Saturday, April 16, 2011

देखते है - नाच

(अज्ञेय की कविता ' नाच ' पर एक बतकही.)


एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।
रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ
वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।
दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
उस पर तीखी रोशनी पड़ती है
जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।
न मुझे देखते हैं जो नाचता है
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
न रोशनी को ही जिस में नाच दीखता है:
लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।
पर मैं जो नाचता
जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ
जो जिन खम्भों के बीच है
जिस पर जो रोशनी पड़ती है
उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर
असल में मैं नाचता नहीं हूँ।
मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ
कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये -
पर तनाव ढीलता नहीं
और मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ
पर तनाव वैसा ही बना रहता है
सब कुछ वैसा ही बना रहता है।
और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं
मुझे नहीं
रस्सी को नहीं
खम्भे नहीं
रोशनी नहीं
तनाव भी नहीं
देखते हैं - नाच ! ( 'नाच'-अज्ञेय )

' देखते हैं -नाच!'

इन तीन अंतिम शब्दों में यह पूरी कविता पढी जा सकती है. यह अज्ञेय की कविता है. उन की अधिकाँश कवितायें अपनी आखिरी पंक्तियों में पूरी पढी जा सकती हैं. वे मुक्तिबोध की कविताओं की तरह नहीं होतीं , जहां कोई पंक्ति आखिरी नहीं होती. एक से दूसरी पंक्तियाँ जुड़ती, बिछड़तीं,लड़तीं , जन्म लेती रहती हैं. उनकी कविताओं में समय का एक खौलता हुआ अविच्छिन्न बहाव मिलाता है. अज्ञेय की नज़र वहाँ होती है, जहां हम देखते हैं कि उस बहाव से कोई 'एक बूँद सहसा उछली,'उस एक उछाल , एक लहर, को उत्कर्ष के अंतिम बिंदु पर अपनी अद्भुत कौंध के साथ हम देखते हैं.

' देखते हैं- नाच!'

नाच एक छोर पर है . देखना दूसरे छोर पर. दोनों के बीच यह कविता तनी हुयी है.

नाच भी दो तरह का होता है. उल्लास से जब मन नाच रहा हो , देह भी नाचे बिना नहीं रह सकती. लेकिन जिन्दगी यों भी बहुत नाच नचाती है.

थाकेउँ जनम-जनम के नाचत, अब मोहि नाच न भावै।- दूलनदास.
जैसैं मंदला तुमहि बजावा, तैसैं नाचत मैं दुख पावा॥- कबीर.
अब हौं नाच्यौ बहुत गोपाल--सूरदास.

युग बदले , लेकिन दुःख का नाच नहीं बदला. देखिये , नजीर को भी ' किस किस तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ '. कौन भूल सकता है, 'कफ़न' के पैसों की दारू के बाद घीसू माधव का नाच , मुक्तिबोध के 'मैं' का भयानक नाच - ' शून्य मन के टीन छत पर गर्म ' गोरख पांडे का राजा भी आसमान में उड़ती मैना को मार कर , उस के पंख नोच कर , उस की टांगें तोड़ कर , उसे नाचने के लिए कहता है .

ये सारे नाच अलग हैं, लेकिन कहीं एक जैसे भी हैं.कोई नचा रहा है . कोई रस्सी तनी हुयी है, नाचना पड़ता है. नाचनेवाला नाचना चाहता नहीं है.नाच से छुटकारा चाहता है , जितनी जल्दी मिल सके. लेकिन तनाव ढीलता नहीं . छुट्टी होती नहीं.

नाच है.नाचना नहीं है. नाचना मन से होता है. यही नाचना जब कलात्मक हो जाए तो नृत्य हो जाता है. लेकिन यहाँ नाच है. अज्ञेय तो मानते थे , कविता भाषा में नहीं , शब्द में होती है. भाषा तो गद्यमय होती है.शब्द उसे कविता बनाते हैं. कविता में शब्द चमकते हैं, दीप्त होते हैं. अपनी विशिष्ट अर्थवत्ता के साथ. लेकिन उस से घिरे नहीं!सूक्ष्म. सान्द्र. तरल . जटिल.

जी हाँ , जटिल. यह नाच भी महज नाच नहीं है. क्या यह एक प्रतीकात्मक नाच है ?जैसा अज्ञेय-प्रेमी रामस्वरूप चतुर्वेदी मानते हैं. संभवतः कुछ दूसरे लब्धप्रतिष्ठ आलोचक भी.यह हिंदी के आलोचकों की प्रिय कविता है.
क्या यह जीवन का प्रतीक है ?या कलाकर्म का ?कविकर्म का ?समाज में बुद्धिजीवी की भूमिका का ?हो सकता है.कविता में प्रतीकार्थों की संभावना होती ही है. सब पढ़ने वाले की श्रद्धा पर निर्भर करता है. अथवा अपेक्षा पर. आप दो खम्भों को व्यक्तिस्वातंत्र्य और सामाजिक अनुशाशन के प्रतीक समझ लीजिये . या संस्कृति और राजनीति के. सृजनशीलता और समायोजन के. स्वतंत्र बौद्धिकता और सत्ता द्वारा किये जाने वाले उस के इस्तेमाल के. कला और कला -प्रतिष्ठान के. रस्सी तन जायेगी और नाच शुरू हो जाएगा. यह कविता 'महावृक्ष के नीचे ' नामक संग्रह में है , जिस में अधिकतर कवितायें आपातकाल के परिदृश्य से सम्बंधित हैं, जिसे इस कविता में भी आसानी से पढ़ा जा सकता है.
चर्चित पकिस्तानी फिल्म ' खुदा के लिए' में एक संवाद है -'' इस्लाम में दाढी है , लेकिन दाढी में इस्लाम नहीं है.'' दाढी रखने की प्रथा इस्लाम में मिलती है, लेकिन यही इस्लाम नहीं है. मेरी इल्तज़ा यह है कि कविता में प्रतीकार्थ हो सकते हैं, लेकिन प्रतीकार्थों में ही कविता नहीं होती.आप खम्भे , रस्सी , नाच को प्रतीक मान लीजिये या खम्भे , रस्सी, नाच .इस से कविता के रूपभाव पर कोई फर्क नहीं पड़ता. अज्ञेय की भाषा में- 'रूप के भावग्रहण की चेष्टा' पर!

' हम निहारते रूप
कांच के पीछे
हांप रही है मछली

रूपतृषा भी
( और कांच के पीछे )
है जिजीविषा .' ( 'सोनमछरी '- अज्ञेय )

'भाव के रूपग्रहण की चेष्टा ' रूपवाद नहीं है , क्योंकि रूपतृषा आखिर जिजीविषा ही है , लेकिन कांच के आगे और पीछे उस का एक ही रूप नहीं है. कांच के आगे जो जीवन नृत्य करता सा दीखता है , वही कांच के पीछे हांफता हुआ दीखता है. यानी रूप अपने आप में न सत्य है न शाश्वत है. सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि कौन कहाँ से देख रहा है.

' देखते हैं -नाच'.
, जो नाचना पड़ता है , उस से अलग है वह नाच , जो लोग देखते हैं. नाच देखना नृत्य देखने जैसा नहीं है. नृत्य देखने वाला देखते देखते खुद भी उस नृत्य में शामिल हो जाता है . नाच देखना तमाशा देखने जैसा है. एक मनोरंजन . एक दिलबहलाव. तमाशबीन का सरोकार महज सनसनी से होता है. जो कुछ वह देख रहा है , उस से उसका कोई भावनातमक बौद्धिक जुड़ाव नहीं, कोई बेचैनी नहीं , कोई व्यथा नहीं.
नाच में जितनी यंत्रणा है , उस से अधिक असंवेदनशीलता है इस नाच देखने में . नाचने वाला कौन है , वह क्यों और कैसे नाच रहा है, किस रस्सी पर किन खम्भों के बीच वह नाच रहा है, क्या है जो उसे नचा रहा है , वह रौशनी कैसी है जो उसे दिखा रही है , उस रौशनी का इंतज़ाम किस ने किया है , कहाँ किस कोण से वह रौशनी डाली जा रही है , जिस से क्या दिख और क्या छिप रहा है, जिन्हें महज नाच देखना है , उन्हें इन जैसे सवालों से क्या लेना देना. नाच देखना क्या है , कुछ भी ना देखना है. देखते हुए न देखना. अंधेपन से बड़ा अंधापन. भयानक जड़ता . दृष्टि की ऐसी जड़ता , जो दृश्य को भी जड़ बनाती है. नाच में छुपा हुआ जो मनुष्य है, जो हांफती हुयी मछली है , उसे निगल जाती है.

क्या होगा , अगर हम ऐसे ही नाच देखने वालों का समाज बन जाएँ .या बन गए हों. अज्ञेय ने जब यह कविता लिखी थी , तब तो न टेलीविजन था न इंटरनेट. लेकिन आज तो हम सब इस सवाल से चौतरफा घिर ही गए हैं.कृपया मुझे संचार क्रांति का विरोधी न समझा जाए. सवाल टेक्नोलॉजी का नहीं है , उस नज़रिए का है , जिस से हम देखते हैं -नाच. इस तरह देखने से हम एक नाचती हुयी छटपटाहट को महज नाच में बदले दे रहे हैं. इस तरह देखने से हम नचाये जाने वालों और खुद के बीच कांच की एक अदृश्य अनतिक्रम्य दीवार खींचे ले रहे हैं.बड़ी आसानी से यह भूलते हुए की कांच की दीवार के इस पार और उस पार, जो मनुष्य है , वह एक ही है ,

मैं नाच रहा हूँ . मैं देख रहा हूँ कि मैं क्या नाच रहा हूँ. कि मैं क्यों नाच रहा हूँ. मैं देख रहा हूँ कि लोग देख रहे हैं. लेकिन यह भी देख रहा हूँ कि लोग महज़ नाच देख रहे हैं. ये नाच देखने वाले क्या कभी हाथ बढ़ा , रस्सी की गाँठ खोल , मेरी छुट्टी होने देंगे ?क्योंकि नाच ख़त्म हो गया तो फिर देखने के लिए क्या रहेगा.

'देखते हैं -नाच'.
असल में यह कविता नाच के बारे में नहीं नाच देखने के बारे में है. अज्ञेय कहते थे की भोक्ता जब द्रष्टा बनने लगता है , तब दृष्टि पैदा होती है. जीवन दृष्टि और कला दृष्टि. लेकिन क्या होता है जब वह दर्शक बनने लगता है, मूकदर्शक ? नाच देखने वाला समाज नचाये जाने वाला समाज बनता है. मैं नचाया भी जा रहा हूँ . मुझे मेरा ही नाच दिखाया भी जा रहा है. मैं खुद ही तमाशा हूँ , और खुद ही तमाशाई. लेकिन वह कोई और है, जो इस शो का असली संचालक है .जिस ने खम्भे खड़े किये , जिस ने रस्सी तनवायी, जिस ने रौशनी का इंतज़ाम किया.

वह नाच के बाहर है . इस लिए उसे कोई नहीं देखता.

10 comments:

शिरीष कुमार मौर्य said...

एक नई निगाह के साथ आपका लेख अच्छा लगा ....
***
नामवर जी को बेहद प्रिय है ये कविता....वसुधा मे लीलाधर जगूडी जी का इन्टरव्यू है...उसमे इसके बारे मे पर्याप्त चर्चा है...

कविता रावत said...

bahut hi achhi saarthak batkahi prastuti ke liye aabhar...

लीना मल्होत्रा said...

bahut kuchh seekh rahi hoon aapke vicharo se. sundar prastuti.saadar.

Ashok Kumar pandey said...

मुझे इस कविता को मंगलेश जी की नज़र से देखना बेहतर लगा...

कल्पना पंत said...

bahut din bad phir pada umda

SANDEEP PANWAR said...

बेहद ही बढिया समझाते हुए लिखा है।

जी.आर.दीक्षित said...

वहुत ही सुन्दर शब्दो के समावेश से वहुत ही सुन्दर रचना
वहुत कुछ सीखाती हुई।

Dinesh pareek said...

क्या खूब कहा आपने वहा वहा क्या शब्द दिए है आपकी उम्दा प्रस्तुती
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

Unknown said...

Looking to publish Online Books, in Ebook and paperback version, publish book with best
Publish Online Books|Ebook Publishing company in India

kirit doodhat said...

Brother, this is about creative process of the artist. Read from that point of view. It will be easier to understand.regards.

  एकात्म मानववाद का ‘डिस्टोपिया’ ------------ ( अक्टूबर २०१७ का यह लेख राजकिशोर सम्पादित 'रविवार डाइजेस्ट' के मेरे उस समय के नियमि...