Sunday, August 4, 2024

'इसी दुनिया में' दोबारा

यह लेख वीरेन दा के पहले संग्रह के पुनर्प्रकाशन के मौके पर लिखा था। 'इसी दुनिया में' दोबारा ----------- “शहतूत के पेड़ में उग आई हैं पीताभ- हरित पत्तियाँ वहां अब भी बदला करता होगा मौसम और उनींदे जंगल प्रतीक्षा किया करते होंगे करुणा और वात्सल्य और कौतूहल से विस्फारित आँखें लिए उमगती है मुझ में कविता भड़भड़ाता है किवाड़ भीतर से वह लडका खोल न साले , दरवाज़ा खोल” यह एक लम्बी और खोई हुई कविता का शुरुआती हिस्सा है . इस हिस्से को वीरेन डंगवाल के पहले कविता संकलन ‘इसी दुनिया में ‘ के पुनर्प्रकाशित संस्करण में शामिल किया गया है . कवि के विशेष अनुरोध पर . एक और पूर्वप्रकाशित कविता – ‘यह कविता नहीं है समझे’ – भी शामिल की गई है , जो पहले संस्करण में नहीं थी. पुनर्प्रकाशन की तैयारियां चल ही रही थीं कि वीरेन दा अंतिम यात्रा पर गए . वीरेन डंगवाल का जाना हिंदी कविता समाज के लिए मुक्तिबोध की मृत्य जैसी गहरा आघात पैदा करने वाली घटना बन गई है . उन्हें याद किया जा रहा है , लेख लिखे जा रहे हैं , किताबें छप रही हैं . प्रेमशंकर वारा सम्पादित ‘रहूँगा भीतर नमी की तरह’ संस्मरणों और आलोचनात्मक लेखों का वृहद संकलन है. पंकज चतुर्वेदी के लिखी पुस्तिका ' यही तुम थे ' भी छप कर आ चुकी है . यह कवि और उसकी कविता के साथ नई पीढी के एक कवि-आलोचक कीअन्तरंग यात्रा है . अपनी कविताओं के संकलन और प्रकाशन के प्रति वीरेनदा की लापरवाही जगत-विख्यात है . इस लापवाही का उल्लेख नीलाभ ने पहले संग्रह की भूमिका में भी किया है . प्रकाशक नीलाभ को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी, तब कहीं जाकर तकरीबन पैंतालीस की उम्र में यह संग्रह छप सका था . सन १९९१ में संग्रह के छपने के पहले ही वीरेन युवा पीढी के चहेते कवि बन चुके थे . ऐसे वीरेन ने पुनर्प्रकाशन के समय इन दो कविताओं के लिए विशेष अनुरोध किया, यह बात ध्यान देने लायक है . इन कविताओं ने इस संकलन को अधिक तीखेपन के साथ समकालीन बना दिया है . यों यह पूरा संग्रह इसी साल प्रकाशित किसी ताज़ा संग्रह की तरह पढ़ा जा सकता है , जबकि इसमें छपी सबसे पुरानी कविता सन १९७४ की थी. पुनर्प्रकाशन में शामिल दूसरी नई कविता और भी पुरानी है . सन १९७१ की . नवीकृत संग्रह में कविताओं की प्रथम प्रकाशन तिथियाँ भी दे दी गईं हैं . इससे अध्येताओं के लिए संग्रह का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है . जिस दौर में इस नवीकृत संग्रह के प्रकाशन की तैयारी चल रही थी , देश भर के लेखक अपने सम्मान और पुरस्कार लौटा रहे थे . प्रतिरोध का यह अभियान इतना प्रभावशाली साबित हुआ कि सरकार थरथरा उठी . उसने इसे ‘ कारखाने में तैयार विद्रोह ‘ कह कर झुठलाने की कोशिश की . वित्त मंत्री अरुण जेटली के शब्दों में – मैन्यूफैक्चर्ड प्रोटेस्ट ! लेखकों का कहना यह था कि सरकार देश भर में बन रहे साम्प्रदायिक फासीवादी तनाव के वातावरण को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही. निर्दोष नागरिकों और विवेकवादी लेखकों की हत्याओं का का दौर जारी है . अभिव्यक्ति की आज़ादी और भिन्नताओं के प्रति लोकतांत्रिक सहिष्णुता गहरे संकट में है . स्वतंत्र लेखक ख़ुद को नजरबंद महसूस कर रहा है . क्या ऊपर उद्धृत अंश को संग्रह में शामिल कर वीरेन डंगवाल ने इसी माहौल पर काव्यात्मक टिप्पणी की है ? क्या यह अपनी कल्पना के वसंत से बहिष्कृत एक विद्रोही कवि का गुस्सा है , जो कमरे में क़ैद किवाड़ पीटते लड़के की वाणी से फूट रहा है - खोल न साले , दरवाज़ा खोल? यह आक्रोश इस संग्रह को एक नई धार देता है . संग्रह में पहली बार शामिल दूसरी कविता में भी इस उबलते हुए आक्रोश को महसूस किया जा सकता है . शीर्षक है –‘यह कविता नहीं है समझे’ . इस संग्रह की बाकी कविताओं में भी आक्रोश की कमी नहीं है , लेकिन उसे तनिक छुपा कर रखा गया है . उसे मुक्तिबोधीय ‘जनमनकरुणा’ में ढाल कर . लहज़े और तेवर में तल्खी को कम से कम रखते हुए . जैसे ‘रामसिंह’ कविता में . भीतर विस्फोटक आक्रोश है , लेकिन ऊपर करुणा की तरलता महसूस होती है . ’नदी’ जैसी कविताओं में विद्रोह पैदा करने वाली स्थितियों को नाटकीय बनाया गया है . दृश्य और दर्शक या पाठक के बीच हल्का से अंतराल पैदा कर दिया गया है . अंतराल से यथार्थ को सहना आसान हो जाता है . लेकिन उपरोक्त अंश और इस दूसरी कविता में अंतराल को लगभग मिटा दिया गया है . ‘यह कविता नहीं है समझे’ शीर्षक स्वयं इस ओर इशारा करता है कि यहाँ यथार्थ को काव्यात्मक या कलात्मक बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई है .यहाँ तो ‘अपने आप को अकस्मात निडर पाने का असहय उल्लास वज्र की तरह आप पर गिरता हुआ’ मिलता है . कविता संग्रह की बाकी कविताओं से अधिक पुरानी है . सन १९७१ की . हो सकता है उपरोक्त उद्धृत अंश भी पुराना हो . वीरेन डंगवाल नक्सलबाड़ी विद्रोह से प्रेरित हिंदी कवियों में शुमार किए जाते हैं . आलोकधन्वा , कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह , वेणुगोपाल , कुमार विमल , मंगलेश डबराल , गोरख पाण्डेय , विद्रोही इसी परम्परा से जुड़े कवि है . इन सभी कवियों के आरम्भिक दौर का विस्फोटक आक्रोश आगे चलकर व्यंग्य , विडम्बना और विसंगति का रूप लेने लगता है . आठवें दशक की ‘समकालीन कविता’ के उत्थान के साथ पुराने ढंग का अकविता-नुमा आक्रोश और विद्रोह चलन से बाहर होता जाता है . शायद यही कारण था कि इन कविताओं को पहले संग्रह में जगह नहीं मिली . पुनर्प्रकाशित संग्रह में इनके शामिल होने से अनुमान लगाना असंगत न होगा कि कवि की दृष्टि में नये दौर में ये कविताएँ फिर से प्रासंगिक हो उठी हैं . सन १९१४ में भारी बहुमत से एनडीए सरकार के सत्ता पर काबिज होने के बाद भारतीय राजनीति और समाज के फासीकरण की दशकों से चल रही प्रक्रिया एक मुक़ाम पर पहुँची . इक्यानबे और दो हज़ार पन्द्रह के संस्करणों के बीच का डेढ़ दशक इसी प्रक्रिया के परवान चढ़ने का समय है . इसकी शुरुआत सातवें दशक के अखीर और आठवें दशक के उन शुरुआती वर्षों में नक्सलवादी आन्दोलन के बर्बर दमन के साथ हो गई थी , जिसका एक बड़ा पड़ाव १९७५ का आपातकाल था . पिछेल कुछ बरसों का परिदृश्य अनेक लोगों को आठवें दशक के वातावरण की याद दिलाता रहा है . नए दौर को प्रतिरोधी लेखकों ने बार बार ‘अघोषित आपातकाल’ की संज्ञा दी है . उस दौर की दो असंकलित कविताओं को संग्रह में शामिल करना दो समयों के बीच इस समांतरता को रेखांकित करने का यत्न भी है . ‘इसी दुनिया में’ को दुबारा पढना इस दौर में एक ताज़ा कविता संग्रह पढने जैसा अनुभव दे सकता है . उस दौर में इस संग्रह को जीवन के उल्लास के लिए , तुच्छ समझी जाने वाली चीजों के गौरव गान के लिए , मानवीय रिश्तों के अदेखे पहलुओं को सामने लाने के लिए रेखांकित किया गया .और ठीक ही किया गया . अदृश्य अन्याय को उद्घाटित करने और न्याय की अनसुनी पुकार को प्रतिध्वनित करने में कवि की सफलता को भी रेखांकित किया गया . लेकिन इस बात पर उतना ध्यान नहीं दिया गया कि वीरेन व्यवस्था में अंतर्निहित संरचित हिंसा की बारीक़ पड़ताल करने वाले कवि हैं . इस पड़ताल के गहरे राजनीतिक आशय हैं. व्यवस्था हमेशा हिंसा को नियंत्रित करने के नाम पर सरकारी दमन को न्यायोचित ठहराती है . लेकिन उस हिंसा को कभी चर्चा का विषय नहीं बनने देती , जिसका सृजन , पालन –पोषण और संरक्षण वह ख़ुद करती है . इसका कुछ हिसा तो लोगों को दिखाई पड़ता है , लेकिन बहुत सारा हिस्सा अदृश्य रहता है .वे कौन लोग हैं , जो इस हिंसा के शिकार होते हैं ? किस किस रूप में होते हैं ?उनके पास इस से बचने या इसका प्रतिकार करने के कौन से रास्ते होते हैं ? क्या उनके पास इतने भी साधन होते हैं कि वे इसके विविध रूपों की पहचान कर सकें ?क्या वे उस समूची हिंसा को समझते हैं , जो अनेक तरह से और अनेक रूपों में उनके साथ घटित हो रही होती है ? क्या वे कहीं इसकी शिकायत कर सकते हैं ? क्या कोई ऐसी जगह हैं , जहां न्याय मिले या नहीं , कम से कम उन्हें सुन लिया जाए ? वीरेन डंगवाल की कविता अपने तरीके से ये सारे जरूरी सवाल उठाती है . वह सत्ता के विविध संरचित रूपों के विखंडन की कविता है . ऐसा वह अपनी तीक्ष्ण वर्ग-दृष्टि और सघन मानवीय सम्वेदना के सहारे करती है . उदाहरण के लिए पर एक छोटी-सी कविता ‘इस बार वसंत’ देखी जा सकती है . ‘यों बाहर से कतई साबुत और दुरुस्त खड़ा है पेड़ लेकिन भीतर कुछ है जो दिमाग की नसों की तरह फटा है’ .यह व्यवस्था का आन्तरिक विभाजन है , जो वर्ग , लिंग , जाति और धर्म के अनेक आयाम लिए हुए हो सकता है , लेकिन हर जगह वह कुलीन और जन के बीच की विलोमता के रूप में प्रकट होता है . ऊपर की कविता में आया खूनी वसंत संग्रह की पहली कविता ‘कैसी ज़िन्दगी जिए ‘ में भी मौजूद है . इस ‘उत्तम वसंत’ में हवा कुलीन केशों की गंध से भरी हुई है , लेकिन खरखराते पत्तों में कोपलों की ओट में पिछले दंगों में क़त्ल कर डाले गए लोग इस पशुता का अर्थ पूछते हैं . इस प्रश्न के उत्तर में कविता कहती है – ‘कुछ भी नहीं किया गया थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा! क्या यह ठीक हमारे समय का बयान नहीं है ? क्या यह इक्कीसवीं सदी के भारत का चित्र नहीं है ? अगर समय जितना बदलता है , उतना ही एक जैसा भी बना रहता है तो उसमें कविता क्या करे! ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’, ‘रामसिंह’, ‘भाप इंजन ‘ , ‘सड़क के लिए सात कविताएँ’, ‘पी.टी. उषा’ , ‘तोप’ ‘इंद्र’, ‘नदी’ , ‘समोसे’ इस संग्रह की वे कविताएँ हैं , जो अब कालजयी कही जा सकती हैं . इन कविताओं से अपरिचित कोई व्यक्ति हिंदी कविता का समकालीन पाठक नहीं कहा जा सकता . कालजयी कविता वह होती है जो हर नए दौर में अपने आशय में कुछ नया जोड़ सकती है . ऐसा वही कविता कर सकती है , जिसमें मानव और मानव समाज के अंतर्द्वंद्वों और अंतर्संघर्षों की गहरी पहचान हो . ये मूल अन्तर्द्वन्द्व जब नए आशय और नए रूप ग्रहण करते हैं , तब कविता में भी नयी अर्थवत्ता आ जाती है . ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ कविता की पंक्तियों को देखिए . संस्कृति हमेशा सत्ता के हाथों एक हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती रही है . संस्कृति का एक ख़ास चोला तैयार करना और उन सब लोंगों को संस्कृतिहीन और समाजविरोधी घोषित कर देना , जिनकी उस चोले तक पहुँच न हो या जिन्हें वो रास न आता हो . यह जन की आकांक्षाओं के दमन का आजमाया हुआ ‘कुलीन’ तरीका है . अब इन पंक्तियों को पढिए और देखिए कि वे कितने ताकतवर ढंग से एक नयी प्रासंगिकता पा गई हैं. शब्द संस्कृति ही है , भले चौरासी (में जब कविता लिखी गई थी ) इसका अर्थ कुछ और था , आज कुछ और है. ‘अन्धकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव जीवन जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती इनकी असल समझना साथी अपनी समझ बदलना साथी’ ‘रामसिंह’ कविता जब पहली बार छपी थी, तब एक बड़े बौद्धिक भूकम्प के रूप में इसकी नोटिस ली गई थी. फौज़ का सिपाही साहित्य में या तो बलिदानी योद्धा के रूप में या उत्पीड़न के यंत्र के रूप में पेश किया जाता है . इस कविता ने पहली बार दिखाया कि सिपाही ख़ुद व्यवस्था की संरचनागत हिंसा का शिकार है . ताकतवर हितों की हिफाजत के लिए व्यवस्था एक गरीब इंसान को किस तरह हत्या करने की मशीन में बदल देती है , इस समूची प्रक्रिया का सूक्ष्म लेखाजोखा कविता प्रस्तुत करती है . कविता में फ़ौजी रामसिंह एक विक्टिम की तरह आता है .वह शासन की क्रूरता और उससे उपजी त्रासदी को प्रतीकित करता है . इसी कविता को आज के दौर में पढ़िए तो केवल आपातकाल नहीं . कश्मीर , पूर्वोत्तर , छत्तीसगढ़ भी याद आएँगे . अफ्स्पा भी याद आएगा . गुजरात और उत्तर प्रदेश के फर्जी एंकाउंटर भी याद आएँगे . तब यह कविता सिर्फ़ फ़ौजी रामसिंह की कविता के रूप में नहीं पढी जाएगी . यह लोकतंत्र के सैन्यतंत्र में बदल जाने की कविता के रूप में भी पढ़ी जाएगी. ‘हवा’ और ‘नदी’ पर रोमानी कविताएँ अब तक लिखी जाती हैं . वीरेन शायद हिंदी के अनूठे कवि हैं , जिन्होंने पहचाना था कि वर्गविभाजित समाज में प्रकृति का अनुभव भी सबके लिए एक नहीं होता . नदी के कछार में रहते और हर बार बाढ़ से तबाह होते लोग नदी को उस तरह नहीं महसूस करते , जैसे चांदनी रात में नौका विहार करते लोग करते होंगे . वीरेन की कविता में नदी यों आती है – भर्राती जैसे जीप पर बैठी हुई वह निकलती है अपनी तूफानी मुहिम पर अंधेरी रात में पुलिस दारोगा की तरह गरजती बिफरती गंदी गालियाँ बकती हुई आगे पीछे दौडती है कमजोर किनारे की उधड़ी पिछाडी पर धरती है दनादन लात ‘बता साले बता नहीं तो ..’ { पुस्तक में लात की जगह लाल छप गया है . प्रूफ़ की ऐसी खटकने वाली ग़लतियाँ और भी हैं , लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं .} ऐसा नहीं हो सकता कि ‘नदी’ पढ़ते हुए आज आपको आपरेशन ग्रीन हंट की याद न आए. युवतर पीढी को सम्बोधित यह कविता पढिए –‘वह आ रहा है’. एक अंश यों है – ‘अभी उसे पता नहीं कि क्यों वयस्कों की एक दुनिया के प्रचलित शब्द –आज़ादी- का उच्चारण वयस्कों की दूसरी दुनिया में वर्जित है’ क्या इस कविता पढ़ते हुए दो हज़ार सोलह की पहली छमाही में देश में ‘आज़ादी’ के नारों को लेकर मचे घमासान का मर्म सहसा उजागर नहीं हो जाता ? अगर आप ‘इंद्र’ कविता पढ़ें और उसी के साथ ‘तोप’ कविता भी पढ़ लें तो आज के सत्ताधारी चेहरों का चरित्र उनकी ऐतिहासिक नियति भी आपके सामने क़िताब के पन्नों की तरह खुल जाएगी . वीरेन ने हिंदी कविता की एक ख़ास भाषा और एक ख़ास शैली ईज़ाद की है . इसमें एक बालसुलभ मासूमियत है , जो भाषा के हर छद्म को असम्भव कर देती है . थोड़ा बचपना भी है , जिसके सहारे वीरेन भाषा के साथ कुछ अद्भुत खिलवाड़ भी कर लेते हैं. जैसे इस कविता में – भाप इंजन --------------------- बहुत दिनों में दीखे भाई कहाँ गए थे पेराम्बूर शनैःशनैः होती जाती है अब जीवन से दूर आशिक़ जैसी विकट उंसासें वह सीटी भरपूर (इसी दुनिया में , वीरेन डंगवाल , नवारुण प्रकाशन , गाज़ियाबाद. ( दूसरा नवीकृत संस्करण -२०१५, अशोक पांडे की भूमिका के साथ ). पृष्ठ-१०८, मूल्य (जन संस्करण -100 रुपये ) प्रकाशक का पता – सी -303, जनसत्ता अपार्टमेन्ट , सेक्टर -9, वसुंधरा , गाज़ियाबाद . मोबाइल -9811577426, ईमेल - navarun.publication@gmail.com)

Tuesday, January 16, 2024

भारतीय फ़ासीवाद और प्रतिरोध की संभावना

फासीवाद का सबसे बड़ा लक्षण

क्या भारत की वर्तमान परिस्थिति को फासीवाद के रूप में चिन्हित किया जा सकता है? अथवा क्या इसे केवल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवाद की राजनीति के रूप में देखा जाना चाहिए? यह सवाल महत्वपूर्ण इसलिए है कि जवाब पर इस परिस्थिति से मुकाबला करने की रणनीति निर्भर करती है।

अगर यह फासीवाद है तो इसके उद्भव और वर्तमान शक्ति-सम्पन्नता के आधारभूत कारण क्या हैं? क्या यह केवल वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद के संकट की अभिव्यक्ति है, जैसा कि प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्री समझते हैं?

क्या भारतीय फ़ासीवाद जैसी किसी अवधारणा के बारे में सोचा जा सकता है? या यह सिर्फ एक वैश्विक प्रवृत्ति है?

अगर यह फ़ासीवाद नहीं है तो क्या यह पश्चिम और पश्चिमपरस्त राजनेताओं और बौद्धिकों द्वारा अन्यायपूर्ण ढंग से दबाए गए हिन्दू राष्ट्रवाद का उभार है, जैसा कि  के भट्टाचार्जी जैसे सावरकरी टिप्पणीकार दावा करते हैं?

क्या यह संघ के भीतर बढ़ते हुए लोकतंत्रीकरण के चलते उसकी पहल पर  वंचित- उत्पीड़ित जन समुदाय द्वारा किया गया सत्ता परिवर्तन है, जिसने कुलीन वर्गों की कीमत पर  अकुलीनों को शक्तिशाली बनाया है? जैसा कि अभय कुमार दुबे और बद्री नारायण जैसे सामाजिक लेखक संकेत करते हैं?

इतिहासकार रामचन्द्र गुहा सरीखे  कुछ बुद्धिजीवियों के मन में यह संशय रहा आया है कि भारत के मौजूदा निज़ाम और उसके द्वारा पैदा किये गए  सामाजिक राजनीतिक संकट को फासीवाद कहा जा सकता है या नहीं। वामपंथी दायरों में भी एक मत यह है कि भारत की वर्तमान सत्ता-संस्कृति  को अधिनायकवादी या सर्वसत्तावादी तो कहा जा सकता है, लेकिन फासीवादी नहीं. इस मत के अनुसार, भारत में अभी भी लोकतांत्रिक संस्थाएं काम कर रही हैं, वे  पूरी तरह ख़त्म नहीं हो गई हैं. नागरिक समाज के सामने अभी भी बेहतर को चुनने का विकल्प मौजूद है, विपक्ष की चुनौती ख़ुद को उसके सामने भरोसेमंद तरीके से  बेहतर विकल्प के रूप में पेश करने भर की है.

दूसरा मत इस बात पर जोर देता है कि फासीवाद भारत में भले ही अभी भी अपने निकृष्टतम रूप में प्रगट न हुआ हो, लेकिन लगातार आगे बढ़ रहा है और देश की लोकतांत्रिक शक्तियों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में मौजूद है. वामपंथी दायरों के भीतर से ही उभरने वाला एक मत यह है कि भारत में सर्वसत्तावाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष चलाने के लिए यह जरूरी है कि फासीवाद और ‘सर्वहारा की तानाशाही’ की कम्युनिस्ट अवधारणा की सामान रूप से और एक साथ निंदा की जाए. यह मत इन दोनों अवाधारणाओं को को सर्वसत्तावाद के रूप में चिह्नित करता है और इसके विरुद्ध ‘उदारवादी लोकतंत्र’ को बेहतर विकल्प के रूप में पेश करता है. हालांकि अपने अंतिम लक्ष्य के रूप में यह ‘समाजवादी लोकतन्त्र’    

इन सभी मतों को हमने भारत की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों, माकपा और भाकपा माले, की अंदरूनी बहसों के रूप में उभरते हुए देखा है.

बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा वर्तमान संकट को आज भी केवल साम्प्रदायिकता की समस्या के रूप में देखता  है. यह तबका इस बात पर जोर देता है कि इस समस्या को हल करने के लिए हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकताओं के विरुद्ध एक साथ और समान रूप से संघर्ष चलाने की जरूरत है. कहना न होगा कि जिस समय हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा और हिंदूकृत राज्य मशीनरी अल्पसंख्यक नागरिक आबादी के रूप में मुस्लिम समुदाय के गैरीकरण, हाशियाकरण और न्यूनीकरण के अभियान लगातार चला रही हो, उस समय ‘हर तरह की साम्प्रदायिकता’ की निंदा का यह विमर्श हिंदूकृत राजसत्ता को वैधता देने के सिवा कुछ और नहीं करता.

इधर सर्वोच्च न्यायालय ने एक के बाद एक कई फैसलों में नागरिक आज़ादियों के खिलाफ राजकीय दमन के अधिकार को मान्यता देकर ऐसे भोले संदेहों को निर्मूल करने की कोशिश की है। ये आज़ादियाँ कठिन संघर्ष और अनगिनत बलिदानों से हासिल की गई थीं।

हमने अयोध्या मामले में देखा कि सुप्रीम कोर्ट ने कथित आस्था के आधार पर बाबरी मस्जिद शहीद  करने वाले हिंदूवादी फ़ासीवादी नेताओं को दोषी ठहराने से इनकार कर दिया। यह मानते हुए भी कि मस्जिद का विध्वंस घोर आपराधिक कृत्य था और वहाँ किसी राम मन्दिर के होने के कोई सबूत नहीं हैं, कोर्ट ने उन्हीं अपराधियों को उनकी कब्ज़ाई जमीन मन्दिर बनाने के लिए दे दी। दूसरी तरफ इसी कोर्ट ने धारा 370 और नागरिकता कानूनों के मुद्दों पर जनता की व्यापक अपील के बावज़ूद सरकार की असंवैधानिक कार्रवाइयों पर रोक नहीं लगाई।

ज़किया जाफ़री मामले में जनसंहार पीड़िता की जाँच कराने की माँग को ठुकराते हुए कोर्ट ने उलटे उनकी सहयोगी याचिकाकार  तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ़ सरकार को पुलिस कार्रवाई करने का अधिकार बिन माँगे दे दिया। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जनसंहार की जाँच की याचिका देने वाले हिमांशु कुमार पर भी सुप्रीम कोर्ट ने भारी जुर्माना लगाया है। जुर्माना न देने पर गिरफ्तारी का आदेश है। गांधीवादी हिमांशु कुमार ने इस अन्यायपूर्ण जुर्माने को अदा करने से इनकार कर दिया है।

यह सच है कि फ़ेक न्यूज़ के खिलाफ अभियान चलाने वाले पत्रकार मुहम्मद जुबैर की अवैध गिरफ्तारी जैसे एकाध मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुरूप फैसला दिया है। लेकिन ऐसे मामले अपवाद होते जा रहे हैं और सरकारपरस्ती के तहत लिए जा रहे फैसले आम।

भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में भिड़े और एकबोटे जैसे असली दंगाई खुलेआम घूम रहे हैं, जबकि दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले आनंद तेलतुंबड़े  और गौतम नौलखा जैसे लब्धप्रतिष्ठ लेखक- कर्मकर्ता बनावटी सबूतों के आधार पर यूएपीए के तहत सालों से जेल में बंद हैं।

इधर सुप्रीम कोर्ट ने विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी लठैत की तरह काम कर रहे प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को बिना आरोप बताए किसी के भी घर छापा मारने और उसे गिरफ्तार करने के अधिकार की पुष्टि कर दी है। विपक्ष का आरोप है कि ईडी धन शोधन के मामलों की जाँच करने की जगह अपने असीमित दमनकारी अधिकारों का उपयोग विपक्षी सरकारों को ध्वस्त करने और असहमत आवाजों को चुप करने के लिए कर रही है।

पिछले कुछ सालों में पनामा पेपर से लेकर पंडोरा पेपर्स  और अदानी मामले तक भ्रष्टाचार से हासिल की गई अकल्पनीय धनराशि को विदेशों में खपाने, बैंकों से भारी मात्रा में अवैध कर्ज लेकर विदेश भाग जाने के मामले एक के बाद एक सामने आते गए हैं। इन घोटालों में सत्ता संपन्न वर्गों से जुड़े हजारों बड़े बड़े नाम सामने आए हैं। स्विस बैंकों में हिंदुस्तानियों के द्वारा जमा किया गया काला धन 14 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है- 30 हजार 500 करोड़। इन सभी मामलों में अपराधियों के खिलाफ कोई गंभीर कदम नहीं उठाए गए हैं। स्पष्ट है कि सरकार भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की जगह उसे प्रोत्साहित करने में लगी हुई है।

इसका सबसे बड़ा सबूत गोपनीय इलेक्टरल बॉन्ड्स के जरिए बड़े कारपोरेट घरानों द्वारा दिए जा रहे  गुप्त चंदे की व्यवस्था को बनाए रखना है। सभी जानते हैं कि इस गुप्त चंदे  का भारतीय चुनावों में कितना बड़ा दख़ल है।

फ़ासीवाद का सबसे बड़ा लक्षण कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका के एक गठबंधन के रूप में काम करने की प्रवृत्ति है। लोकतंत्र में इन तीनों के अलगाव और इनकी स्वायत्तता पर इसलिए जोर दिया जाता है कि कोई एक समूह राजसत्ता का दुरुपयोग न कर सके। तीनों निकाय एक दूसरे पर नजर रखने और एक दूसरे को नियंत्रित करने का कार्य करें। इस व्यवस्था के बिना एक व्यक्ति और एक गुट की निरंकुश तानाशाही से बचना नामुमकिन है।

अयोध्या-विवाद से लेकर गुलबर्ग सोसाइटी जनसंहार  और छतीसगढ़ जनसंहार तक के मामलों में हमने सुप्रीम कोर्ट को संविधान-प्रदत्त नागरिक अधिकारों और न्याय की अवधारणा के विरूद्ध राज्य के बहुमतवादी फ़ैसलों के पक्ष में खड़े होते देखा है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने धन-शोधन निवारण अधिनियम के अन्यायपूर्ण प्रावधानों के खिलाफ दी गई याचिका पर राज्य के पक्ष में फैसला दिया है. सीएए और  धारा 370 के निर्मूलीकरण जैसे मामलों में चुप्पी साधकर भी उसने नागरिक अधिकारों के विरुद्ध राजकीय निरंकुशता का समर्थन किया है.

नाज़ी जर्मनी में ग्लाइसेशतुंग या समेकन के नाजी कानूनों के जरिए इसी तरह राज्य के सभी निकायों को सकेन्द्रित और एकात्म बनाया था.  हिटलर की तरह मुसोलिनी ने भी ‘राष्ट्र-राज्य सर्वोपरि’  के सिद्धांत के तहत न्यायपालिका को पालतू बनाने का काम किया था. भारत में भी हमने गृह मंत्री अमित शाह को सबरीमाला  मामले में  सुप्रीम कोर्ट को चेतावनी देते देखा है.  कहना न होगा कि भारत में भी संवैधानिक संस्थाओं और न्यापालिका के बड़े हिस्से पर  कार्यपालिका के साथ मिलकर समेकित रूप से कलाम करने के आरोप तेज हुए हैं.


भारत में फासीवाद और वर्णाश्रम 

 भारत में फ़ासीवाद के सभी जाने पहचाने लक्षण प्रबल रूप से दिखाई दे रहे हैं। एक व्यक्ति की तानाशाही और व्यक्ति पूजा का व्यापक प्रचार। मुख्य धार्मिक अल्पसंख्यक समूह के विरुद्ध नफरत, हिंसा और अपमान का अटूट सिलसिला। अल्पसंख्यकों के खिलाफ अधिकतम हिंसा के पक्ष में जनता के व्यापक हिस्सों का जुनून। विपक्ष की बढ़ती हुई असहायता। स्वतंत्र आवाजों का क्रूर दमन। दमन के कानूनी और ग़ैरकानूनी रूपों का विस्तार। मजदूरों और किसानों के अधिकारों में जबरदस्त कटौती। आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के सम्मान के संघर्षों का पीछे ढकेला जाना। शिक्षा पर भगवा नियंत्रण। छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का विलोपन। फ़ासीवादी प्रचार के लिए साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, सिनेमा और दीगर कला-विधाओं के नियंत्रण और विरूपण को राज्य की ओर से दिया जा रहा संरक्षण और प्रोत्साहन।

 देशकाल के अनुसार फासीवाद अनेक रूप ग्रहण करता रहा है। मुसोलिनी का फासीवाद हिटलर का नाज़ीवाद, ट्रंप का ट्रंपवाद या पुतिन का पुतिनवाद बिल्कुल एक ही जैसी परिघटनाएं नहीं हैं, लेकिन इनमें कुछ बुनियादी और आत्यंतिक समानताएं मौज़ूद हैं। इन्हीं समानताओं के आधार पर फासीवाद की पहचान की जा सकती है।

फासीवाद पहचान-मूलक भावनात्मक राष्ट्रवाद का एक ऐसा संस्करण है, जो बाहरी और भीतरी ‘शत्रुओं’ की शिनाख़्त पर जोर देता है और उनके ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा से भरे हुए जन- उन्मादी अभियानों से ऊर्जा प्राप्त करता है। यह नागरिकों में राष्ट्र के प्रति शर्त रहित समर्पण की भावना जगाता है, उनसे राष्ट्रहित में आधुनिक नागरिक अधिकारों के परित्याग की मांग करता है और इसे सुनिश्चित करने के लिए राज्य मशीनरी की हिंसक शक्ति के अतिरिक्त ग़ैर-राज्य मिलिशिया के संगठित समूहों का उपयोग करता है। जाहिर है यह एक ऐसा निज़ाम है जो अंततः राष्ट्र, राज्य और नागरिक तीनों के लिए विनाशकारी साबित होता है।

भारतीय फासीवाद की कुछ अपनी विशेषताएं। ये विशेषताएं भारत की अपनी परिस्थितियों से उत्पन्न हुई है। भारत विविधताओँ से भरा हुआ एक विशाल महादेश है, जहाँ यूरोप के छोटे देशों में फले फूले फासीवादी-नाज़ीवादी प्रयोग का टिक पाना असंभव था। यूरोप में फासीवाद के प्रयोग मुख्यतः एक व्यक्ति- महानायक – को केंद्र में रखकर चले. मसीहा के रूप में महानायक की स्थापना वहाँ के फासी-नाजी निजामों की बुनियाद थी. भारत में भी फासीवादी राजनीति महानायक का इस्तेमाल करती है, लेकिन वह हमेशा मात्रि-संगठन के नियंत्रण में रहता है. इसलिए एक महानायक के विफल होने पर उसे दूसरे से विस्थापित किया जा सकता है.

वास्तव में इस विशाल महादेश की समाज-राजनीति को एक सर्वोच्च व्यक्ति-केंद्र नियंत्रित नहीं कर सकता. ऐसा नियंत्रण कायम करना किसी ऐसे ही संगठन के बस की बात है, जिसकी शाखाएं हर गाँव-शहर-बस्ती में, हर गली-कूचे में फ़ैली हुई हों. जो अपने आप में स्वायत्त इकाइयों की तरह काम करती हों, लेकिन जो संगठन के दृश्य-अदृश्य आतंरिक नेत्रित्व के फ़ैसलों, प्रचार-अभियानों, सांस्कृतिक-राजनैतिक रणनीतियों और तात्कालिक कार्यक्रमों को मशीनी कुशलता और तत्परता के साथ लागू कर सकते हों. भारत में संघ ने महानायक से पहले ऐसे संगठन के निर्माण पर जोर दिया, कि जिसकी जमीनी ताक़त से आज वह महानायकों को प्रक्षेपित और नियंत्रित कर सकने की स्थिति में है.

संघ जिस तरह वैयक्तिक नायकत्व और सांगठनिक सर्वोच्चता को एक साथ साध लेता है, उसी तरह अपनी हजारो इकाइयों, समूहों, मंचों और संस्थाओं की सापेक्षिक स्वायत्तता और कठोर सांगठनिक नियंत्रण को भी. वह उसी तरह बहुत तरह के वैचारिक –राजनीतिक नवाचार और हिंदुत्व की अपनी कोर-विचारधारा की कट्टरता को भी एक साथ साध लेता है. यह विचारधारा राजनीति के हिन्दूकरण और हिन्दुओं के सैन्यीकरण की  सावरकर–प्रणीत विचारधारा है.

कोर–कट्टरता और  बाहरी लचीलेपन के इस विरुद्ध सामंजस्य ने भारतीय फासीवाद को एक लम्बी कालावधि में, बदलते हुए अनेक अच्छे -बुरे दौरों में टिके रहने और आगे बढ़ने की क्षमता प्रदान की है. ध्यान से देखने पर साफ़ हो जाता है कि ये सारी विशेषताएं हिन्दू वर्ण-जाति व्यवस्था की वे विशेषताएं हैं, जिनके सहारे ये व्यवस्था हजारो सालों से बदलती हुई ऐतिहासिक परिस्थितियों के बीच ख़ुद को बचाए रखने में ही नहीं, अधिकाधिक मजबूत बनाते जाने में भी सफल हुई है .

भारतीय फासीवाद दुनिया का सबसे दीर्घकालीन राजनैतिक अभियान है। यह अभियान व्यवस्थित रूप से सन् 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के साथ शुरू होता अनेक अवस्थाओं से गुजरता हुआ आज तक चला रहा। संघ की संकल्पना में इतालवी फ़ासीवाद और जर्मन नाजीवाद की प्रेरणाओं और प्रभावों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। विश्व युद्ध के साथ इन दोनों प्रयोगों का उदय और अस्त बहुत तेज गति से हुआ। भारत में संघ का की राजनीति लगभग 100 वर्षों के समय अंतराल में धीमे-धीमे फलती फूलती रही है .

 अब जाकर वह एक ऐसी स्थिति में है जब यह कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति और समाज नीति के नियंत्रणकारी और निर्णायक निकायों पर उसका प्रभुत्व लगभग उसके इच्छा-अनुसार कायम हो चुका है। यह बदलाव धीमी गति से भारतीय समाज राजनीति की समूची संरचना बाहर से बहुत बदले बग़ैर उसकी अंतर्वस्तु को  भीतर से बदलते हुए किया गया है।  यह बदलाव ऐसे हैं जिन्हें अनकिया  करने के लिए उतने ही दीर्घकालीन सतत उद्यम की जरूरत होगी. इसलिए किसी को यह मुगालता नहीं होना चाहिए कि केंद्र की सरकार बदल जाने भर से भारतीय फासीवाद को शिकस्त दी जा सकेगी।

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सैनिक या सैनिक तरीकों से सीधे राजनेता पर कब्जा करने की किसी तात्कालिक परियोजना के बजाय शुरू से ही भारतीय राजनीति के स्वरूप को बदलने और और भारतीय नागरिक समाज की चेतना को अपनी कल्पना के अनुसार पुनर्निर्मित करने पर जोर दिया है।

 प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध विविधताओं से भरे विस्तृत भूभाग वाले किसी विशाल देश में सहजीवन, सद्भाव, मेल-जोल, साँझापन, सहभागिता, नवोन्मेष और विविधता के सम्मान जैसे गुण सहज ही विकसित हो जाते हैं। संघ की स्थापना के समय भारत का राष्ट्रीय आंदोलन इन्ही सामाजिक मूल्यों के साथ विकसित हो रहा था।

लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के आधुनिक विचारों ने इन मूल्यों को और अधिक मजबूत और चमकीला बना दिया था। इन विचारों के बढ़ते प्रसार ने भारत के परंपरागत वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सत्ता संरचना के ध्वजधारियों को गहरी चिंता में डाल दिया था।  संघ और हिंदू महासभा के संस्थापकों और उन्नायकों का सीधा सम्बंध इन्ही तत्वों का सर्वोच्च प्रतिनिधित्व करने वाली मराठी पेशवाई की परंपरा से था। वे भारत में एक ऐसे राष्ट्रवाद को स्थापित करने के लिए बेचैन थे, जिसके जरिए स्वाधीनता संग्राम के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समाजवादी मूल्यों को संघ द्वारा पोषित मूल्यों से विस्थापित किया जा सके

 संघ धर्मनिरपेक्षता की जगह धर्म-सापेक्षता, लोकतंत्र की जगह वर्णाश्रम संस्कार तथा समाजवाद की जगह अंध-राष्ट्रवाद को स्थापित करने की प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष  मुहिम चलाता रहा है। संघ धर्मनिरपेक्षता की निंदा  उसे छद्म बताकर करता है। सूडो-सेकुलर होना संघ की बोली में भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी गाली है।

 वैसे तो वह  पंथनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग यह जताने के लिए भी  करता है कि उसे सेकुलरिज्म की आधुनिक अवधारणा से कोई बुनियादी समस्या नहीं है, और कि भारत में धर्म-राज्य की स्थापना करना उसका लक्ष्य नहीं है। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की जगह पंथनिरपेक्षता शब्द का चुनाव करने से यह स्पष्ट है कि संघ राजनीति में धर्म की केंद्रीय भूमिका को स्वीकार करता है। एक बार इसे स्वीकार कर लिया जाए तो बताने की जरूरत ना होगी कि भारतीय राजनीति में यह केंद्रीय भूमिका किस धर्म की होगी।

सावरकर की हिंदुत्व की थीसिस को ध्यान में रखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह वही धर्म है जो भारतीय महाकाव्यों के माध्यम से एक संस्कार के रूप में भारत के प्रभुत्वशाली  वर्ग के जनमानस में उपस्थित है। इस संस्कार का सबसे प्रचलित नाम वर्णाश्रम है। सच है कि सावरकर से लेकर  मोहन भागवत तक हिंदुओं में जाति पाति की बुराई के खिलाफ अभियान चलाने की बात करते रहे हैं, लेकिन यह अभियान प्रायोजित सह्भोजों तक सीमित है।

सावरकर ‘हिंदुत्व’ में लिख चुके हैं कि वर्णाश्रम ही वह संस्कार है. जिसमें अनेक ऐतिहासिक चुनौतियों के सामने  हिंदू समाज की रक्षा की है। इसी रचना में उन्होंने यह भी कहा है कि एक राजनीतिक हिंदू की सबसे बड़ी पहचान उसका वह हिंदू संस्कार है जो उसे भारतीय आर्ष ग्रंथों से मिलता है। यहां अलग से यह कहने की जरूरत नहीं है कि यह संस्कार वर्णाश्रम के सिवा कुछ और नहीं है।

 वर्णाश्रम संस्कार समानता और लोकतंत्र के किसी भी आधुनिक विचार के खिलाफ है.। यह संस्कार बड़े और छोटे के भेदभाव को सम्मान की नजर से देखने और स्त्री पुरुष के बीच के स्वाभाविक और सांस्कारिक विभेद को बनाए रखने में है. सावरकर और संघ हिंदू-एकजुटता हिन्दुओं के सैन्यीकरण की जरूरत के तहत जाति-पांति को मिटाने की बात करते हैं, लेकिन वे उस संस्कार को मिटाने की बात सोच भी नहीं सकते, जिसे वर्णाश्रम कहते हैं.

यह वही संस्कार है, जो भारतीय आर्ष ग्रंथों- वेद-पुराण- रामायण –महाभारत- गीता इत्यादि – का मुख्य प्रतिपाद्य है. इस वर्णाश्रम संस्कार की ध्वजा उठाये हुए ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे मुसलमान,  राम नाथ कोविंद जैसे दलित और द्रौपदी मुर्मू जैसे आदिवासी संघ द्वारा सम्मानित और प्रतिष्ठित किये जाते हैं. इसी वर्णाश्रम संस्कार के खिलाफ संघर्ष छेड़ने के कारण उमर ख़ालिद,  आनन्द तेलतुम्बडे , स्टेन स्वामी, पांडु नरोटे और जी एन साईबाबा जैसे लोग राज्य की अधिकतम बर्बरता झेलने के लिए विवश किए जाते हैं.         

 जहां तक समाजवाद की बात है, इसे सभी आधुनिक नागरिक समाजों में सामाजिक राजनीति के लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है। पूंजीवादी देशों में भी लोककल्याणकारी   राज्य की अवधारणा में समाजवाद की कल्पना मौजूद रही है. इसके ठीक विपरीत फासीवाद,  नाजीवाद और हिंदू राष्ट्रवाद जैसी विचारधाराएं  सबसे ज्यादा इस बात पर जोर देती  हैं कि ‘राष्ट्र’ के हित के समक्ष नागरिक को अपने सभी अधिकारों और हितों को कुर्बान करने के लिए तैयार रहना चाहिए। व्यावहारिक स्तर पर इसका अर्थ होता है की आम श्रमजीवी जनता को देश के छोटे-से मलाईखोर शासक वर्ग के हितों के लिए कुर्बानी देने को तैयार रहना चाहिए।

100 सालों में संघ की सफलता इस बात में है कि उसने भारतीय समाज में इन प्रतिगामी मूल्यों के लिए जनमत  के एक अच्छे खासे  हिस्से को तैयार कर लिया है। भारत में जाति व्यवस्था और वर्णाश्रम  के रूप में यह सभी मूल्य हजारों वर्षों से जनमानस के किसी न किसी कोने में मौजूद रहे हैं। भारत की आजादी की लड़ाई के अग्रधावकों ने  केवल राजनीतिक आजादी की लड़ाई नहीं छेड़ी थी। गांधी, नेहरू, भगत सिंह और आम्बेडकर ने  अपने- अपने तरीकों से भारतीय जन की सांस्कारिक  आजादी की लड़ाई भी छेड़ी थी. इसीलिए उन्होंने लगातार वर्णाश्रम के  परंपरागत मूल्यों की जगह आधुनिक नागरिक मूल्यों को स्थापित करने पर जोर दिया था।

ये आधुनिक मूल्य भारत की सनातन  परंपरा में एक गंभीर विक्षेप  की तरह हैं. संघ ने कुल इतना किया है कि इस विक्षेप को निरस्त कर पुराने सनातन संस्कारों को पुनर्स्थापित करने की कोशिश की है. फिर भी उसे इस काम में 100 साल लगे हैं तो मानना चाहिए कि राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रधावकों  ने भारतीय समाज को रूपांतरित करने में कितनी दूर तक सफलता हासिल कर ली थी!


 

 प्रतिरोध की संभावना

 अभी भी कुछ लोग भारत में फासीवादी निज़ाम से सिर्फ इसलिए इंकार करते हैं कि इस देश में गैस चैंबर  स्थापित नहीं किए गए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि भारतीय फ़ासीवाद ने फ़ासीवाद के  अतीत से बहुत कुछ सीखा है। उसने समझ लिया है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण  देश में  भौतिक गैस चैंबर से कहीं अधिक असरदार और स्थायी  व्यवस्था है देश के भीतर सामाजिक और  मनोवैज्ञानिक गैस चैम्बरों का विस्तार।

लगभग समूचे देश को एक ऐसे सांस्कृतिक गैस चेंबर में बदल दिया गया है, जिसमें एक व्यक्ति और एक विचारधारा की गुलामी से इनकार करने वाले स्वतंत्रचेता जन अपने जीवित होने का कोई मतलब ही ना निकाल सकें।

यूरप की लोकतांत्रिक परम्पराओं के कारण फ़ासीवादी राज्य की स्थापना के लिए कानूनी बदलावों की जरूरत थी. भारत में ‘भक्ति-परम्परा‘ की जड़ें बहुत गहरी हैं. शर्तहीन-समर्पण का संकार प्रबल रहा है. क्या यह भी एक कारण है किभारत में यूएपीए और अफ्स्पा जैसे कुछ विशेष कानूनों के अलावा व्यापक कानूनी बदलावों की जरूरत नहीं पड़ी है?

फ़ासीवाद की मुख्य जीवनी शक्ति नफ़रत की भावना है। हमारे देश में वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा के कारण अपने ही जैसे दूसरे मनुष्यों से तीव्र नफरत का संस्कार हजारों वर्षों से फलता फूलता रहा है। वोट तंत्र ने इस नफरत को उसकी चरम सीमा तक पहुंचा दिया है। क्या भारतीय फ़ासीवाद नफरत के इस चारों ओर फैले खौलते हुए समंदर से उपजे घन-घमंड के रूप में ख़ुद को जनमानस में स्थापित कर चुका है?

लेकिन यह समय उदास होने या निराशा में डूब जाने का नहीं है।

 जैसे फ़ासीवाद ने अपने इतिहास से सीखा है, वैसे ही प्रतिरोध की शक्तियों को भी अतीत के अनुभव का लाभ उठाना चाहिए। फासीवाद केवल अल्पसंख्यकों को नहीं, कमोबेश सभी नागरिकों को पीड़ित और तबाह करता है। भले ही भक्तजन  ख़ुद अपनी बर्बादी को न देख सकें।

आज एक ऐसे प्रबल सांस्कृतिक-सामाजिक आंदोलन की जरूरत है, जो जनसाधारण को उनकी अपनी ही यातना और हमारे  देश के ऊपर टूट रही महा-विपत्ति के बारे में जागरूक कर सके, जो एक तरफ तो लोगों को उनके वास्तविक दुखों के प्रति सचेत कर सके और दूसरी तरफ उन्हें राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के महान प्रयत्न के साथ एकजुट कर सके।

एक ऐसे महान राष्ट्र के सपने को जीवित करने की जरूरत है जो बुद्ध, कबीर, अंदाल, मीरा,  मोइनुद्दीन चिश्ती, अंबेडकर, पेरियार, गांधी, भगत सिंह, प्रेमचंद और फैज़ अहमद फैज़  के सत्य, न्याय,  क्रांति और प्रीति के आदर्शों से स्पन्दित हो। निरंकुश निजीकरण पर रोक तथा शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों के सम्पूर्ण राष्ट्रीयकरण के बिना यह सपना पूरा नहीं हो सकता।

'इसी दुनिया में' दोबारा

यह लेख वीरेन दा के पहले संग्रह के पुनर्प्रकाशन के मौके पर लिखा था। 'इसी दुनिया में' दोबारा ----------- “शहतूत के पेड़ में उग आ...