मक उद्यम से हासिल नहीं होती , तो क्या वह किसी ' संवेदनात्मक अभिज्ञान ' से प्रस्फुटित होती है ? क्या यह समझा जाए कि वह क्रोचे की सहजानुभूति - सरीखी कोई वस्तु है ?शैलेश मटियानी का ' संवेदनात्मक अभिज्ञान' कुछ ऐसा ही है. वे इसे पुष्ट करने के लिए एक अद्भुत उदाहरण देते हैं.'' रेगिस्तानी इलाकों में लोग गाय को प्यासा रखने के बाद खुला छोड़ देते हैं और प्यास से व्याकुल गाय जहां खुरों से जमीन खोदना और फुंकारना शुरू करती है, ठीक वहीं कुआं खोदतें हैं.''
उदाहरण असरदार है . लेकिन कुमार अपने पैने विश्लेषण से इस संवेदनात्मक अभिज्ञान में निहित शक्ति- समीकरण के राजनीतक तर्क को उद्घाटित कर देते हैं. ' आगे कुछ न सूझने की अवसन्नता' शीर्षक निबंध में वे दिखालातें हैं-''कुआं खोदने के उद्देश्य से सही जमीन तलाशने के लिए , गाय को प्यासा रखने के बाद ही खुला छोड़ना अगर ' संवेदनात्मक अभिज्ञान' का सही तरीका माना जाए , तो फिर क्यों न सता और व्यवस्था कलाकारों , रचनाकारों को गाय मान कर ही चले ?.. ताकि रचनाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भ्रम भी न टूटे और जहां यह ....गाय प्यास से व्याकुल हो कर , तथाकथित संवेदनात्मक अभिज्ञान का परिचय दे, ठीक वहीं सत्ता अपनी व्यवस्था के अनुष्ठान से अपने लिए कुआं खोदना शुरू कर दे. रचनाकार रूपी गाय की प्यास की व्याकुलता आखिर में किस तरह सत्ता की प्यास बुझाए जाने का स्रोत बनाती है- यह उपर्युक्त उपक्रम से स्वतः स्पस्ट है. ''
कलानुभव उद्देश्यपूर्ण अभ्यास और उद्यम से उपलब्ध होता है अथवा अभिज्ञान या सहजानुभूति से? कलाचिन्तन के विकास का अब तक का इतिहास इस प्रश्न का समाधान नहीं कर सका है. दोनों पक्ष हमेशा बने रहते हैं . एक के बाद दूसरे का दौर दिखाई देता है. अभ्यास पक्ष हमेशा कला की उद्देश्यपूर्णता , सामाजिक मूल्यवत्ता और उस की इतिहास सम्बद्धता पर जोर देता दिखाई पड़ता है , जब कीं अभिज्ञान पक्ष अहैतुकता ,निजी अस्मिता और निरपेक्ष सुन्दरता पर. मार्क्सवादी कला चिंतन को आम तौर पर पहली श्रेणी से सम्बद्ध किया जा सकता है, जब कि कलावाद को दूसरी श्रेणी से.लेकिन सातवें दशक से यूरप अमरीका में भी मार्क्सवादी में एक नया मोड़ दिखाई दिया. इसे अक्सर नव -मार्क्सवाद या 'मार्क्सवाद की दूसरी परम्परा' कहा जाता है. इस परम्परा के ध्वजवाहक मार्क्स के जगत्प्रसिद्ध प्रौढ़ लेखन की तुलना में उन के शुरुआती लेखन पर अधिक जोर देते हैं , ख़ास तौर पर १८४४ की आर्थिक राजनीतिक पांडुलिपियों पर. सोवियत संघ के सरकारी समाजवाद की बदनामी और यूरप - अमरीका में साठ के विद्रोहों की नाकामी से निकली बौद्धिक निराशा इस नव- वाम की पृष्ठभूमि थी. फ्रैंकफर्ट स्कूल के नाम से विख्यात अडोर्नो, मार्क्यूस, बेंजामिन जैसे चिंतकों से गहरे प्रभावित इस धारा का , अस्सी के दशक में , हिंदी आलोचना पर सीधा असर पडा. नामवर सिंह के द्वारा संपादित ' आलोचना ' पत्रिका में निरंतर ऐसे लेख छप रहे थे , जिन में इस धारा से जुडी अवधारणायें दुहराई जा रहीं थी.परम्परागत मार्क्सवादी आलोचना वर्गीय प्रतिबद्धता पर जोर देने के चलते नयी रचनाशीलता को प्रोत्साहित कर पाने में समर्थ न थी, इस लिए इस नए मार्क्सवाद की ओर कुछ लोग गए. यह एक ऐसा मार्क्सवाद था , जो केवल सौन्दर्यात्मक ( कलात्मक- साहित्यिक) सक्रियता को ही ' मानवीय ', यानी अलगाव और विभाजन से मुक्त , कर्म के रूप में देख पाता था , और उसी से समाज में क्रांतिकारी बदलावों की उम्मीद भी करता था. ऐसे आलोचकों ने साहित्यकार की प्रतिबद्धता और साहित्य की 'सापेक्षिक स्वायत्तता' की जगह ( साहित्य की ) अस्मिता की बात चलाई.' सापेक्षिक स्वायत्तता' अर्थ - राजनीतिक संघर्ष की तुलना में संस्कृति कर्म की सापेक्षता पर बल देती है . इस के विपरीत 'अस्मिता' संस्कृत की स्वायत्तता पर अधिक बल देती है. कविता के नए प्रतिमान ' के दूसरे संस्करण (१९७४) की भूमिका में नामवर सिंह ने जेरेमी हौथौर्ण की पुस्तक (' Identiti and relationship' )का उल्लेख इसी सन्दर्भ में किया है. चूंकि राजनीतिक कारवाइयां सांस्कृतिक परिवर्तन करने में सफल नहीं हो पा रहीं थीं , इस लिए उम्मीद की जा रही थी सांस्कृतिक कारवाइयां राजनीतिक परिवर्तनों को आवेग देने का काम कर सकतीं हैं.इसी से ' अराजनीतिक राजनीति ' की अवधारना निकली , जिसे उस जमाने में राजनीति से अधिक कारआमद समझा गया.ध्यान देने की बात यह है कि ठीक इसी समय हिंदी की कविता - कहानी भी बदल रही थी.साठोत्तरी की घनघोर राजनीतिक भंगिमा को छोड़कर, जिसे 'बडबोलापन' कहा जा रहा था, एक सूक्ष्म परोक्ष राजनीतिक दृष्टि की बात कही जाने लगी. अब वर्गसंघर्ष ही लेखक की प्रतिबद्धता का एकमात्र केन्द्र्विंदु नहीं था. वह बदल रहा था. या 'व्यापक' हो रहा था.लेखक जीवन की व्यापकता पर ध्यान केन्द्रित कर रहे थे , इस उम्मीद में की वह उन्हें खुदबखुद सही राजनीति तक ले जायेगा.
राजेन्द्र कुमार प्रतिबद्धता की संकीर्ण समझदारी के खतरों को समझ रहे थे . लेकिन अराजनीतिक राजनीति के उलझाव से भी अनजान न थे.
अप्रैल -जून १९७४ की 'आलोचना ' में नामवर सिंह ने उस समय के वामपंथी लेखन की आलोचना करते हुए लिखा -''व्यवस्था विरोध पर विशेष बल देने के कारण यह लेखन वस्तुतः एक विरोधी लेखन की नियति को स्वीकार कर लेता है. जबकि उस का ऐतिहासिक दायित्व शासकवर्ग के साहित्य के विकल्प में एक उच्चतर साहित्य का प्रतिमान प्रस्तुत करना है. ''
क्या इस का यह अर्थ नहीं है की लेखक अगर व्यवस्था विरोध पर विशेष बल देता है तो वह वह एक निम्नतर साहित्य रचता है. लेकिन अगर वह उच्चतर साहित्य का प्रतिमान प्रस्तुत करने पर बल देता है है तो व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है.
सवाल है, क्या व्यवस्था विरोध पर, व्यवस्था में बदलाव के संघर्ष पर, बल दिए बगैर उच्चतर साहित्य का सृजन संभव है ?
'इतिहास और साहित्य का इतिहास ' निबंध में राजेन्द्र कुमार ने लिखा है- '' इतिहास किसी का भी हो , वह व्यक्तिगत विकास का नहीं , सामाजिक विकास की बहिरंतर सरणियों का प्रत्यक्षीकरण कराता है. इसलिए साहित्य का इतिहास अंततोगत्वा सामाजिक इतिहास भी होना चाहिए. ''
समाज और साहित्य के द्वंदात्मक रिश्ते प् र दो मार्क्सवादी आलोचकों के दृष्टियों में बलाघात का अंतर स्पस्ट है.
कुमार का बुनियादी सूत्रीकरण यह है-''समाज के पुनर्निर्माण की इच्छा का ही प्राथमिक रूप है अनुभव का पुनर्निर्माण. अनुभव का पुनर्निर्माण ही अनुभव के अपूर्व होने की शर्त है. '' अनुभव का पुनर्निर्माण मुक्तिबोध के संकल्प ' जीवन की पुनर्रचना ' से भिन्न नहीं है. कुमार का आलोचकीय संघर्ष मुक्तिबोध की परम्परा में है. प्रतिबद्धता के यांत्रिक उपयोग पर उन की तमाम वाजिब आपत्तियों के बावजूद . प्रतिबद्धता के बावजूद में सवाल प्रतिबद्धता पर नहीं , उस की यांत्रिकता पर है. कुमार लेखक से संघर्ष की मुद्रा नहीं , चेतना की मांग करते हैं.
'साहित्य में संघर्ष के स्थिति ' में वे पूछते हैं-''ये लोग यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते की संघर्ष -चेतना का सच्चा और खरा साक्ष्य वही रचना दे सकती है जिस में संघर्ष की स्थिति भावात्मक नहीं, बल्कि भाव की भी स्थिति संघर्षात्मक हो ?''
यह समझने की कोशिश की जाती तो समकालीनता का सौंदर्यशास्त्र कुछ अलग होता. उस में केन्द्रीय स्थित संघर्ष की होती, बचाव की नहीं . इस आखिरी बात को और स्पस्ट करने के लिए , महज़ एक उदाहरण के बतौर, एक लब्धप्रतिष्ठ समकालीन कवि की यह प्रसिद्द और सुन्दर कविता यहाँ दी जा रही है -' प्रत्येक आवाज़ खटका है '
प्रत्येक आवाज खटका है
बच्चे का मॉं! कहकर पुकारना
खत्म होती हरियाली में
बीज से अंकुर का निकलना
खाली मुट्ठी में बंद हवा का छूटकर
जमीन पर गिरना खटका है.
पानी पीना और रोटी चबाना भी.
बचाओ! बचाओ!! चिल्ला सकने वाले लोग
बचाओ भी नहीं चिल्लाते
कोई बचा है
यह पूछने वाला भी नहीं बचेगा
लगता है दुनिया को नष्ट करने का धमाका
अभी शायद हो
हो सकता है जिंदगी को नष्ट करने के धमाके के पहले
जिंदगी का बड़ा धमाका हो.
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