Thursday, January 28, 2010

खून की नदी में ताजा गुलाब [गोरख पांडेय की पुण्यतिथि पर ]

गोरख पाण्डेय की अनेक पंक्तियाँ लोक स्मृति का हिस्सा बन चुकीं हैं. वे हमारी चेतना में हमेशा जीवित रहतीं हैं. हम जिन्दगी को जिन रंगों रूपों में पहचानते हैं, वह पहचान ऐसी ही पंक्तियों के उजाले में बनती है.कविता इसी तरह जिन्दगी का हिस्सा बनती है.' आँखें देख कर' एक ऐसी ही कविता है.

" ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चाहिए."
कुल कविता यही एक वाक्य है. यहाँ एक भी अतिरिक्त शब्द जोड़ना उस बेचैनी को हल्का कर देना होगा, जो दुनिया बदल देने के लिए जरूरी है .कितनी सुन्दरता होगी उन आँखों में ,जिन में दुनिया भर की ये तकलीफें न होंगी. इस कविता के उजाले में हम उस अदृश्य सुन्दरता को देख पातें हैं , जो अभी तकलीफ के पर्दों में छुपी हुयी है.जीवन की सुन्दरता का जो संकेत इस कविता में है , वही इसे कालजयी बनाता है. इस कविता की विचलित कर देने वाली बेचैनी का यही रहस्य है.
.
'हमारी यादों में छटपटातें हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी जुबानें चीखतीं हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार!
अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव .
यहीं पर एक बूढा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और
उम्मीद रख जाता है.' [फूल और उम्मीद]
अछ्छी कवितायें अपने समय का दृश्य लिखतीं हैं. सब से अछ्छी कवितायें वह भी लिखतीं हैं, जो अदृश्य है, लेकिन है.
जीवन यातनामय है . लेकिन यातना जीवन नहीं है. जीवन है यातना के बावजूद उम्मीद. अँधेरे हैं , अत्याचार है, कुरूपताएं हैं , लेकिन यही अंतिम सच्चाई नहीं है.इन से बड़ी सच्चाईयां हैं- उजाला, प्यार और सुन्दरता . सपने और उम्मीदें. इन सच्चाईयों का भरोसा ही संघर्ष के संकल्प को जन्म देता है और ज़िंदा रखता है.गोरख के यहाँ प्यार और जिन्दगी की सुन्दरता ही कविता की बुनियाद है. जिन्दगी इतनी सुन्दर और प्यारी है , इसी लिए उन स्थितियों को समझना और उन को बदलने के लिए लड़ना जरूरी है, जो उसे बदसूरत बनाती हैं.गोरख की कविता जाती तौर पर सौंदर्य और संघर्ष की कविता है.उनकी कविता में हर जगह जहां यातना है, वहीँ उम्मीद भी है .जहां अत्याचार है , वहीँ प्यार भी है, जहां कुरूपताएं हैं , वही सुन्दरता भी है.' खून की नदी' कविता में राजकुमारी और उसे गुलाब के फूल भेंट करने वाले माली को मार दिया जाता है, लेकिन "माली की आत्मा आज भी/राजकुमारी को / ताजा गुलाब के फूल भेंट करती है/जो धारा में तैरते चले जाते हैं ."कविता का अंत यों होता है-
"हमारे गाँव की पीढ़ी-दर-पीढ़ी यादों के
धुंधले किनारों से हो कर
खून की नदी बह निकलती थी
जिस में गुलाब के ताजा फूल तैरते थे."
खून की नदी में ताजा गुलाब. मनुष्यता के इतिहास को शायद ही इस से अधिक सशक्त बिम्ब दिया जा सके.
गोरख एकाकी अवसाद या इकतरफा आह्लाद के कवी नहीं हैं. न विरुद्धों के सामंजस्य के.वे उस संघर्ष के कवी हैं जो जीवन और जीवन-विरोधी स्थितियों के बीच हमेशा जारी रहता है. उनकी कविता अनुभूति की प्रामाणिकता तथा कला की स्वायत्तता की मांग करने वालों का प्रत्याख्यान तो करती ही है,आक्रोश की अराजकता तथा सामंजस्य की समकालीनता से भी सीधी मुठभेड़ करती है .

'स्वर्ग से विदाई गोरख' की अंतिम कविताओं में से है.इस कविता में एक इमारत है जो स्वर्ग जैसी आलिशान और सुविधा संपन्न है. इमारत बन कर खडी हो गयी है और अब मालिकान उन मजदूरों को वहाँ एक क्षण भी रुकने नहीं देना चाहते, जिहोने अपनी मेहनत और कारीगरी से उस का निर्माण किया है.स्वर्ग से कामगारों की विदाई एक ऐसा मोटिफ है जो गोरख की कविताओं में बार बार आता है. आज दुनिया में जो स्वर्ग सरीखी सुख सुविधाएँ मौजूद हैं, वे हजारों बरस की इतिहास यात्रा में मेहनतकश हाथों से निर्मित की गयीं हैं.लेकिन उन्ही मेहनतकशों को उस स्वर्ग से बेदखल कर दिया गया है. यह मनुष्य का उस की सृजनात्मकता से यानी उस की मनुष्यता से अलगाव है.यही मनुष्य की सबसे बड़ी यातना और अपमान है. सामंतो और पूंजीशाहों ने मनुष्य के बनाये स्वर्ग को छीन कर उसे नरक में धकेल दिया है.
ध्यान गए बगैर नहीं रहता की गोरख के यहाँ मनुष्यता का यह अलगाव और अपमान जहां सब से अधिक मूर्त है, वह है स्त्री का जीवन. घर भी एक स्वर्ग है जिसे स्त्री ने अपने खून पसीने से बनाया है. लेकिन इसी घर में वह नरक भी है जहाँ वह एक कैदी की तरह जिन्दगी बसर करती है.घर हो चाहे दुनिया हो , स्वर्गों पर काबिज लोगों ने सच्चे निर्माताओं को नरक में डाल रखा है. लेकिन इस नरक के रहते क्या वे खुद भी सुखी रह सकते हैं?क्या वे खुद भी दण्डित नहीं हैं?गोरख की कविता के पास यह दुर्लभ अंतर्दृष्टि है की सत्ता और पितृसत्ता का का व्याकरण एक है, तर्क एक है और नियति भी एक है
.घर घर में फांसी घर हैं
घर घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकरा कर
गिरती है वह
गिरती है आधी दुनिया
सारी
मनुष्यता गिरती है
हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं.

इस दंड से मनुष्यता की मुक्ति कैसे होगी?शायद उस मुक्ति संग्राम की अगली कतारों में भी स्त्रियों को ही होना होगा. 'कैथर कला की औरतें' कविता ठीक इसी सम्भावना को सेलिब्रेट करती है.इन जुझारू औरतों के गोल में वह किशोरी भी शामिल है , 'जिसे सात सुरों में पुकारता है प्यार ', जिसने महल अटारी का पत्थर बन जाने की जगह साफ़ कह दिया है की 'मां , मैं जोगी के साथ जाउंगी.'गोरख की कविता में प्यार करना और अन्याय के खिलाफ लड़ना दोनों अपनी मनुष्यता को रिक्लेम करने की एक ही जीवन प्रक्रिया के हिस्से हैं.
सूतल रहलीं सपन एक देखलीं
सपन मनभावन हो सखिया
.............
गोसयाँ के लाठिया मुरइया अस तुरलीं
भगवलीं महाजन हो सखिया
......
बयिरी प्इस्वा के रजवा मेटवलीं
मिलल मोर साजन हो सखिया .

12 comments:

Rangnath Singh said...

गोरख पाण्डे को हार्दिक श्रद्धाजंली।

javed alam said...

Gorakh pandey ji ke rachanao se ham abhi tak nawakif the.apne unki rachnao ka jo vishlesad kiya hai usse lagta hai ki Panday ji Khoon ki nadi main taaza gulab ki tarah hi the.lekin Sir, woh kya baat hai jisse is gulab ko patjhar aane se pahle hi murjhane par majboor hona pada(yaani atma-hatya karni padi)?.sir aisi kya baat hai jisme dusro ke sangharsh me kandha se kandha milakar chalnewala apne he atma-sangharsh se haar jata hai?? meri yahi dua hai ki pandey ji ki rooh ko sukoon mile.PANDEY JI ko haardik sradhanjali.

आशुतोष कुमार said...

जावेद , आप ने एक बेहद संजीदा सवाल उठाया है . सच कहूँ , इस का कोई निश्चित उत्तर मेरे पास है भी नहीं. वैसे यह तो सभी जानतें है की गोरख सिजोफ्रेनिया नाम की गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रहे थे. यह सब से अधिक यातना दायक बीमारियों में से है .यह उन मनोरोगों में से है जिन के इलाज़ की सफलता का प्रतिशत भी तुलनात्मक रूप से काफी कम है.गोरख ने लम्बे समय तक इस रोग से संघर्ष किया. इस दौरान उनका राजनीतिक और सांस्कृतिक काम काज भी चलता रहा. अंत तक शायद उन्हें यह महसूस होने लगा था की ठीक न हो सकेंगे.
शायद ऐसा समझ लेना ठीक नहीं है की प्रत्येक आत्म ह्त्या किसी आत्म संघर्ष में व्यक्ति की हार का नतीज़ा होती है."नामंजूर , मुझ को ज़िन्दगी की शर्म की सी शर्त नामंजूर " ऐसा कह पाना और जिंदगी से जोंक की तरह चिपटे रहने से इनकार कर देना न कोई हार है न कायरता. हाँ , इस से यह नहीं समझना चाहिए की मै आत्महत्या को गौरवान्वित कर रहा हूँ.
विश्व साहित्य में मनोरोगों से जूझने वाले लेखकों की लिस्ट बहुत लम्बी है. आत्महत्या को विकल्प के रूप में चुन ने वाले लेखक कवी भी सैकड़ों की तादात में हैं.हेमिंग्वे , मायकोवस्की, सिल्विया प्लाथ ,वर्जीनिया वूल्फ, स्टीफेन ज्विग के नाम तो हम सब जानते ही हैं. मशहूर मनोवैज्ञानिक कौफ्मैन ने सिल्विया प्लाथ प्रभाव की चर्चा की है. उन की खोज यह है की सृजनशील प्रतिभाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति तुलनात्मक रूप से अधिक पायी गयी है. इस पर प्रभूत मात्रा में शोध कार्य चल रहें हैं , लेकिन अंतिम रूप से सिद्ध किसी निष्कर्ष पर अभी नहीं पहुंचा जा सका है.
अंत में आत्महत्या का विकल्प चुन ने वाले मशहूर पाकिस्तानी शायर शिकेब जलाली का यह शेर -

फसीले जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटें हैं
हदूदे वक़्त से आगे निकल गया हूँ मैं.

अभय तिवारी said...

गोरख जैसी संवेदना हिन्दी कविता में दुर्लभ है.. वे विरले थे.. इसीलिए उनकी कोमलता लहूलुहान होकर विदा हुई..

Ashok Kumar pandey said...

गोरख उन रचनाकारों में से हैं जिनके जीवन और रचनाकर्म में कोई फांक नहीं थी।

अभी पुस्तक मेले से आपकी किताब ले आया…उसी स्टाल पर मेरी भी एक किताब है-- शोषण के अभयारण्य!

Ashok Kumar pandey said...

हां उनकी आत्महत्या में आज के कुछ 'महान रचनाकारों' की भी भूमिका रही है…

Unknown said...

Tumhare shabd cheenkar
dulkee chal se chalte hue
unke ghore hava men urate hue dulatee marte hen
aur mukh ke bal girate hen shabd
dool ke beechon-beech
naya bhashayee muhavara garhte- garhte-----
ye paridrishya Gorakh ka hanta hai
unhen salam
kalpana pant ,Rishikesh

HINDI AALOCHANA said...

gorakh pandey ke kavi karm ko salaam...........

rajeev ranjan giri

Anonymous said...

Mera kuch kahana shayad Mukatibodh ki Kitab ke samne Barahkharhi sikhne jaisa hoga. 15 saal narrative or vichar Jhelum se Kahan ke Kahan pahunch gaye hain. Pahle Tumahare depth Hilati thi ab tevar ke penchon use aur bhi nikhar dete hain.
Bus ek choti si atakan- Kya awasad or shangharsh ka solution(pain made tolerable by optimism) jaroori hai? Kya tanawon ka unapologetic depiction kaafi nahi hai?
Congratulation for a truly high caliber blog.
-Dhiraj

आशुतोष कुमार said...

आप सब का शुक्रिया. प्रत्येक टिप्पणी सोच की एक नयी दिशा की और इशारा करती है.
@धीरज, मेरे तेवर के पेंचों का तो पता नहीं, छीलने की कला के तुम्हारे तेवरों में निखार जरूर आया है. अ हा .

[अ हा माने अट्टहास . इसे LOL के लिए हिंदी में चला दें?]

Unknown said...

Gorakh Pandey ke baare me kya khu ,unke khne ke liye koi shabd nhi hai ya phir jitna kho km hai.abhi hunlogo ne yani Awam theatre group jo jamia Millia Islamia mei hai.23rd feb ko kavitaon ka manchn kya tha,jisme paash,Emannuel ortiz,Mahender singh aur gorakh pandey ki do kavita thi ek palestine aur doosra Utho mere desh.jiska direction maine kya tha.bahut tammana thi ke aise kavitaon ka manchn kroon aur wakai audience ka response milne ke baad woh tammana puri hui,kyun ki utho mere desh gorakh ki sabse lambi aur achi kavitaon me ek hai.pehli line hi itni zabrdast hai,subh chaurahe pr khade aur bikne ka intzar krte hue maine use dekha,beek jane ke baad.ultimate poem.

Ashok Kumar pandey said...

आशुतोष जी
जनपक्ष के लिये कुछ लिखें। आप लोगों के समर्थन से मिले बल तक इसे यहां तक ले आया…अब इससे आगे चलना मुझ अकेले के लिये मुश्किल है!

'इसी दुनिया में' दोबारा

यह लेख वीरेन दा के पहले संग्रह के पुनर्प्रकाशन के मौके पर लिखा था। 'इसी दुनिया में' दोबारा ----------- “शहतूत के पेड़ में उग आ...