कविता मनुष्य द्वारा आविष्कृत सब से संदिग्ध कला है . अपने बारे में सब से संशयग्रस्त भी।
संदेह की शुरुआत अफलातून से ही हो गयी थी .उनके लेखे कविता झूठ को सच की तरह पेश करने की कला थी.
संशय भवभूति जैसे महाकवि को भी था . क्या सचमुच कोई है जो उस ऊलजलूल चीज का कुछ मतलब निकाल सकता है , जिसे कविता कहते हैं .वे खुद को ढांढस बँधाते हुए-से लिखते हैं - दुनिया बहुत बड़ी है और समय असीम . कभी तो कोई समानधर्मा जन्म लेगा, जो मेरे लिखे का मतलब समझ पायेगा. अंग्रेज़ी आलोचना की पहली किताब सर फिलिप सिडनी की ' कविता के लिए माफीनामा ' ही थी . शेली तक को कविता के 'बचाव ' में निबंध लिखना पड़ा .
कविता क्या है , किस लिए है , ठीक ठीक कह पाना मुश्किल है . फिर भी वह है . कुछ और नहीं तो एक दिमागी खलल की तरह .
लेकिन सिर्फ कविता ही दिमागी खलल नहीं होती . एक अबूझ दिमागी खलल वह भी है , जिसे प्रेम कहते हैं . सारी की सारी प्रेम - कहानियाँ हैं . ठलुओं के लिए टाईमपास होने के सिवा भला इन चीजों का भला और कोई मसरफ है ?
वीरेन डंगवाल की कविता '' रामपुर बाग की प्रेम कहानी '' ऐसा ही एक दिमागी खलल है . यह हमारा नहीं , खुद इस कविता का बयान है .
यह कोई रूपक नहीं
न निजंधर न कूटकथा न मनोकाव्य
न व्यंग्य न परिहास
यह ये सब कुछ है थोड़ा बहुत
और सब से बढ़ कर थोड़ा दिमागी खलल शायद
जैसा कि हर प्रेम कहानी होती ही है
थोड़ा दिमागी खलल शायद . कविता इस खलल के बारे में भी कम संशय में नहीं है . अगर संशय नहीं है तो बस ये कि यह कोई रूपक , निजंधर , कूटकथा, व्यंग्य , परिहास नहीं है. अगर होती , तो उसके पास पाठक को देने के लिए एक निश्चित आशय य अनुभूति होती . भले ही छुपा होता , भले ही उसे खोजना और खोलना होता , लेकिन एक ऐसा आशय , जिस से सारे नहीं तो बहुत सारे सहमत हो सकें . इस अर्थ में वह निश्चित हो . लेकिन कविता की घोषणा है कि वह उसके पास ऐसा कोई आशय नहीं है . इसलिए ऐसे किसी आशय को उसमें ढूँढना बेमानी है . कुछ है तो सही . है तो यह सब कुछ . लेकिन निश्चित कुछ नहीं .क्योंकि या इसीलिये , यह एक खलल है .
यों पाठक को तनिक सावधान करते हुए कहानी आगे बढती है . वह कोइ बड़ी उम्मीद न बाँधे. अंत में हो सकता है , कुछ भी उस के हाथ न लगे . वह तैयार रहे .
कभी यहाँ एक नवाब का विशालकाय घना बाग था .
आम -अमरूद -जामुन और कटहल का
यह पचासेक साल पहले की बात है
गणतंत्र बन चुका था
लेकिन राजे नवाब जिमींदार वगैरह भी थे ही
थे ही. गणतंत्र बन जाने वे मिट नहीं गए . लेकिन अब वे वगैरह थे . इसलिए विशाल घने बागों को कटना था. इस तरह पचासेक साल पहले बागों का बाज़ार या रिहाइशी कालोनियों में बदलना शुरू हुआ . कविता को आज़ादी बाद के भारतीय इतिहास की बड़ी साफ़ पहचान है . वह लगभग सटीक तारीख बताती है . गणतंत्र की स्थापना की तारीख . यह एक काल- विभाजक विन्दु है.
इस विन्दु के आगे- पीछे दो कालखंड हैं. एक है , आज़ादी और गणतंत्र के पहले का . दूसरा बाद का .
लेकिन यह विभाजन हर एक के लिए एक ही जैसा नहीं है .
कुछ के लिए जो गणतंत्र और आज़ादी के साथ विकास का काल है , वही कुछ और लोगों के लिए विध्वंस और विस्थापन का . यह एक बात इस कविता में लगभग एक तथ्य , सूचना या खबर की तरह आयी है .
फिर पेड़ कटे
कोठियां बने लगीं
पहले थोड़ी भव्य
फिर क्रमशः आलीशानतर
कालोनी बनी जिस का नाम स्वतः पड़ा
या रखा गया रामपुर हाता और कालान्तर में रामपुर गार्डन
अलबत्ता बाग रहा नहीं
मगर बंदरों को
संकरी सडकों और हर मेल की
कारों -मोटरों -साइकिलों -स्कूटरों से गची पड़ी
कुछ सजावटी पेड़ों के अलावा वृक्षहीन
इस कालोनी से
अभी भी बहुत लगाव है
यह शायद उनकी जातीय स्मृति हो
विध्वंस और विस्थापन के विरुद्ध
उनका सामूहिक क्षोभ !
उनके झुण्ड यहाँ बराबर छापे मारते रहते हैं .
विकास के साथ विध्वंस और विस्थापन तो होना ही है . आलीशान कालोनियों के लिए घने बागों -जंगलों को कटना ही पड़ेगा. वहाँ रहनेवालों को विस्थापित होना पड़ेगा. यह तयशुदा बात है , मामूली जानकारी है . यह इतनी मामूली है कि अक्सर हम इसे याद रखना भी जरूरी नहीं समझते . हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में तेज विकास के लिए बांधों और भारी उद्योगों पर सब से अधिक जोर दिया गया. नेहरू जी ने बांधों को आज़ाद भारत के मंदिरों की तरह देखा . मंदिर के साथ धर्म की ताकत जुडी हुयी है . मंदिर में दी जाने वाली बलि पर कौन सवाल उठा सकता है ? इसलिए सरकार ने आज तक कोई आंकड़ा ही नहीं रखा कि 1950 से अब तक नियोजित विकास की हमारी योजनाओं में कितने लोगों की बलि हुई , कितने बर्बाद हुए .लेकिन भरोसेमंद शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि यह संख्या दो से चार करोड हो सकती है .( देखिये , 01 अप्रैल 2005 की इकोनोमिक एन पोलिटिकल वीकली में विश्वरंजन मोहंती का शोधपत्र.) यह संख्या अर्जेंटाइना की कुल आबादी के बराबर है . आबादी के लिहाज से दुनिया में केवल तीस देश अर्जेंटाइना से बड़े हैं . बाकी , तकरीबन ढाई सौ देश , चार करोड से कम आबादी वाले हैं .ये सब मामूली जानकारियाँ हैं , जिन्हें याद रखना जरूरी नहीं है .
विस्थापन का मतलब एक जगह से उठ कर दूसरी, और बेहतर जगह , पहुँच जाना नहीं होता . जनसमुदाय अपने परिवेश से गहराई से जुड़े होते हैं . सामूहिक विस्थापन का मतलब उनके लिए पूरी तरह उजड़ जाना और नष्ट हो जाना होता है. यह भयानक रूप से तकलीफदेह प्रक्रिया है .इस तकलीफ में निहित भीषण विडम्बना यह है कि विस्थापितों को विकास का कोई लाभ नहीं मिलता. यानी नियोजित विकास से होने वाला विस्थापन एक तरह से साधनहीन आबादियों को सुलभ प्राकृतिक संसाधनों को उनसे छीन कर साधनसंपन्न समुदायों के हाथ में सौंप देना है . (देखिये उपरोक्त शोधपत्र .)
लेकिन ये भी मामूली जानकारियाँ हैं . हम जानते हैं , लेकिन ध्यान नहीं देते . कविता भी इसे ऐसे ही आवेगहीन ढंग से दर्ज करती है .
गैरमामूली बात यह है कि कविता मनुष्यों के नहीं , बंदरों के विस्थापन के बारे में है .तेज विकास ने केवल मनुष्यों को नहीं , पशुपक्षियों को भी भारी पैमाने पर विस्थापित किया है . इसके चलते जीव- जंतुओं की बहुत सारी प्रजातियां नष्ट हो गयी हैं और बहुत-सी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं. इस से भी बुरी बात यह हुए है कि प्राणीजगत का मनुष्य के साथ सनातन हिंसा का रिश्ता बन गया है . जिनकी जमीनों और घरों पर हमने कब्ज़ा कर लिया है , वे हमारे घरों में घुस कर हम पर छापेमारी करने के लिए मजबूर हो गए हैं. जैसे कालोनियों में बन्दरों के सतत सामूहिक हमले .
बंदर तो हमारे पुरखे ही बताए जाते हैं . डार्विन साहब ने कुछ ऐसा ही बताया था. हमने सुख- सुविधा के लिए अपने पुरखों को भी विस्थापित कर दिया. बंदरों को पुरखे न मानिए तो भी इतना मानना चाहिए कि मनुष्य के प्राकृतिक पर्यावास में प्राणियों की सभी प्रजातियां शामिल हैं , हम ने हर को को घर से निकाल बाहर किया . खुद पूरे घर पर काबिज हो गये. भूल गए कि इन प्राणियोंके साथ खून पसीने का रिश्ता है . आखिर सीताजी को मुक्त करने के राम के अभियान में बंदर -भालुओं ने जो सहायता की थी , उस के बिना हम कहाँ होते? हमारी संस्कृति और इतिहास कहाँ होता? इतना पुराना , आत्मीय ,गहरा रिश्ता क्या एक झटके में टूट जाता है ?
माना कि वह सब कहानी है , मिथक है . लेकिन इन मिथकों के रचने वालों का प्राणीजगत से रिश्ता कुछ और ही था. मनुष्य समेत तमाम जीव -योनियाँ एक ही जीव- सृष्टि में शरीक थीं . सभी जीव एक ही दुनिया के साझे रहवासी थे . इस हद तक कि कोई भी जीव किसी दूसरे जीव के रूप में प्रकट हो सकता था . नाग मनुष्य का रूप धारण कर सकते थे.देवता और मनुष्य किसी भी पशु- पक्षी का रूप ले सकते थे .वे एक दूसरे की बोलीबानी समझते थे,
थे .वे एक दूसरे की बोलीबानी समझते थे, एक दूसरे की मदद करते थे . एक दूसरे की जिंदगियों में इस हद तक शामिल थे कि उन्हें अलग करना मुश्किल था . इन मिथकों से एक ऐसी विश्वदृष्टि प्रकट होती है, जिसमें विश्व मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों के बीच आज की तरह विभाजित नहीं है . अपनी दुनिया से से इन जीवों को बाहर निकाल कर मनुष्य ने अपने मिथकों को भी विस्थापित कर दिया है . यह एक विश्वदृष्टि और उस से जुडी हुयी जीवनदृष्टि का विस्थापन है. यह उस सम्मिलित दुनिया से मनुष्य का आत्मविस्थापन भी है .
गैरमामूली बात यह है कि हिंदी की एक समकालीन कविता अचानक मिथकों की उस खोयी हुयी दुनिया में प्रवेश करती हुयी प्रतीत होती है .
कोठियों की छतें उनके क्रीड़ांगन हैं
टेलीफोन -केबल के तार
आम की लचकदार टहनियों की तरह उन के झूले
वे घरों से डबलरोटियां, फल और कपड़े उठा ले जाते हैं
घुदकते हैं हाउसकोट काफ्तान पहनीं
अधेड गिरस्थिनों और उनकी युवा बहुओं को
जिन के पतिजन तो गए
अपनी दुकानों -दफ्तरों -कारखानों को
और औलादें व्यस्त
स्कूल-टीवी -मोबाइल में
उनमें कोई दिलचस्पी नहीं बंदरों को
उनकी माँओं में शायद है
अपने छोटे छोटे मोटे हाथों में
एक साबुत डबलरोटी थामे
तिमंजिले के छज्जे से कुछ यों घूर रहा है
वह बलिष्ठ बन्दर श्रीमती चड्ढा को
कि उनकी कनपटी गर्म और कान लाल हो आये हैं
रमण की उन कल्पनाओं के रहस्य
केवल ऊटपटांग रास्तों पर चलने वाले कवियों को पता हैं
या फिर उस मोटे बन्दर को
अपने टोले पर जिस का वर्चस्व असंदिग्ध है
लेकिन जिस का ह्रदय
इन दिनों एक मानुसी के लिए धड़कने लगा है
और श्रीमती चड्ढा ?
इधर मंगलवार को प्रसाद चढाते समय
पता नहीं क्यों उनकी आँखें पूरा पहाड हथेली पर उठाये हनुमान जी के
चरणों से ऊपर ही नहीं उठ पातीं
मिथकीयता का कविता में इस तरह लौटना उस विस्थापित जीवनदृष्टि का कविता में पुनर्प्रवेश है .
बलिष्ठ बन्दर और श्रीमती चड्ढा के अनुराग- प्रसंग में हनुमानजी की मौजूदगी सीतामुक्ति अभियान में हनुमानजी की भूमिका की याद न दिलाए , यह नामुमकिन है . श्रीमती चड्ढा सीता की याद भले न दिलाती हों , लेकिन उनकी स्थिति सीताजी से बहुत अलग नहीं है . किसी रावण ने उन का अपहरण नहीं किया , लेकिन गिरस्थी की अशोकवाटिका में वे सीता की तरह ही कैद हैं . बल्कि उनकी दुर्दशा सीताजी से बढ़ चढ कर है . बदनीयती से ही सही , सीताजी की खोजखबर लेने एक रावन वहाँ आता तो है . यहाँ तो भरेपूरे परिवार में कोई हालचाल पूछने वाला नहीं . न किसी को फुरसत है , न जरूरत . उसका जीवनसाथी , साथी क्या मनुष्य तक नहीं रह गया है . वह औद्योगिक -पूंजीवादी विकास की इस विराट मशीन का बिना रुके बिना थके चलनेवाला पुर्जा भर है . वह एक मशीनी ज़िंदगी जी रहा है . उसकी गिरस्थी और गिरस्थिन भी इसी मशीनी ज़िंदगी का एक हिस्सा है . बकौल कैफ़ी-
चंद रेखाओं में , सीमाओं में
ज़िंदगी कैद है सीता की तरह
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं
काश रावन ही कोई आ जाता !
कविता में गिरस्थिन शब्द इस विडम्बना को गहरा कर देता है . गृहस्थी कृषि -सभ्यता से जुड़ा हुआ शब्द है . गृहस्थ तब बने , जब खानाबदोशी छोड़ कर मनुष्य ने अपनी खेतियाँ और गृहस्थियां जमायीं . लेकिन औद्योगिक -पूंजीवादी सभ्यता ने इन गृहस्थियों को बेमानी बना दिया . मजदूरी के बाज़ार में भटकता , पूंजी की मशीन में चक्करघिन्नी की तरह घूमता इंसान या तो फिर से खानाबदोश हो गया , या घर में रहते हुए बेघर . इस बेघर के घर में कैद स्त्री के पास न राम हैं , न रावण . रामपुर बाग से केवल बंदर ही विस्थापित नहीं हुए . आदमी भी आत्मविस्थापित हैं . ऐसे में औरत थोपे हुए अकेलेपन के हवाले कर दी गई है. बाहरी विस्थापन के साथ साथ यह आंतरिक विस्थापन है . यह एक अदृश्य उत्पीडन है .
सीताजी का हनुमान से रिश्ता अलग तरह का है . राम और रावण का रिश्ता अधिकार या अनाधिकार से सम्बंधित है . वह बुनियादी रूप से एक पुरुष -सभ्यता में पुरुष और स्त्री का रिश्ता है . पुरुष स्त्री पर अधिकार चाहता है . विवाह उसे यह अधिकार प्रदान करता है . इस लिए सीता पर राम की अधिकार- भावना वैध हो जाती है , जबकि रावण की अवैध . लेकिन चाहते दोनों हैं एक स्त्री को अधिकृत करना .हनुमान सेवक हैं , दास हैं, पराधीन हैं. पराधीनता खुद अपनी आत्मवत्ता से विस्थापन है . भक्ति के नाम पर इसे हनुमान के अपने चुनाव के रूप में प्रचारित किया गया है . लेकिन है वह आत्म- विस्थापन ही. हनुमान और सीता के बीच वह अधिकार भावना नहीं है . इसलिए एक दूसरे की पीड़ा के लिए दोनों के मन में जैसी सच्ची सहानुभूति हो सकती है , वह राम -सीता के बीच भी दुर्लभ है . मुझे नहीं मालूम कि रामकथा के किसी संस्करण में हनुमान और सीता की पारस्परिक सहानुभूति की भावना के भीतर अनुराग की कल्पना की गयी है या नहीं .लेकिन रामकथा की सुलभ संरचना के भीतर वह असंभव कल्पना नहीं है . ऐसी कल्पना धार्मिक आस्था को गहरी चोट पहुंचा सकती है . मुमकिन है कि इसे निरस्त करने के लिए ही हनुमान को अखंड ब्रह्मचर्य का व्रत दे दिया गया हो. हालांकि कुछ ऐसी भी कथाएं हैं , जिन में उन्हें विवाहित दिखाया गया है . जो भी हो , यहाँ इस चर्चा का मकसद किसी भी रूप में ऐसी किसी कल्पना को हवा देना नहीं है . रेखांकित सिर्फ यह करना है कि हनुमान और सीता का रिश्ता दो पीडाओं की परस्पर सहानुभूति का रिश्ता है . कविता में बलिष्ठ बन्दर और श्रीमती चड्ढा के बीच के अनुराग का आधार भी यही है . दोनों विस्थापित हैं . एक बाहर से , एक भीतर से. दोनों अकेले हैं . क्या असंभव है कि वे जाने अनजाने एक दूसरे का भावनात्मक सहारा बनें ! नारी और नर के भावनात्मक जुडाव से यौन कामना के उदय की संभावना बहुत दूर नहीं रह जाती . ऐसा होना आकस्मिक नहीं है . संयोग मात्र नहीं है . बल्कि स्वाभाविक है .
बलिष्ठ बन्दर और श्रीमती चड्ढा के बीच यौन कामना की स्वाभाविकता ही असल में विस्थापन की भीषणतम परिणतियों को रेखांकित करती है . विस्थापन , चाहे वह प्राकृतिक परिवेश से हो , चाहे मानवीय परिवेश से , आत्म -विस्थापन को जन्म देता है . यानी अपनी अपनी स्वाधीनता , इयत्ता और जीवन की सार्थकता के अहसास से विस्थापन .कविता में इस आत्म -विस्थापन के शिकार बन्दर भी है , श्रीमती और उनके पति भी. लेकिन यह केवल भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक अहसास नहीं है . यह बंदर और मनुष्य का अपनी यौनिकता और जैविकता से विस्थापन भी है . यौन कामना किसी भी जीव के लिए उस की जैविकता या उसके जीवित होने मात्र का सब से अधिक जीवंत और अनिवार्य लक्षण है . लेकिन विस्थापन की परिस्थिति में यह सहज स्वाभाविक यौनकामना भी बची नहीं रह सकती . जहां जीवन की सहजता न हो , वहाँ यौन जीवन की सहजता कैसे हो सकती है. विस्थापन पर आधारित विकास ने मनुष्य की प्राकृतिक यौन कामना को भी विस्थापित कर दिया है . उसकी स्वाभाविक जीवन -कामना को ही विस्थापित कर दिया है . वह मनुष्य के रूप में अपने प्रजाति -गुणों से विस्थापित हुआ अपनी मानवीयता और स्वाधीनता को खो कर .अपनी यौन कामना को खो कर वह एक जीवित प्राणी
मात्र के रूप में अपनी जैविकता से भी विस्थापित हुआ . क्या मनुष्य होने की और जीवित होने इस से भी बड़ी कोई त्रासदी हो सकती है ? यह विराट त्रासदी हिंदी कविता में यहीं पहली बार दर्ज होती है .
रात का खटका
'खटाक ' से गिरता है
जैसे पिंजरे का द्वार !
अँधेरे में छत से आती है
एक प्रार्थना भरी करुण कूंक
नगरनिगम ने बुलवाया है कहीं बाहर से
बन्दर पकड़ने वाला पेशेवर दस्ता
जिसकी फीस है एक सौ सत्तर रुपये फी बन्दर
बेचैनी से करवट बदलतीं श्रीमती चड्ढा
चोर निगाहों से देखती हैं
नशे और नींद में धुत्त अपने पति को
जिसकी लार एक हज़ार रुपये कीमत के
नफीस तकिये को सतत भिगो रही है
रात का खटका उसी पिंजरे में गिरता है , जिस में ज़िंदगी कैद है सीता की तरह .कविता में इस 'खटाक' की चोट बहुत दूर तक जाती है . पिंजरा तो पिंजरा है . रात केवल उस का दरवाजा बंद करती है . खटाक की आवाज़ उस पिंजरे के वजूद की याद भर दिलाती है . पिंजरे में बैठे प्राणी के लिए तो रात और दिन बराबर है. दरवाजा खुला भी हो तो उसे उड़ जाने की छूट नहीं है . उड़ना पहले ही छूट चुका है , छीना जा चुका है . उड़ने की न संभावना रही न आदत . पिंजरे के जीवन की आदत पड़ जाए तो पिंजरे में होने की बात भी भूल जाती है . फिर भी रात आती है तो खटका गिरता है . पिंजरे के वजूद की दुखती हुयी याद हरी हो जाती है . रात का आना एक करुण घटना है , क्योंकि वह दिन के बीत जाने की याद दिलाती है .
रात वैसे तो कामना और अभिसार का समय है . लेकिन रात से यह जीवन -सुंदरता विस्थापित हो चुकी है . बची है तो नशे की नींद और रुपयों की तानाशाही .
और ऊपर एक वानर यूथ पति
नवाब रामपुर के बाग का मूल अधिवासी
पूर्ण चन्द्रमा जैसे टीवी डिश पर
अपना शीश टिकाये
अन्धकार में आंसू भरे नेत्रों से
टाक रहा है तारों को
ढूँढता उन्ही में
आम का वह भव्य दरख़्त
अपने कुनबे का छीन लिया गया आशियाना
जिसकी शाखों पर केलि करते थे
उसके पुरखे -पुरखिनें
अब तो हज़ारों रातें बीत चुकीं
ठन्डे सीमंट से पेट सटा कर सोते हुए
बीत चुकीं लू -लपट से तपतीं
हज़ारों प्यास-खुश दोपहरें
गर्म पानी से भरी पानी की टंकियों से जूझते
कुत्तों -पत्थरों और हुलकारती
हिंसक आवाजों से
कूदते भागते गए जाने कितने
भूखे विस्थापित दिन
लेकिन तांड पर मार कर बतौर चेतावनी टांगी गयीं
सह्जातियों की लाशें
भयाक्रांत करने के बावजूद
मंद नहीं कर पातीं
उस पुराने सपने का सम्मोहन
कविता आखिर कविता है . उसमें जरूर एक जगह आती है , जहां वह व्याख्या से परे चली जाती है . इन पंक्तियों की व्याख्या करने की कोई भी कोशिश इनमें निहित संवेदना और सचाई को सीमित करने से नहीं बच पाएगी . वे बिना किसी व्याख्या के ही सब से अच्छी तरह संप्रेषित होती हैं . इतना जरूर कहा जा सकता है कि यहाँ तक आते- आते कविता अपनी मिथकीयता में अंतर्निहित सामाजिक -राजनीतिक यथार्थ अपने पूरे आवेग के साथ बाहर आ जाता है . यहाँ यूथपति वानर और हमारे समय के किसी भी विस्थापित मनुष्य , किसान हो या आदिवासी , के बीच फर्क करना नामुमकिन हो जाता है . वही जानलेवा स्मृतियाँ , वही ठंढी क्रूरता , हिंसा और आतंक की वही रुतें और रूटीन. लेकिन यही कविता का या इतिहास का अंत नहीं है .
यूथपति एक दृढ वानर संकल्प लेता है
फिर से यहीं बनाएंगे
अपना वह बाग़
फिर से प्यार करेंगे
पेड़ों की घनी -भारी दालों पर
सब विजातियों को भगा देंगे
बस एक उसी मानुषी कोछोड़ कर
जिसकी वसंत में आम के नए पत्तों जैसे हरे परिधान में देखी करुणामयी छवि
ह्रदय से उतरती नहीं
जो गोया उस पुराने भव्य आम्रवृक्ष
का ही कमनीय प्रतिरूप है
कामना शेष है तो सपना बाकी है . सपना जो एक छिने हुए घर , विस्थापित आत्म , विनष्ट पर्यावास , कुचली हुयी जैविकता की स्मृति को जीवित रखता है , और नूतन निर्माण के संघर्ष के संकल्प का सृजन करता है .लेकिन कविता बिना इस उपसंहार के खत्म नहीं होती -
न कोई रूपक , न निजंधर
न व्यंग्य न समाजेतिहास
थोड़ा दिमागी खलल , बस , शायद
जिस समाज और समय में जीवन विस्थापित है , कविता भी विस्थापित है .जैसे दिमाग से खलल विस्थापित है . कविता उस दिमागी खलल को फिर से रायज़ करती है . यह सर्वग्रासी विस्थापन के विरुद्ध कविता का एकमात्र संभव , लेकिन सब से शक्तिशाली, हस्तक्षेप है . कविता का यह पुनर्वास जीवन का पुनर्वास भी है . 'रामपुर बाग़ की प्रेमकहानी ' हिंदी कविता की गैरमामूली उपलब्धि है .
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